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राजेंद्र यादव का साहित्य लोग भूल जाएँगे, उन्हें नहीं

उम्र के जिस पड़ाव पर ढेर सारे लोगों के आध्यात्मिक होते जाने के क़िस्से सुनाई देने लगते हैं, जीवन के उसी मक़ाम पर राजेंद्र यादव के प्रेम-संबंधों की अफ़वाहें लोग चटकारे लेकर एक-दूसरे से सुन-सुना रहे थे। टीवी पर आसाराम का समाचार आता और आस-पास बैठे लोग राजेंद्र यादव और ‘हंस’ में छपी किसी कहानी का ज़िक्र छेड़ देते। दरअस्ल, उनकी कोई उम्र नहीं थी। वह जिस किसी से बात करते, उसी की उम्र के हो जाते थे। उनकी फ़ितरत ही ऐसी थी कि समय उनके क़रीब जाकर अपने को जवान महसूस करने लगता था।

‘नई कहानी’ आंदोलन की जो त्रयी थी, उसमें मोहन राकेश और कमलेश्वर के साथ ही राजेंद्र यादव का नाम आता है। बावजूद इसके कि उस दौर में निर्मल वर्मा, मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती और ऊषा प्रियंवदा जैसे बेहद समर्थ दर्जनों ऐसे रचनाकार हैं; जिनका अवदान इस त्रयी से ज़्यादा रहा है, लेकिन शायद ही उनमें किसी के व्यक्तित्व का ताप और प्रताप नवतर रचनाकारों को इस हद तक प्रेरित और प्रभवित कर सका है। 

दरियागंज की तंग गली में ढेर सारी बासी पत्रिकाओं और पुस्तकों से अटा-पटा ‘हंस’ का दफ़्तर लगभग तीन-चार दशक से साहित्य का सबसे बड़ा प्लेटफ़ॉर्म बना हुआ है। देश के कोने-कोने से लोग वहाँ जाते। दूरस्थ बिहार, झारखंड या उत्तर प्रदेश के किसी क़स्बे की कोई लड़की, कोई स्त्री—कहानी के किसी प्रयोजन में अब-जब दिल्ली से लौटकर आएगी तो लोग उसे लेकर तरह-तरह की बातें नहीं बनाएँगे। शायद राजकमल चौधरी के लिए मैंने कहीं पढ़ा था—“उसका न होना, ढेर सारे पतियों के लिए अपनी पत्नी के पतिव्रता होने की गारंटी है।” 

राजेंद्र यादव का अचानक जाना किसी बेहद जवान के अचानक चले जाने जैसा प्रतीत हुआ था। वह हों, न हों, देश में कहीं भी होने वाली छोटी-बड़ी साहित्यिक गोष्ठियों और गप्पों में लोग उन्हीं की चर्चा करते। लोग उनकी निंदा करते और उन्हीं जैसा होना चाहते। लगभग चौथाई सदी के अपने जीवन में ‘हंस’ ने हिंदी कथा-साहित्य को सैकड़ों बड़े नाम दिए। आज उनमें से ढेर सारे लोग ख्याति और उपलब्धियों के शिखर पर हैं। सृंजय और सुरभि पांडेय जैसे भी हैं, जिनकी प्रतिभा का विस्फोट अब तक प्रतीक्षित है। राजेंद्र जी के उपन्यासों, उनकी कहानियों से ज़्यादा ‘हंस’ में उनके द्वारा लिखी संपादकीय-लेखों ने नई रचनात्मकता को ऊर्जा और आग दी है।

बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हिंदी भाषी प्रदेशों में फैलती जा रही सांप्रदायिकता की विषैली लताओं को रोकने के लिए उन्होंने सांप्रदायिकता विरोधी अच्छी, कम अच्छी और घटिया कहानियों की बाढ़ लगा दी थी। ‘कमंडल’ के विरोध में ‘मंडल’ का समर्थन करते हुए, उन्होंने मुस्लिम-विमर्श का वितान खड़ा कर दिया। इसके लिए गालियाँ सुनीं। उनके ख़िलाफ़ फ़तवे दिए गए। टस से मस नहीं हुए राजेंद्र यादव। वह एक बड़ा ऐतिहासिक दायित्व निभा रहे थे, लेकिन महानता का कोई ग़ुरूर नहीं। 

एक बार बातचीत में मैंने उन्हें ‘सर’ कह दिया। 

उन्होंने टोका : ‘‘तुम मास्टर ससुरे! ‘सर’ क्या होता है जी? मेरे माँ-बाप ने मेरा नाम रखा है राजेंद्र।’’ 

मैं जीभ चाटने लगा। नैतिकता, मर्यादा और किसिम-किसिम की महानताएँ उनसे बिदक कर भाग जातीं। कब किसका नाड़ा खोल दें। 

‘हंस’ के ज़रिए उन्होंने ‘दलित-विमर्श’ और ‘स्त्री-विमर्श’ की न सिर्फ़ शुरुआत भर की; बल्कि ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, डॉ. धर्मवीर, श्यौराज सिंह बेचैन और मैत्रेयी पुष्पा को हिंदी-साहित्य के इतिहास में प्रतिष्ठित कर दिया और मज़े की बात यह कि युग-प्रवर्तक होने का कोई दंभ नहीं।

वह अक्सर दबे पाँव गुमनाम जंगलों और खंडहरों की ओर जाते थे। वहाँ मधुमक्खियों के बड़े-बड़े छत्ते होते। उन्हें शहद में राई-रत्ती दिलचस्पी नहीं थी। उन्हें सिर्फ़ ढेला फेंक कर भागने की आदत थी। 

प्रियंवद के साथ वह लखीमपुर गए हुए थे। ज़िला पंचायत सभागार में किसी ने उनसे ओसामा बिन लादेन के बारे में कुछ पूछा। राजेंद्र जी ने शक्ति और समृद्धि के प्रतीक पेंटागन और वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के अहंकार को पल भर में तहस-नहस कर देने के लिए उसकी तुलना ‘हनुमान’ से कर दी। फिर तो शिवसैनिकों की भीड़ ने सभागार और शहर में हंगामा कर दिया। राजेंद्र जी लखनऊ के लिए निकल चुके थे। देश भर का मीडिया महीनों हनुमान चालीसा बाँचता रहा। 

उन्हें इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि लोग उन्हें कैसे देखते और क्या कहते हैं? जो सच लगा उसे कह दिया। जातक-कथाओं में बुद्ध और देवदत्त की तरह मुल्ला नसीरुद्दीन की तरह या अकबर-बीरबल की तरह भविष्य में सौ-दो सौ साल बाद स्त्री-पुरुष संबंधों की नाना कहानियों, क़िस्सों और चुटकुलों में संभव है, राजेंद्र यादव एक स्थायी पुरुष पात्र की तरह रचे जाएँ। उनके व्यक्तित्व में ऐसी ढेर सारी गुंजाइशें हैं कि उनमें अचंभित कर देने वाली किंवदंतियाँ फ़िट बैठती चली जाएँ।

वे लोग, जो उनके प्रशंसक हैं, कल किसी दूसरे को प्रशंसा करने के लिए तलाश लेंगे। समस्या उनकी नहीं है। जो राजेंद्र जी को उनके मुँह पर गालियाँ दे लेते थे, उन्हें उनकी कमी बहुत अखरेगी। दो-ढाई सौ साल बाद जब उनकी कहानियाँ पढ़ने को नहीं मिलेंगी। जब लोग उनके उपन्यासों के नाम भूल चुके होंगे, तब भी राजेंद्र यादव साहित्यिक गोष्ठियों और गप्पों में मौजूद रहेंगे। लोग उन्हें बतियाएँगे और सुनेंगे। जो जीवन उन्होंने जिया है और जो कुछ कर दिया है, वह उनके लिखे से बहुत बड़ा है। हमने ढेर सारे अवसरों पर बहुत सारा समय उनके साथ बिताया है। आने वाली पीढ़ी में हमारा महत्त्व इसलिए भी बहुत हद तक बना रहेगा कि हमने राजेंद्र यादव को प्रत्यक्षतः देखा है।

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