एक रोज़ हम लौट आना चाहते हैं
हरि कार्की
06 मई 2024

मई 2024
तुमने कहा—जाती हूँ
और तुमने सोचा
कवि केदार की तरह मैं कहूँगा—जाओ
लेकिन मेरी लोकभाषा के पास अपने बिंब थे
मेरी लोकभाषा में कोई कहीं जाता था
‘तो आता हूँ’ कहकर शेष बच जाता था
यहाँ प्रतीक्षा को आश्वस्ति है
वापसी को निश्चितता
हमारा लोकदेवता एक चरवाहा था
जो बकरियों की तरह घास चर रहा था
और लौटने की पगडंडियों को गढ़ रहा था
कवि केदारनाथ सिंह ने बताया कि 'जाना' हिंदी की सबसे ख़ौफ़नाक क्रिया है, लेकिन कवि केदार ने ये नहीं कहा कि 'जाओ...लौट आने के लिए जाओ'। क्या ऐसा कहते हुए यह कविता इस बात को पुष्ट नहीं करती कि 'जाना' हिंदी की सबसे ख़ौफ़नाक क्रिया है और लौटना हिंदी की दूसरी सबसे सुंदर क्रिया है। हो सकता है कवि केदार ने कहीं और, किसी दूसरी कविता में लौटने को लेकर ज़रूर कुछ कहा हो, अब क्योंकि उनकी कविताओं पर मेरा अध्ययन बहुत कम है तो आपने अगर ऐसी कविता पढ़ी हो तो मुझे ज़रूर बताएँ/भेजें।
अप्रैल से अक्टूबर 2018 की स्मृतियों से...
ख़ैर मेरे लिए जो कवि केदार की कविता ने नहीं किया, उस काम को संभव करती कविता मुझे कवि शायक आलोक के पास मिली। कवि शायक की यह कविता जब सुनी तो वही हुआ जो होना चाहिए था—यह कविता रह-रहकर आपको लौट आने की पुकार देती है। मुझे लगता है कि यह आपको धीमा होने को कहती है। कवि शायक हमें इस कविता के साथ दूर तक तो ले जाते ही हैं और यह भी याद दिलाते हैं कि ये मत भूलो किसकी संतान हो। याद करो अपने पुरखो को मूर्खो! कैसे भूलते हो उनके द्वारा भोगी गईं यातनाएँ! मेरी-तुम्हारी तरह उन लोगों ने अपनी भूख-लोभ-प्रशस्ति-डर के ऊपर उस गुण को चुना जो लौट आना सिखाता था। उन्होंने पगडंडियाँ बनाईं, नाव बनाईं, पुल बनाए और दूरियाँ पाटते गए। जब बहुत दूर निकल आए तो रुके-ठहरे-सुस्ताए और वापस अपने लोगों के पास अपनी गुफाओं-मचानों पर लौट आए। इन रास्तों-पगडंडियों, नावों, पुलों, मचानों को तैयार करने में उनके तलवों-हथेलियों में जो लकीरें धँसीं; वह आज तक हमारे हथेलियों-तलवों में दिखती हैं, उनको कैसे अनदेखा करके बैठे हो!
अपनी हथेली में पहनी घड़ी को देखो, रौशनी कम हो रही है। वे सभी जिन्हें तुमने असभ्य जीवों की सूची में पंक्तिबद्ध किया है, वे सभी तो लौट आए। बाहर खिड़की से एक बार झाँको, देर हो गई है, खुद को भूलने से समय नहीं रुकेगा—लौटो!
गर्मियों में खौलते शहरों के बीच—जिसे अपना कहते हो—किश्तों में ख़रीदे या किराए के मकानों में घुसते ही गाँव के घरों के आँगनों पर पड़ी चारपाइयों को याद कर रहे हो—जहाँ कुछ सुकून पाते हो। लौट आओ वहाँ! जिन लोगों से प्रेम करते हो, जिनके पास लौट आना चाहते हो, जिनसे कभी सालों तक रोज़ मिलते थे और जहाँ जाकर हमेशा सोचते थे कि ऐसे हमेशा यहाँ आता रहूँगा वहाँ क्यों नहीं लौटते हो? लौट जाओ!
क्या सोच रहे हो याद करते हुए?
अब भी वापस लौट सकते हैं क्या? फिर उसके आगे क्या...
हाँ, क्यों नहीं लौट सकते। लोग बनाकर गए हैं पगडंडियाँ, नाव, पुल। ये ऊँची इमारतें, ये बड़े-बड़े झूठे इश्तिहार, ये नक़ली रौशनी में नहाई दुनिया—इन सभी ने हमारे लौटने के तमाम रास्तों को छिपा दिया है। तुम लौटे नहीं तो ये ऐसे ही चलता रहेगा। इन रास्तों को ज़रूरत है कि ये रास्ते दुबारा इस्तेमाल हों, इनमें हल्के हो चुके निशान फिर से गहरे हों जिससे हमारे बाद लौटने वालों के लिए रास्ता और साफ़ बने। उनके भीतर के डर निकल सकें। हम जो भूल गए हैं उन्हें याद आए कि हम इन्हीं की मदद से यहाँ तक पहुँच पाए हैं। वो जो लौटना भूल गए हैं वो दुबारा याद कर पाएँ कि पगडंडियों ने हमारे पैरों को नए रास्तों पर चलना सिखाया, नावों ने सिखाया जहाँ रास्ता नहीं वहाँ अपने हाथों से नए बनाओ और पुलों ने सिखाया कि कोई बात नहीं पंख नहीं है, अब हवा पर चलना सीख लो। क्यों क़ैद रहना है ऊँची इमारतों में, इश्तिहारों की मारी दुनिया जहाँ भूलना सिखाया जा रहा हो। उठो! सच बहुत देर हो गई है—लौटो!
आप सोचते हैं कि देर हो गई है, लेकिन नहीं। अगर आप चाहें तो लौट सकते हैं, लौटना हमेशा विकल्प होता है। पगडंडियाँ, नाव और पुल आसपास ही होते हैं। अब देखिए कैसे जुड़ती हैं सुंदर चीज़ें।
शायक आलोक ऊपर व्यक्त कविता मैंने ‘सदानीरा’ के फ़ेसबुक पेज पर सुनी-पढ़ी थी। साल था 2018 और महीना था अक्टूबर। साल 2018 अप्रैल में ही शूजित सरकार निर्देशित फ़िल्म ‘अक्टूबर’ सिनेमाघरों में रिलीज हुई थी। आपके साथ हमेशा के लिए रह जाने वाली यह फ़िल्म लिखी थी जूही चतुर्वेदी ने। 22 अप्रैल 2018 को मैं यह फ़िल्म देख लेता हूँ। आगे पढ़ें इससे पहले—इस वादे के साथ कि यहाँ लौटेंगे—आप भी ‘अक्टूबर’ देख लीजिए अगर अभी तक देखने मौक़ा नहीं मिला।
जबसे यह फ़िल्म देखी है, तब से रातरानी के फूलों के मानिंद इसकी महक ज़ेहन में हमेशा ताजा रहती है। एक सुंदर कविता कैसी दिखती होगी? अगर मन को कभी ऐसे सवाल ने बेचैन किया है, तब इस फ़िल्म को देखकर मन में यही जवाब कौंधेगा कि यह फ़िल्मी पर्दे पर तैयार हुई एक कविता है। फ़िल्म देखते हुए यही महसूस होगा कि हाथ में रेत है जो धीमे-धीमे फिसलकर निकल रही है, उसे रोका जाना चाहिए लेकिन कैसे रोकेंगे! लगेगा हम सब भी तो ऐसे ही द्वंद्वों में फँसे हैं।
एक कमजोर-सा धागा है पता नहीं कबतक हमारे बोझ को सहेगा! दरिया में उतर चुका सूरज कब तक सतह पर फैली ओस सूखाएगा? कब तक हम इससे बचेंगे कि हमारे हथेलियाँ उस ओस पर नहीं पड़े? हमारे पाँव हरी काई से दूर रहें! हम गिरने से बचे रहें! क्या कोई होगा जो हमारी कही आख़िरी बात को हमसे दुबारा सुनने के लिए बार-बार लौटेगा? क्या कोई बार-बार इस इंतिज़ार में लौटेगा कि आज हम उसके जवाब में पलके झपकाएँगे! दुख को प्रकृति ने कौन-सा वरदान दिया है कि उसमें इतना आकर्षण है? वो कौन-सी अदृश्य डोर है जिससे हम सब बँधे हैं? शिउली के फूल क्यों बार-बार खिलने के लिए लौट आते हैं? हम कब तक मन ही मन में वो सब बदलेंगे जो या तो कभी होगा नहीं या जो कभी हुआ ही नहीं?
कितने ही सवाल हैं जिनके जवाब जानने और पहले-पहल तो इन सवालों को समझने में ही इतने झटपटाहट रही कि यक़ीन मानिए साल 2018 के बाद से अब तक जब-जब अक्टूबर आया है, मैं आश्चर्यजनक ढंग से शांत, ख़ुद में खोया और चुप हो जाता हूँ। बहुत से ऐसे सवाल है जिनके जवाब मुझे अब भी नहीं मिलें और कुछ सवाल हमेशा ही ऐसे रहेंगे जिनके जवाब शायद हममें से किसी को नहीं मिले।
बहरहाल, अप्रैल में फ़िल्म देखने के बाद 12 अक्टूबर 2018 को ‘सदानीरा’ पर अपलोड हुई इस कविता तक मैं पहुँचा। एक बार सुना, दो बार सुना और 20 बार सुना... आगे गिनती नहीं की। एक पहेली में पहले से उलझा था, एक दूसरी पहेली ने मिलकर एक नई पहली तैयार कर दी। एक जवाब के लिए न जाने क्या-क्या नहीं किया। अविनाश मिश्र को फ़ोन किया कि पता नहीं क्यों जबसे सुना है इस कविता में फँस गया हूँ, एक जवाब की तलाश में हूँ... उनसे एक जवाब मिला कि इंतिज़ार करो, लौटते रहो कविता के पास... जवाब आएगा। कुछ समय बीता, एक रोज़ हॉस्टल में शराब के नशे में सुधांशु फ़िरदौस से मिलने पहुँचा। उनसे कहा एक कविता है जो मेरा और मैं जिसका पीछा नहीं छोड़ पा रहा हूँ, प्लीज़ इसके कवि से मेरी बात करवा दीजिए। शायक आलोक से बात हुई। मैंने नशे में पूछा कि क्या-क्यों-कैसे कविता घटी, सब कुछ बता दीजिए? जवाब नहीं मिल रहे, सवाल पर सवाल बढ़ रहे हैं। मुझे डाँटते हुए कुछ तो बोले जो मुझे याद नहीं। बस इतना याद है कि डाँट मिली, लेकिन जवाब नहीं।
मैं मानता हूँ—अच्छा हुआ कोई सीधा-सा जवाब नहीं मिला। इन छह सालों में तमाम अनुभवों को भोगते हुए, उनके बीच रहते हुए और शहर के जीवन—जहाँ मैं बचपन से रहा हूँ—से दूर पहाड़ों में रहने की इच्छा लिए हुए मैंने यही पाया कि कवि केदार और पगडंडियाँ गढ़ रहा लोकदेवता चाहता है—हम सब धीरे-धीरे वापस लौट आएँ। मुझे लगता रहा कि 'अक्टूबर' मेरे लिए लौटने का महीना है, लेकिन इस बार मैं मई में लौट रहा हूँ। आप जहाँ भी हों, नक़्शे के किसी भी बिंदु पर, महीना कोई हो और लौटने की इच्छा है—आस-पास पगडंडी, नाव, पुल या इसी सरीखा कोई हमेशा दिखेगा। उसको थामकर चल पड़ना—शुक्रिया के साथ—इससे पहले बहुत देर हो...
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