बारिश आँगनों का स्वप्न है
संदीप रावत
29 मई 2025

कई दिनों की लगातार बारिश के बाद मेरे घर के आँगन में यहाँ-वहाँ बारिश का साफ़ पानी तरह-तरह के आकारों में बैठ गया है। आँगन में बने पानी के इन आकारों में पानी का एकांत बैठ गया है। पानी का सौंदर्य, पानी का संगीत, पानी का रहस्य बैठ गया है और एक ऐसी सुगंध बैठ गई है, जो हर सुगंध का हृदय है। मेरे आस-पास उपस्थित मनुष्यों से, प्राणियों से, पेड़-पौधों से पृथ्वी की गंध आ रही है, और मैं बहुत समय बाद जड़ें महसूस कर रहा हूँ। एक बाल ख़ामोशी मेरे भीतर घुटनों के बल चल रही है।
सीढ़ियों, पत्थरों और लकड़ियों के टुकड़ों, पेड़ों की डालियों पर जंगल की रोएँदार, हरी, मुलायम, भीगी और ठंडी काई की महकती कतरनें बिछ गई हैं। यह धुला-धुला, नहाया हुआ हरा दृश्य मेरी साँसों को धीमा और गहरा कर रहा है। मेरी आँखों को साफ़ और विचारों को हरा कर रहा है। आँगन में अखरोट का पेड़ भीगकर गहरा भूरा और कुछ काला हो गया है। उस पर हरी-हरी निखरी हुई पत्तियाँ खिल रही हैं। मुझे भीगे पेड़ों, लकड़ियों और हरी काई से उठती सुगंध हर सुगंध की आत्मा लगती है। कितनी गहराई होती है—भीगे पेड़ों से उठती गंध में। कितनी प्राचीन है यह गंध। मुझे लगता है हर चीज़ के एकांत से, पेड़-घास और पत्थर की ख़ुशबू आती है और इन ख़ुशबुओं में डूबा हुआ मैं। मेरी आँखें इस पूरे माहौल के रंगों के पूरे पैलेट को पी रही हैं।
अस्सी साल के अखरोट की भूरी, भीगी, महकती इक टहनी पर एक घोंघा अपना ज्यामितीय घर लिए सरक रहा है। मैं कुछ नज़दीक जाता हूँ और पाता हूँ कि एक घोंघा पर्याप्त होता है हम इंसानों को चुप करा देने के लिए। वह चलता जा रहा है और मुझे ठहराता जा रहा है। घोंघे और उनका घर एक साथ जन्म लेते हैं और फिर उनका घर उनके साथ-साथ बड़ा होता है। घोंघे का घर यानि उसका सुरक्षा-कवच ऐसा लग रहा है, मानो पानी में कहीं एक भँवर बना हो और बनकर जम गया हो। ऐसा लगता है इक छोटी-सी, चकराती हुई गैलेक्सी सरक रही है। वह सरक रहा है और उसका घर स्थिर है, जैसे किसी पनिहारिन के सर पर गगरी स्थिर रहती है। अखरोट की भूरी, भीगी, चिकनी इक टहनी पर एक घोंघा अपने वर्तुलाकार, शंखाकार घर के साथ सरकता हुआ। उसके हरे-भूरे भीगे रास्ते में पानी की छोटी-बड़ी बूँदें बैठी हुई हैं। उसकी राह किसी गली या टहनी जितनी पतली और कुछ टेढ़ी-मेढ़ी है। उसने अपनी राह ख़ुद चुनी है। वह अपनी भीगी-भूरी पगडंडी पर एक लहराती हुई सफ़ेद लकीर छोड़ता हुआ जा रहा है। चला जा रहा है... अकेला-आज़ाद। एक जीवन चला जा रहा है, उसे देख ऐसा महसूस हो रहा है—जैसे वह चुपचाप मेरे शब्दों, स्वप्नों, स्मृतियों के लिए दूधिया रंग की एक पगडंडी छोड़ता जा रहा है। मेरा मन उस चाँदी की रेखा पर चलना सीख रहा है। चलते हुए मेरा मन डगमगाता है और मैं एक पत्ता उठा लेता हूँ। पत्ते से उसके सींगों को छूता हूँ। वह एकदम से रुकता है और अपने घर के भीतर सरक जाता है। पता नहीं एक पल के लिए मेरी साँस किधर गई। घोंघे का रुकना और भीतर सरकना एक साथ होता है। मेरी साँस का खो जाना और मेरे भीतर घोंघे के कवच जैसी और जितनी ख़ामोशी का छा जाना एकसाथ होता है। बहुत दिनों बाद मैं अपने होने की ख़ामोशी महूसस करता हूँ। एक शंखाकार ख़ामोशी, जो मेरे सिर छाती और पेट में है। अगले पल घोंघा अपने घर से ऐसे बाहर सरक आता है जैसे किसी ज्यामितीय संरचना जैसी ख़ामोशी के भीतर कुछ देर रहकर कोई बात, कोई स्वप्न, कोई याद बाहर सरक आती है।
बारिश ने मेरे आँगन को नई दुनिया में बदल दिया है। अखरोट के पेड़ से कुछ हरे पत्तों के साथ कुछ कच्चे अखरोट भी झरे हुए हैं। कुछ पत्ते अपनी गोद में मिट्टी लेकर पानी के चहबच्चों के भीतर उतर बैठे हैं। कुछ पत्ते पानी के ऊपर, कुछ पानी के गिर्द। पत्ते, पानी के गिर्द यूँ बैठे हैं, जैसे पानी उन्हें कोई प्राचीन कथा सुना रहा हो। कहते हैं कि पानी की स्मृति बहुत गहरी और कल्पना बहुत ऊँची होती है। अब पानी को हमेशा याद रहेगा कि कभी वह कुछ देर के लिए मेरे आँगन में रुका था। आँगन में बैठे पानी की आँखों में पेड़, तैरते बादल और आकाश का प्रतिबिंब है। कहीं-कहीं मेरे घर की खिड़की और दरवाज़े भी झलक रहे हैं। इस समय मेरी माँ घर की खिड़की से कभी सामने पहाड़ों को देख रही है और कभी पानी के चहबच्चों और झरे पत्तों के बीच मुझे। आँगन में बैठा हुआ, यह पानी माँ को निहार रहा है, और मैं पानी के आईने में घर की खिड़की पर बैठी माँ को निहार रहा हूँ। स्वप्न से भी सुंदर यथार्थ। पानी के इस पर्दे पर बिना आवाज़ की एक फ़िल्म चल रही है। और रुका हुआ यह पानी ख़ुद न जाने कितनी चीज़ों से घिरा हुआ है। आँगन में इस रुके हुए पानी और धरती के भीगेपन की गंध ने ही तो मेरे भीतर भावनाओं, स्मृतियों और कल्पनाओं को गतिमान कर दिया है। मुझे याद आ रहा है, कि मेरी माँ और गाँव की स्त्रियाँ कोई लोकगीत गाते हुए, गाँव की नदी से ये पत्थर अपने सिरों पर रखकर आँगन में बिछाने के लिए लेकर आई थीं। मेरे दादा जी ने इन्हें आँगन की मिट्टी में रोपा था। मैंने पहाड़ों में अपना घर-आँगन बनाते लोगों को देखा है और मैं कह सकता हूँ कि मेरे दादा जी ने फूल की तरह इन पत्थरों को आँगन में रोपा होगा। शायद इसीलिए आज नदी, पानी के चहबच्चों के रूप में आकर बैठ गई है और आँगन के ये डाँशि पत्थर उस गीत की गूँज से चमक रहे हैं। खिल रहे हैं।
आँगन के पत्थरों पे रुका हुआ पानी। कितना अनोखा दृश्य है। पानी और पत्थर। कभी दोनों एक साथ नदी में बहते हुए। कभी दोनों एक साथ कहीं, बस बैठे हुए। कहीं पानी बहता और पत्थर रुका हुआ। और कहीं पहाड़ से लुढ़कर ठहरी हुई झील में गिरता पत्थर। कहीं पानी पत्थर के ऊपर से फिसलता हुआ, तो कहीं पत्थरों के नीचे ज़मींदोज़ होकर बहता हुआ। कहीं पानी के पीछे पत्थर छुपा हुआ। कहीं पत्थर के पीछे पानी। किसी प्राचीन स्मृति, किसी गूढ़ रहस्य या अर्थ की तरह। पानी और पत्थर मेरे मन को उस हाइकू जैसा कर देते हैं, जिसमें एक कीड़े की आवाज़ को पत्थर चुपचाप सोख रहे होते हैं और जिसमें एक घोड़ा नदी पार करने के लिए पुल की तरफ़ न जाकर नदी की तरफ़ चलने लगता है।
बारिश के बाद आँगन में उभरी पानी की ये नन्ही-नन्ही झीलें। एक ही पानी के कई आकार। पानी के ये खिले-खिले बेनाम फूल। ऐसा लग रहा है जैसे किसी आईने की मुलायम कतरनें कहीं से उड़कर आ गई हैं। पानी के चमकीले चहबच्चों से भरा आँगन यूँ लग रहा जैसे किसी पुराने गिरजाघर में मोमबत्तियाँ लिए कुछ गायक इकट्ठा हो गए हों, जिनके हृदय किसी सागरीय प्रार्थना से छलक रहे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे मैं कोई जीवंत पेंटिंग देख रहा हूँ—पहली बार। इस पेंटिंग में मुझे पंछियों की भीगी चमकीली चहक भी काँपती दिख रही है और ठंडी हवा की धुली हुई सफ़ेद एड़ियाँ भी। हवा पंजों के बल दौड़ रही है, अपने पायंचे उठाए। चिड़ियाएँ चहक-चहक कर अपनी परदार चहक सुखा रही हैं। ऐसा लग रहा कि रात भर से हो रही बारिश दरअस्ल कला-सृजन में रत बादल थे। किसी अद्भुत कला-सृजन में लीन, एकाकी सावन। घर के आँगन में बारिश द्वारा की गई कलाकारी से, न जाने कैसे, इस क्षण मुझे अपने भीतर विनम्रता की नर्म धूप महसूस हो रही है। ख़ुशकिस्मत हूँ कि मेरे पास एक आसमान को निहारता हुआ आँगन है। मैं इसी आँगन रहता हूँ, मगर इतना धुला, चमकीला, अछूता आँगन पहली बार देख रहा हूँ। ऐसा लग रहा है यह आँगन घर के सारे कमरों से बहकर बाहर आ गया है। पृथ्वी के सारे कमरों, घोंसलों, गुफ़ाओं, बिलों से बहकर यह आँगन, यहाँ मेरे सामने आकर बैठ गया है—उजला, सपने उत्सर्जित करता हुआ, अपने आप को उड़ेलने के लिए हर हृदय को पुकारता हुआ। आँगन में बिछे पाथरों के बीच उगी छोटी-छोटी घास ऐसे चमक रही है, जैसे हँसते हुए किसी के दाँत चमकते हैं। यह धरती हरी दन्तपंक्ति वाली एक गोल हँसी लग रही है।
बारिश ने एक हरे अनुभव से मुझे भर दिया है। मेरे भीतर अभी एक इच्छा की फुहार उड़ रही है, पृथ्वी जैसी गंध वाली एक कामना घूम रही है कि मैं अपने आँगन की प्रशंसा के लिए नंगे पैर पृथ्वी पर दौड़ जाऊँ और मेरा आँगन मेरे पीछे-पीछे आए और पूरी पृथ्वी पर फैल जाए।
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