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पीपर पात सरिस मन डोला

कहीं से लौट रहा हूँ और कहीं जा रहा हूँ। आज पैसे मिले थे तो कैब की सवारी है और साहित्यिक ब्लॉगों पर अक्टूबर की रूमानियत। आगे नवरात्र के पंडाल की भीड़ और लाउडस्पीकर, पीछे लेखकीय आभा में कुछ संवेदनहीन लोगों की तैयार होती भीड़। कभी-कभार भाषा मुझे इस तरह पगलाकर दौड़ाती है—मानो रुका तो चौदह सूईयाँ लग जाएँगी।

मैं दिल्ली के किसी फ़्लाईओवर पर ट्रैफ़िक में फँसा हूँ। हालाँकि मुझे पता है कि मैं कहाँ फँसा हूँ, लेकिन ‘किसी’ कह देने से बात थोड़ी बहुत रहस्यमय हो जाती है। यह रहस्य इसलिए भी ज़रूरी लगा कि अभी पीली रोशनी एक पीपल के पेड़ पर पड़ रही है और पत्ते डोल रहे हैं। मैं कहना चाहता हूँ—“माँझी! न बजाओ बंशी मेरा मन डोलता" 

काश कन्हैया माँझी होते या वाइस-वर्सा।

अभी अक्टूबर बीती, मैंने अपने एक नए मित्र से सप्तपर्णी की महक और तरंग में डूबकर कहा—“भाई इस बात में रूमानियत तो है लेकिन सच कहूँ तो अक्टूबर में ऐसा लगता है, जैसे शाम पैरों में सर्दी मल रही हो और कोई अपना बहुत दूर जा रहा हो।”

मैं देर तक उसके जवाब के इंतज़ार में उसे देखता रहा।

उसने मेरी आँखों में देखकर पूछा—“यह आपकी किसी कविता में है?”

“नहीं, काश होती। तो दूर जाने वाले को रोका जा सकता था अथवा यह जान सकते कि आखिर है कौन वह?”

कट टू… अब मैं उस लेखक की आँखों से बँधा हुआ था जिनके वर्ग के प्रति चली आ रही अमानवीयता में मेरा योगदान 10-12 बरस तो रहा ही होगा। मैंने उससे अपना अपराधबोध कहा। फिर सप्तपर्णी की एक तरंग छाई और शाम पैर में सर्दी मलने लगी।

हिंदी के सेमिनारों में बढ़ती भीड़ ने मुझे काफ़ी चिंतित कर रखा है। एक समय था जब ‘एक समय था’ का मुहावरा उचित था। आजकल साहित्यिक गोष्ठियों में विश्वविद्यालयीय शोधार्थियों और हुआ चाहते शोधार्थियों की भीड़ प्रोफ़ेसरों के हर पकौड़े के निवाले पर चटनी पलटने को आतुर हैं। हर विभागाध्यक्ष और संभावित विभागाध्यक्ष की किताबें कालजयी हैं। इन किताबों को पढ़ने वालों की कमी न हो इसलिए एक साथ विश्वविद्यालयों में सैकड़ों में पीएचडी की सीट आ रही है और उस पर भी उदारता ऐसी कि उससे अधिक ही भर्ती हो रही है। 

हमारे एक सीनियर ने एक मर्तबा इन शोधार्थियों को ‘आत्महत्या करने वालों की भीड़’ कहा। यकीन मानिए मैं नहीं मानता इनमें से एक भी मरेगा। ये सब ख़ुद को स्वमुखभाषी कबीर की पीढ़ी का मानते हैं—“हम न मरब, मरिहै संसारा”

इस चिंता से भी चित्त उचटा। मैंने मुँह मोड़ लिया और किसी सवर्णी शायर की रंगीन नज़्म की रचना-प्रकिया की खुदाई में लग गया। मैंने उस शायर के बरक्स उस कवि को रखा जिसके घूरने से मेरी एक मित्र तंग हो आईं। एक दफ़े मैंने शायर को कवि की कविता सुनाई थी उसे पसंद आई थी। भाव साम्य आज मिला। ऐसे में पीपर पात नीम में तब्दील हो जाती है और अक्टूबर में जेठ की लू चलने लगती है। बिहारी की नायिकाएँ सूखकर पलाश के फूल मानिंद लाल हो-होकर जहाँ-तहाँ गिरी पड़ी हैं और शायर-कवि बटोरने में व्यस्त हैं।

अगर मैं आज दोस्तोयेवस्की के किसी उपन्यास पात्र का हिंदी-अनुवाद होता और उनके उपन्यास में किसी बार में बैठा पी रहा होता तो शायर के पास जाकर कहता—“जनाब आप इस बात पर यक़ीन नहीं करेंगे लेकिन मैं आपको बहुत पहले से जानता हूँ। अरे आप आज शायर हुए हैं उससे पहले तो निठल्ले ही थे और आज आपको सुनकर मुझे उतनी ही निराशा हुई, जितनी तब हुई थी जब आपसे फलानी बीच पर मिलकर बीयर पीते वक़्त हुई थी। माफ़ कीजिएगा अगर मैं ज़्यादा बोल रहा हूँ। (उसी अनुवाद की भाँति बीच में कहता) लेकिन सच तो यह है कि आज आप और आप जैसे अनेक बरगद खड़े हो रहे हैं और अपने आस-पास के हर व्यक्ति को लेखक बनाने पर तुले हुए हैं। लेकिन वे पनपेंगे नहीं। ये आपको भी पता है बरगद महाशय। मेरा यह क़तई मतलब नहीं है कि आप ग़लत कर रहे हैं लेकिन भला कुछ तो ऐसा लोग रहें जो बूढ़ों को सड़क पार कराएँ, लड़कियों के पास तमीज़ से रहें और राइट/ लेफ़्ट/ लिबरल का लबादा ओढ़े होने का ढोंग न करें। सच कहूँ तो आप तब भी बीच पर उल्टी कर दिए थे; आज भी स्टेज पर आपकी हालत कुछ ठीक नहीं थी।”

मेरा इतना कहना होता और क्या पता वह शायर मुझे ज़ोर का मुक्का पेट में मारता। मैं मेज़ पर गिरता। वह उठकर निकलने को होता और मैं उसे पीछे से बुलाता और कहता—“जनाब आपने अपनी बीयर नहीं ख़त्म की और पेन भी छोड़कर जा रहे हैं। अच्छा यह आख़िरी बात तो सुनते जाइए... आप जहाँ कहीं अपने छद्म नाम से कमेंट करते हैं, मैं जान जाता हूँ क्योंकि आपकी महक वहाँ छूट जाती है।” 

वह पहले सबकी तरफ़ फिर मेरी तरफ़ देखता, देखकर-मुस्कुराकर अपमान भरी नज़रों से देखता और मैं एक पाइंट अगली साँस में पी जाता।

इस बात पर छिछलेपन का आरोप लगता और मेरी स्थिति रस्कोलनिकोव-सी होती। मैं हर लेखक से डरता, लेकिन यहाँ से अपराधबोध अनुपस्थित होता। मैं कहता कि मैंने उस लेखक को जो कुछ कहा अपने होशो-हवास में कहा और वह यही डिजर्व करता है। मेरी आवाज़ में परसाई बोलते। जब उनके यहाँ ईसा कहते हैं—हे ईश्वर! इन्हें माफ़ न करना ये साले जानते हैं ये क्या कर रहे हैं।

ख़ैर मैं वह पात्र नहीं हूँ। संस्कार से सुपात्र था, जो कुपात्रता की ओर बढ़ रहा है। लेकिन कैब तो फ़्लाईओवर पर अभी भी रुकी है। यह वक़्त उस बच्चे के लिए मुफ़ीद है जो फ़्लाइओवर की आस्तीन से निकलेगा और हाथ में कुछ पेन लेकर गाड़ियों की खिड़कियाँ खटखटाएगा। मैंने अपराधबोध में अपनी निगाह दूसरी तरफ़ मोड़ी ही थी कि वह लेखक-संपादक अपनी पत्रिकाओं की पोटली मुझे थमाने लगा। अब मैं किधर देखूँ साहित्यकार तो दाएँ-बाएँ ही देख सकता है। कभी-कभी एक साथ देखता है जैसे शादी के दो हॉल अगल-बग़ल हों और खाने की चीज़ कहाँ अच्छी है, देखी जा रही हो। बहुत सोचकर मैंने नीचे देखा और मुझे आज धरती में गड़ जाने वाला मुहावरा समझ आया।

कैब अब आगे बढ़ने लगी। मुझे पंकज प्रखर याद आ रहे हैं मानो वह कालीदास को समझाते हुए ग़ालिब पर पहुँच गए हों और देर रात मुझे शेर पढ़ना सिखा रहे हों। मैं सप्तपर्णी की महक के तरंग में हूँ और कविपन की बेहूदगी में उन्हें अपनी कविता सुना रहा हूँ...। 

कैब हर पल एकांत के कृष्ण विवर में चली जा रही है। इस कच्चे घर में जहाँ सब सोने वाले हैं और आँगन में हल्की रोशनी कहीं से आ रही है—एक मेंढक उछलता हुआ आँगन पार द्वार खोज रहा है। मैं मेंढक को देख रहा हूँ और इससे पहले कि वह चला जाए मुझे भी सो जाना चाहिए।

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