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किसे आवाज़ दूँ जो मुझे इस जाल से निकाले!

14 दिसंबर 2024

इच्छाएँ बेघर होती हैं, उन्हें जहाँ भी चार दीवार और एक छत का आसरा दिखता है, वो वहीं टिक जाना चाहती हैं। मनुष्य का मन इच्छाओं का पहला घर है, चारों तरफ़ भटकने के बाद पहली बार उसे मनुष्य ही अपने रहने योग्य लगा। वहाँ जब रहना शुरू किया तो इच्छा के भीतर भी एक इच्छा पैदा हुई, उस घर को अपने अनुरूप करने की। वह दिन-ब-दिन पाँव फैलाती गई और एक दिन उसका पाँव इतना फैल गया कि उसे एक देह कम लगने लगी, फिर उसने लगातार मंथरा की तरह पहली वाली देह के कान भरे कि अरे तुम तो एक दूसरी देह के बिना अपूर्ण हो, प्रेम के बिना तो बिल्कुल ही बेकार, बाहरी साज-सज्जा तो बहुत ही ज़रूरी है और फिर शुरू हुआ यह खेल जो आज हम आप देख रहे हैं।

एक देह ने एक दूसरे देह की खोजा की, उसके भीतर अपने भीतर की इच्छा को पाँव पसार सकने के लिए जगह बनाई, और उस देह के भीतर की इच्छा को अपने भीतर पाँव पसारने की जगह दी। अब एक देह में कई इच्छाओं ने घर बना लिया। इन इच्छाओं की आपस में पटती नहीं है। पटे भी कैसे! जैसे हर मनुष्य की एक नियति है, वैसे ही हर इच्छा की भी। इच्छाओं की उम्र अनिश्चित होती है, कुछ तो जन्म लेते ही मृत हो जाती हैं, कुछ देह के साथ-साथ चलती रहती हैं। 

मनुष्य के चेहरे पर जो अनगिनत खरोंचों के निशान दिखते हैं, वह इन्हीं इच्छाओं के दिए होते हैं। मनुष्य देह में रहने से इच्छाओं ने मनुष्य गुण ले लिया, अब वह संख्या में मनुष्यों से तेज़ बढ़ रही हैं। उनकी संख्या अब इतनी अधिक हो गई है कि मनुष्य की देह उन्हें जगह देने को कम पड़ रही हैं। घर बनाने की होड़ मनुष्यों से ज़्यादा इच्छाओं में मची है। इसका अंत कहाँ होगा पता नहीं! मगर होगा। बहुत वीभत्स होगा। 

आप सोच रहे होंगे मैं यह सब क्यूँ बता रहा हूँ? मैं आपको उस संरचना से अवगत करा रहा हूँ जिससे मैं जकड़ा हुआ हूँ। 

इच्छाओं से जन्मी कल्पनाओं ने और उन कल्पनाओं से जन्मे सुख की अनुभूति ने जीवन को दुख की पर्यायवाची की तरह कर दिया है। इच्छाओं ने इतना घेर लिया है कि साँस नहीं आ रही है। मैं इस इच्छा जाल से बाहर निकलना चाहता हूँ तो इच्छा की राइट हैंड कल्पना और कल्पना की राइट हैंड सुख, मोहनी की तरह मुझे मदमस्त किए जा रही है। आँखों से दूर दृष्टि की ताक़त गायब होती चली जा रही है, मुझसे जीवन कलश में भरा अमृत दूर होता चला जा रहा है। 

मैं क्या करूँ? किसे आवाज़ दूँ जो मुझे इस जाल से निकाले?  क्या यहाँ कोई है जिसने इच्छा को अपने भीतर जगह न दिया हो? कोई हो तो कृपया मुझे बचाए...

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12 दिसंबर 2024

किसी से कितनी बात करके कहा जा सकता है फ़लाँ व्यक्ति को मैं समझ गया हूँ? या कितनी बात करके यह तय किया जा सकता है कि फ़लाँ व्यक्ति के साथ जीवन के बचे दिन गुज़ारे जा सकते हैं? कोई ठीक-ठीक मानक हो तो मैं उस मानक में ख़ुद को मापना चाहता हूँ। मैं देखना चाहता हूँ कि मैं किसी के साथ रहने योग्य हूँ या नहीं। मुझमें वह योग्यता है कि नहीं जो किसी के साथ रहने के लिए चाहिए होती है। 

सवाल यह भी तो उठता है—जीवन के तमाम प्रश्न हैं, तमाम अनुभव; किस अनुभव और कितने प्रश्न से जाना जा सकता है ठीक-ठीक और पक्का हो जाया सकता है कि—यह व्यक्ति हमारे लिए सही है या नहीं। मैं एक ही मुद्दे पर किसी के लिए सही हूँ, किसी के लिए बिल्कुल ग़लत। मेरे स्वभाव से कुछ लोग अत्यंत ख़ुश हैं।

वो जब-जब मिलते हैं—कहते हैं : आप जैसा होना मुश्किल है, आपको रिश्तों की क़द्र आती है, आप भावनाओं को समझते हैं। कुछ मिलते हैं तो उनको मुझमें इस समाज में रहने योग्य व्यक्ति नहीं दिखता है, उनके अनुसार भावुकता और सुचिता के साथ रहने वालों का समय गया। कुछ लोग मुझे मध्यम मार्ग पर चलने की सलाह देते हैं। मैं किसी-किसी क्षण इतना दिशाभ्रमित हो जाता हूँ कि किसी ओर नहीं जा पाता वहीं खड़ा रह जाता हूँ। सोचता रहता हूँ अपने को, किसी पर आक्षेप करूँ कि तुम मुझे समझते नहीं, तो पलटकर वह भी कह सकता है तुम भी मुझे नहीं समझते।

समझना और समझा जाना बड़ा कठिन है। इस भागते युग में समझने भर की छुट्टी नहीं है किसी के पास। न बोलने और चुप रह जाने के पीछे का कारण पढ़ने भर का समय है। 

समझ बड़ी अजीबोग़रीब चीज़ है। हम जिसको भी कहते हैं कि हम उन्हें समझते हैं, हम सबसे कम उन्हें ही समझते हैं। हम सबसे ज़्यादा अंडरएस्टीमेट उसे ही करते हैं जो हमारे प्रति सबसे ज़्यादा सहज रहता है। किसी को समझने का कोई आसान तरीक़ा ही नहीं है, समझना बड़ा जटिल है। कोई बात जिसे आप बहुत सरल मानते हैं—उसे छेड़ दीजिए और उस व्यक्ति के जवाब बस सुनते रहिए, या कोई बात जिसे आप बेहद फूहड़ या क्लिष्ट समझते हैं—उस पर उसके विचार लीजिए दोनों का मिलान कीजिए, सब बहुत उल्टा मिलेगा। 

सब किसी-न-किसी एजेंडे के तहत चल रहे हैं। जहाँ बात उनके एजेंडे के तहत फिट बैठती है, वह बात समझ आ जाती है और नहीं आती। नहीं आने में उनकी कोई ग़लती भी नहीं है, जिस समाज में सब कुछ पैसे से मिल जाता हो वहाँ भावुक हृदय को लेकर कोई क्यूँ चले। 

भावनाओं का भार बड़ा अधिक होता है, सबके वश में नहीं उसे उठा सके। किसी के लिए जगहें, खाना-पीना, कपड़े भावना हैं; किसी के लिए एक सामान्य वस्तुएँ। उन्हें यह कभी समझ नहीं आएगा कि मन होते हुए भी किसी के लिए रुके रहना, सामने होते हुए भी कुछ न खाना, अपने से पहले अपने प्रिय को सोचना मूर्खतापूर्ण भावुकता नहीं है, प्रेम है—जो नसीब नहीं हर किसी को। मगर यह इस ज़माने के लिए तो मूर्खता ही है। 

बहुतों के लिए तो जल, जंगल, ज़मीन के लिए बोलना भी मूर्खता है, वो चीज़ों का और भावनाओं का बस उपभोग करना चाहते हैं। उनके लिए ख़र्च होना खड़े होना नहीं। नरेश सक्सेना की एक कविता है मुझे वह कविता पंक्ति ठीक-ठीक तो नहीं याद लेकिन उसका भाव याद है—उसमें मछ्ली और पानी के प्रेम की बात है। मछली को लगता है जैसे हम पानी के लिए तड़पते हैं, पानी भी हमारे लिए तड़पता होगा, लेकिन जब जाल (संकट) आता है, हमें साथ की ज़रूरत होती है तो पानी हमें छोड़कर चला जाता है। 

जीवन दो देहों से एक मुश्त में लिया गया लोन है। समझ ईएमआई की तरह है, वह किस्तों में आता है। अनुभव उन्हीं किस्तों के साथ जुड़ा हुआ ब्याज़ है जो जुड़ता रहता है मगर दिखता नहीं है। दिखता तब है जब इकट्ठा होता है, इकट्ठा भी तब होता है जब जीवन का लोन समाप्ति की तरफ़ होता है। तब हमारे पास पछतावे के सिवा कोई विकल्प नहीं होता, और तब समझ आता है कि अरे हमने तो इतना ज़्यादा दे दिया। लिया तो आधा ही था। सहूलत के लिए लिया गया सब कुछ बाद में दोगुना देना पड़ता है। यह तत्काल समझ नहीं आता, लेकिन जब आता है, तब तत्काल—बीता हुआ काल बन जाता है। 

यह दुनिया और इस दुनिया के लोग एक दिन बिलख कर ख़त्म होंगे, उनके पास सब कुछ होगा भावना नहीं होगी। उन्हें सुगंध महसूस नहीं होगी, लोग आज से दोगुने होंगे लेकिन लोगों को प्रेम के मायने याद नहीं रहेंगे, उनका जीवन संसाधनों से भरा होगा लेकिन सब कुछ बेरस होगा। तब समझ आएगा, समझना और समझा जाना कितना ज़रूरी है। प्रेम करते हृदय की कद्र कितनी ज़रूरी है। 

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7 दिसंबर 2024

शाम देर तक एक गली के मुहाने पर बैठा रहा। यही जगह है जहाँ मैं बिना ऊबे घंटों बैठ सकता हूँ। यहाँ की सड़क किनारे मैंने अलसुबह दुकान लगने से पहले और रात दुकानों और लोगों के सो जाने तक प्रतीक्षा किया है। यहाँ जब-जब आता हूँ, भूल जाता हूँ कि मेरी स्मृति से परे भी एक दुनिया है। जीवन के सुंदर होने की जो एक कल्पना जीने का कारण बनी हुई है, उसकी एक बारीक़-सी किरण यहीं चारों तरफ़ खड़े ऊँचे मकानों से छनकर आती है। यहीं वह कमरा है जिसकी हर दीवार से मुझे प्रेम है। 

ईश्वर ने सामर्थ्य दिया तो मैं ज़िंदगी भर के लिए उस कमरे को किराए पर ले लूँगा, और जब-जब जीवन से जीवन कम होने लगेगा, जाऊँगा वहाँ उसकी दीवार से पीठ टिकाकर बैठा रहूँगा। उसकी फ़र्श पर निर्वस्त्र हो लेट जाऊँगा और उस कोमल पाँव को अपनी देह पर महसूस करूँगा जो यहाँ चला करते थे। उन आवाज़ों की प्रतिध्वनि सुनूँगा जो कभी मुझसे कहे नहीं गए।

शहरीकरण में स्मृति से जुड़ी चीज़ें टूटती बनती रहती हैं। स्मृति तो कभी टूटती ही नहीं, वह एक बार जिस रूप-रंग जिस साँचे में गढ़ दी जाती है, फिर वैसी ही बनी रहती है। स्मृति वह इतिहास नहीं जो किसी के संवेदना से बदल जाए। स्मृति एकपक्षीय भी नहीं होती, स्मृति के सिक्के में हेड और टेल नहीं होता, स्मृति के सिक्के को उछाला तो जा सकता है लेकिन उससे चित्त और पट्ट आने की उम्मीद नहीं की जा सकती। स्मृति का सिक्का सीधा खड़ा रहता है, वह दोनों तरफ़ के लोगों को दोनों तरफ़ देखने की आज़ादी देता है। 

वह भारत का इतिहास नहीं, जिसे मनमाने ढंग से 47, 57, 75 , 92 और 98 में लिखा जा सके। यह अड़िग है, इसे न मंदिर से गिराकर गुम्बद किया जा सकता है न गुम्बद को गिरा कर समतल किया जा सकता है या मंदिरों और गुम्बदों से पहले की भूमि पर स्थिर है, इसे मिटाने वाले मिट जाते हैं यह नहीं मिटता।

सच कहता है कवि ‘स्मृति का अपना अलग देश है’। यहाँ अलग-अलग वादों के चश्मे पहनकर इतिहास नहीं बदला जा सकता है। यहाँ कोई ऐसा पक्ष नहीं जो एक दूसरे पक्ष को क्रूर साबित कर अपने घड़ियाली आसूँ को मोती के भाव बेंच लेगा। यहाँ न कोई ऐसा है जो भूत में किए कब्ज़े को अपना कहकर कोर्ट में दबाए जाने का मुकदमा करे। यहाँ सब स्पष्ट है। यहाँ सब अपना अपना सच जानते हैं। 

बड़ी अजीब चीज़ है स्मृति भी, देखिए मैं दो साल पहले बनी स्मृति के मोह में बोलता बड़बड़ाता। 2000 साल पहले की सच्ची स्मृति तक चला गया। मैंने तो पहले ही कहा था स्मृति के सिक्के में हेड-टेल नहीं होता, हेड-टेल तो आपने हमने बनाया, यह सिक्का दोनों तरफ़ से सादा है और यह न दाएँ गिरता है न बाएँ यह सीधा खड़ा रहता है।

मनुष्यों ने देर से रीढ़ पाई और जल्दी से खो दिया। स्मृति की रीढ़ मनुष्यों के यह जानने की रीढ़ भी कुछ होती है कि इससे पहले की है, उसे झुकना रेंगना या मचलना नहीं आता। 

मैं फिर कभी इस गली आउँगा तो भले ही यहाँ आस-पास के मकान बदल जाएँ, खुली नालियाँ बंद कर दी जाएँ, बेतरतीब लगती सब्ज़ी की दुकानों को तरतीब से लगा दिया जाए, सीमेंट के ईंटो से बनी सड़क गिट्टी और तारकोल की हो जाए, लेकिन वह स्मृति नहीं बदलेगी; जो 2 साल पहले बनी। स्मृति पर कोई साज-सज्जा का रंग नहीं चढ़ता। 

अलविदा स्मृति गली, फिर लौटूँगा, लौटने की तरह... तुम्हें तुम्हारे सच्चे रूप में याद करते हुए।

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