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न सुधा जैसी कोई नायिका हुई, न चंदर जैसा कोई नायक

तीसरी कड़ी से आगे...

क्लबहाउस की दुनिया अब प्रौढ़ हो चुकी थी। अपने शुरुआती दिनों की तमाम स्थापनाओं के बाद यहाँ की सभ्यता, नियम-क़ायदों और ज़रूरी रीति-रिवाज़ से अब यहाँ बसने वाले बख़ूबी परिचित हो चुके थे।

अब हिंदी साहित्य के प्रति कवि ही नहीं, अकादमिक लोग भी चिंतित थे। वे नेट-जे.आर.एफ़ के बारे में बात करना चाहते थे। वे यूनिवर्सिटी कल्चर पर बात करना चाहते थे। देश भर के उन तमाम स्नातकों की चिंता विश्वविद्यालय में अब सीट पक्की करने की थी। इसके बाबत वे अपनी आगामी योजनाओं को साझा करते और देर रात तक बहस करते थे। 

अब यहाँ इस जगह पर, हर तरह के लोग थे और वे सभी एक साथ सोच रहे थे कि इस ख़ाली वक़्त को ज़रूरत के किस काम में उपयोग लाया जा सकता था।
 
कविता-साहित्य की बहुलता देखकर जीवन के अलग-अलग क्षेत्र में हो रहे लोगों ने पिछड़ने के डर से अपनी सहभागिता के बारे में सोचना शुरू कर दिया था। इस तरह चर्चा में बहुत कुछ ख़ुद को दर्ज कर रहा था। बहस के नए-नए आयाम खुल रहे थे। तर्क-कुतर्क की बहुआयामी परंपरा का विकास हो रहा था और क्लबहाउस की ऑडियंस कैटेगराइज़्ड हो रही थी। 

दैनिक जागरण के पेड और फ़र्जी नीलसन सर्वे में बनारस टॉकीज़ को नंबर वन पर आए हुए, वक़्त हो चला था। प्रो. कुमार पंकज के उस बयान पर भी जिसे उन्होंने  अपने एक व्याख्यान में कहा था—“मैं सत्य व्यास की बनारस टॉकीज़ पर भूजा रखकर खा सकता हूँ।” 

‘मेरी पसंदीदा पाँच पुस्तकें’ का बैनर टाँगे इस सर्वे रूम का उद्देश्य पुस्तकों से गुज़रने, प्रभावित होने और उन्हे क्यों पढ़ें? जैसे विषयों पर आधारित था। यह संभवतः उन्हीं लोगों की वांछित सोच का परिणाम था, जो चाँद पर अपनी पसंदीदा तीन पुस्तकें न ले जाने से चूक गए थे। कहना ही होगा यहाँ भी सत्य व्यास की किताब शीर्ष पर थी। संभवतः वह रहेगी... जब तक हिंदी साहित्य में तीसरे तरह के लोग रहेंगे, जिसकी चर्चा आलोचक प्रो. मैनेजर पांडेय कर गए हैं। 

इस पसंदीदा फ़ेहरिस्त में विनोद कुमार शुक्ल की ख़राब अनुकृति में ख़राब लेखक हुए सुंदर और बढ़िया अभिनेता मानव क़ौल ही उनके मुक़ाबिल जगह बना पाए थे। लेकिन इस सूची में अभी भी दूसरी जगह पर ‘गुनाहों के देवता’ ने रूमाल डाल रखा था। उसका योगदान इतना था कि रूम में उपस्थित बहुसंख्यक पाठक साहित्य की दुनिया में सिर्फ़ इसलिए ही आए थे। 

हालाँकि कुछ क्षुब्ध पाठक इस किताब से निराश थे। वे प्रेम के कवियों को बुरी तरह पीटना चाहते थे। जिसका इज़हार वे खुलेआम करते थे। वे चंदर और सुधा से भी ख़ासे नाराज़ थे। इस नाराज़गी को और पुख़्ता करतीं सुहासिनी गांगुली नाम की पाठक ने बहुत भभकती आवाज़ में अपनी सुचिंता व्यक्त की, “अगर अज्ञेय ‘नदी के द्वीप’ पहले लिख गए होते, तो ‘गुनाहों का देवता’ लिखने की क्या ज़रूरत होती?”

असफलता के बीच आभासी सफलता

क्लबहाउस ने नया अद्यतन किया और इस बीच इनबॉक्स में मैसेज करने की ज़रूरत के मुताबिक़ सुविधा भी उपलब्ध हो गई और इस आवाज़ की दुनिया में अमीन सयानी की जगह एक सयाने ने ले ली। वॉइस ओवर की दुनिया में हो चुकने और रेडियो जॉकी होने से चूक जाने के बाद उसने एक ऐसा रूम क्रिएट किया, जहाँ कविताओं-नज़्मों का अनवरत पाठ चलने लगा। वह कभी भी गाना गा सकता था, गिटार बजा सकता था, किसी बंगाली स्त्री को देखकर आमी-चीनी गो, चीनी-गो सुनाते हुए मुँह में गाज भर सकता था। श्रीकांत वर्मा की ‘बुख़ार में कविता’ की तर्ज़ पर वह दिल्ली की किसी अँग्रेज़ी पत्रकार को फ़ोन कर बुख़ार में गाना सुनने का दुराग्रह कर सकता था। वह पुराने लोगों के लिए विविध भारती का यूनुस ख़ान था और नए लोगों के लिए पंकज जीना और नए-पुराने के बीच में कहीं ठहरे लोगों के लिए ‘गुफ़्तगू’ वाला सैयद मोहम्मद इरफ़ान।    

यह मूड माँगे मोर...
 
फ़िज़ा की बेकली कम हुई, ज़र्द पत्ते हटे, रात जागी और बालकनी से चहलक़दमी की आहटें सुनाई देने लगीं। छत से राह देखने के दिन आए और बोलियास से भरे लोग और एक कामकाजी तबक़ा, अपने पुराने धंधे की ओर बढ़ चुका था। ऊबने वाले अब क्लबहाउस से भी उब चले थे। वहाँ प्रोफ़ाइल में सिर्फ़ डीपी बची थी। लेकिन इस बीच कुछ नवाचार की उम्मीद पाले उत्साही किशोरों ने क्लबहाउस को नया रंग दिया। उन्होंने रूम बनाया रेड-हॉट! मध्य रात्रि के बीच इसमें किसी दुनिया से लाकर उठाए गए पात्र भर दिए जाते थे। कोई सन्नी द रेसर था, कोई हार्ड बॉय था, कोई स्वप्ना थी और कोई यंगिस्तान का राजकुमार था—प्रिंस ऑफ़ गर्ल्स। इस तरह बहुत से लोग थे।

यह रेड रूम जिस तरह के संकेतों से चिह्नित था, उससे देखने मात्र से न देखने की चेतावनी के बाद देखने की उद्दाम लालसा बलवती हो उठती थी। दरअस्ल इसे ठीक-ठाक नाम दें तो यह ‘रति-अखाड़ा’ था। जहाँ मुख-मैथुन जैसी क्रियाओं की नक़ल में पूरा क्लबहाउस सीत्कृत हुआ जा रहा था। रीतिकालीन आचार्यों को चुनौती देता हुआ बॉडी-कॉउंट जैसा शब्द रति-विषयक शब्दकोश में दर्ज हो रहा था। वहाँ पार्टनर चुनने और इस वर्चुअल दुनिया में रति-विषयक बेहतरीन अनुभव प्रदर्शित करने की होड़ थी। देह के अभाव में दूरभाष-संभोग जैसे टर्म में परिपक्व हो चुके लोगों की रातें खिल उठी थीं। इस अर्थ में उन लोगों की रातें भी खिल उठी थीं, जिनके दिन के विषय अलग थे और रात के अलग। वे कुछ इस तरह यहाँ पाए जाते थे, जैसे उन्हें देखने वाला कोई न हो।

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इस आख्यान में न जाने कितनी कहानियाँ और कितने पात्र हैं, जो छूट गए हैं या छोड़ दिए गए हैं। सब कुछ कह पाना संभव नहीं, सब कुछ न कह पाने की लेखकीय प्रतिबद्धता भी है जिससे इनकार नहीं किया जा सकता और इस लेख की सीमा भी। लेकिन वह जो भी समय था, जाने क्या था! बोलने के अतिरेक से भरा हुआ। जहाँ कहने-सुनने की प्रायिकताएँ दम तोड़ रही थीं। उन दिनों की महक अब भी आती है। वे लोग जिनमें कुछ अब नहीं दिखते : जाने कहाँ, किस दुनिया में रह रहे होंगे—लेकिन उनकी भी एक याद बनी हुई है जीवन में...

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समाप्त

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