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हुस्न को समझने को क्लबहाउस जाइए जानाँ

दूसरी कड़ी से आगे...

समय और क्लबहाउस

मैं समय हूँ!—यहाँ यह कहने वाला कोई नहीं, लेकिन फ़ेसबुक के अल्गोरिदम की तरह क्लबहाउस का भी अपना तिया-पाँचा था, जिसे स्पीकर्स जितना जानते थे—सुनने वाले भी उतना ही।

सुबह का वक़्त ‘वॉल्टर क़ाफ़मैन’ की बनाई हुई रेडियो पर अलस्सुबह बजने वाली शिवरंजनी सुनने वालों की दुनिया थी। जहाँ पिन ड्राप साइलेंस के बीच क्लबहाउस पर ड्रम-पीटते एक अमेरिकी ड्रम मास्टर ने दिशाओं को सुबह का गान सौंप दिया था। यह ध्यान और योग की दुनिया के लोगों का वक़्त था, जो मेडिटेशन और ‘फ़ाइव वर्कआउट डेली’ के बीच में झूल रहा था।

दुपहर की भीड़ वर्क फ़्रॉम होम से अल्पाहार पर छुटे लोगों की थीं—‘जो गॉसिप क्या है?’ जैसा सवाल पूछते हुए दाख़िल होते और दर्पण शाह की पैरोडी और वीगननेस को सुनते हुए तरोई काटकर छौंका लगा लेते थे। यह सुशोभित के वीगनवाद के बहुत पहले की बात है, जहाँ मुर्ग़े की दुकान से लौटा कोई सुमित सिंह  वीगन होने के फ़ायदे गिनवा रहा था। 

इस दुपहरी में पसरी भयावहता के बीच घरों में बंद स्त्रियाँ थीं, जो तीज़हर के इंतिज़ार में सखी-सहेली से गुज़र रही थीं और अपने रोज़नामचे को बेहतर बनाने की तकनीक सोच रही थीं। वे कविता जैसा कुछ लिखने की कोशिश में थीं, जिसकी परिणति आगे चलकर किताबनुमा शक्ल में हुई।

कुछ इस तरह ‘साँझ की दुनिया’ उन सभी की दुनिया थी जो दिनचर्या से थोड़ा-सा दिन बचा लेते जिसे उन्हें रात में ख़र्च करना था—किसी भी तरह।

इस साँझ की दुनिया में मख़सूस लोगों की घुसपैठ होती, जिनके पास मुख़्तलिफ़ विषय थे, औरों से जुदा अंदाज़ और सलीक़ा भी। उर्दू के एक शाइर स्वप्निल तिवारी उन दिनों ऐसे ही एक हॉरर-रूम चलाया करते थे और भीड़ से उनके अनुभव इकट्ठा किया करते थे। बहुत संभव है कि अनुभवों को जमा करने का यह अनुभव उनकी हाल में ही प्रकाशित किताब ‘लल्ला लल्ला लोरी’ में नुमायाँ हुआ हो।

हुस्न को समझने को क्लबहाउस जाइए जानाँ

नब्बे के दशक में—‘तुमसे मिलने को दिल करता है रे बाबा तुमसे..’ की आपाधापी में चिट्ठियों के बीच प्रेम सुनिश्चित करता हुआ वक़्त अब बहुत आगे निकल आया था। नहीं मिल पाने की कसक लगभग ख़त्म हुई जा रही थी। फ़ेसबुक और इंस्टाग्राम के डेटिंग ऐप में तब्दील होते ही दूर जगह के लोग कहीं किसी कोने में, किसी से प्रेम कर सकते थे। कोई सरहद, कोई रात, कोई हॉस्टल, कोई पीजी उन्हें रोकने वाला नहीं था। अब वह वक़्त था, जब बंद कमरे में कहीं भी किसी के साथ प्रेम में हुआ जा सकता था।

क्लबहाउस की दुनिया में भी प्रेम ऐसे ही दाख़िल हुआ। जब लोग आवाज़ से मुहब्बत कर बैठे। कानपुर, दिल्ली, मधुबनी, सहरसा, सुल्तानपुर सब जगह के लोग एक साथ प्रेम में हो रहे थे। वहाँ इन आवाज़ की दुनिया के बीच कविता में हो रहे कवियों और चुपचाप सुनती हुई ‘जल लीजिए’ की डीपी लगाई उस लड़की या अन्य किसी के साथ अगर कुछ कॉमन था तो इंस्टाग्राम-फेसबुक आईडी! जहाँ से आवाज़ की दुनिया अपने वितान में और विस्तृत होने लगती। 

क्लबहाउस से इश्क़िया हुए लोग अब फोन पर ऊँघने लगे थे। क्लबहाउस उनके लिए अब गाहे-ब-गाहे आने-जाने का विषय था। इस इश्क़िया से कितने लोग सफल दाम्पत्य में हुए इसका आँकड़ा मुश्किल है, लेकिन कुछ का प्रेम अब भी बालकनी में ऊँघ रहा है।

नॉस्टेल्जिया से ऊबकर 

नब्बे के दशक की दीवानगी के दीवाने जो इस क्लबहाउस के इस्तेमाल से अब तक वंचित थे और पूरी नॉस्टेल्जिया के साथ आए थे, उनकी आवाज़ में एक भभका था। वे बोलने के लिए ढेर सारे संदर्भों से लैस थे। जहाँ समीर के गानों पर सवाल था। ‘आके तेरी बाँहों में...’ से लेकर ‘हाय-हुकु हाय-हुकु हाय-हाय...’ तक, गीत के क्रमिक ह्रास-विकास की परिचर्चा थी। 

वहाँ अब सुचिंताएँ बदलने लगी थीं। वे यूपी-बिहार के गुटखे की परंपरा और स्प्लेंडर में जवान हुए लड़कों की दिलचस्प कहानियाँ सुनकर मन फेरवट कर ऊब चुके थे। गाँव-शहर के आदर्श पर विवादित बहस जो अब तक ग़ालिब के एक मिसरे पर टिकी थी—लगभग थम-सी गई थी कि एक ऐसी जगह का अन्वेषण किया जाए, जहाँ वाक़ई कोई न हो... और यक़ीन मानिए आदमी यह सब सोचते हुए भी भयानक ऊब रहा था। वह हर एक चीज़ से ऊब रहा था। 

वह मंजनों के पारंपरिक स्वाद—‛टूथपेस्ट में नमक’ की जगह अब चारकोल को महत्त्व दे रहा। यह नॉस्टेल्जिया उनके लिए उस अंबेसडर कार की तरह था जिसमें न आरामदेह गद्दियाँ थीं, न पावर-ब्रेक था, न एसी...

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