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जावेद आलम ख़ान की ‘स्याह वक़्त की इबारतें’ और अन्य कविताएँ पढ़ते हुए…

कविता की एक किताब में—एक ज़ख़्मी देश, एक आहत मन! एक कवि—जिसका नाम विमर्श में खो गया, जिसके चेहरे की ओर भी सबने नहीं देखा, लेकिन उसकी आवाज़ कुछ दिलों में, कुछ कविता की बातों के रास्ते पर, साहित्य के किनारे पर गूँजती है। उसकी कविता सिर्फ़ लफ़्ज़ों का बेबाक इज़हार नहीं, बल्कि एक ऐसे समाज की छटपटाती रूह की आवाज़ है जो अपनी आवाज़ को डूबते हुए देख रहा है, जहाँ अपनी बात रखने की हर कोशिश एक मुश्किल के जैसी है और हर एक अवसर एक असफल दाँव का प्रदर्शन है।

कवि के अधिकांश शब्दार्थ, एक ऐसी पीड़ा की तस्वीर हैं, जो सिर्फ़ लफ़्ज़ों तक सिमट कर नहीं रह सकती। हर लफ़्ज़, हर तुक, उसके अपने समय के एक दस्तावेज़ के रूप में दर्ज हो रहा है, एक ऐसे विभाजित राष्ट्र का इज़हार जो अपने असली रंगों को नहीं मालूम कहाँ खो चुका है। उसका लिखना सिर्फ़ एक तपकन भरे ज़ख्म की भाव कथा नहीं है, बल्कि यह उस दर्द का इज़हार है जो उसके लोगों की ज़िंदगी के गुम्बद-ए-बे-दर की नज़्र हो चुका है—जो उन्हें कभी अपनी नज़रों को दूर ऊपर तक नहीं जाने देना चाहता, और उनका सपना सिर्फ़ एक स्टेशन की नींद बन गया है।

उसकी कविता में जो पीड़ा है, उसकी अभिव्यक्ति सिर्फ़ उस मुल्क की तस्वीर तक सिमटी हुई नहीं, जहाँ हर दास्तान अपने आप में एक ख़ौफ़ की सूरत में है, एक अकथनीय समझौते के रूप में। वो मुल्क जो पहले अपने रंगों की ख़ुशबूओं से महकता था, आज अपने रंगों को पहचानने के भी क़ाबिल नहीं रह गया है।

“राष्ट्रवाद देश की किताब में वह पवित्र शब्द है
जिसका मौन वाचन देश की जनता करती है
और सस्वर पाठ हिंसक गतिविधियों में लिप्त ठेकेदार”

उसने अपनी कविता के स्वर में (माध्यम से) सवाल उठाया, जिसमें उसका हर लफ़्ज़ नफ़रत के सियाह रंग पर एक धवल वर्णी बिंदु बन गया है।

कवि का कोई नज़रिया नहीं है, हाँ उसका अपना एक समाज ज़रूर है (हर कवि का एक अपना समाज होता है), अपनी एक दुनिया है, जहाँ ‘प्रेम, एकता, समरसता, सहृदयता’ की बात भी सिर्फ़ (कविता में तो नहीं, किंतु ख़बरों में) एक बहस-मुबाहसे की बात है, और ‘साथ और हाथ’ का इल्ज़ाम भी एक और दर्द की तरह है। उसकी कविता में वह एक ही रंग-ओ-रौशनी में नहाई हुई दुनिया दिखाई जा रही है, जहाँ आदमी अपनी ज़िंदगी के हर पहलू में अपनी पहचान के चक्कर में, अपनी अस्ल ज़िंदगी को खो बैठा है। इस मुल्क में, जब इंसान अपनी सोच को भी, मारे डर के, अपनी भाषा की तरह छुपाता है, तब कवि ने अपनी कविता में सारे रंगों को एक रंग में बदलते हुए पाठकों के सामने रख दिया है।

उसने अपनी कविताओं में किसी भी क़िस्म के ग़ज़ब का इज़हार नहीं किया, वह रंगों से भी, बल्कि इंसान की कशमकश और आज़माइश की बात करता है, जिसे कुछ नासमझों ने कभी समझने नहीं दिया। “क्या हमने अपनी पहचान को एक रंग में बदल दिया है?” वह सवाल है जो कवि अपने लफ़्ज़ों में डाल रहा है। हर अभिव्यक्ति एक नई अब्सट्रैक्ट पेंटिंग है, जहाँ वो छुपी हुई सोच के लोच को समझने की कोशिश कर रहा है, कम-से-कम व्यक्ति कवि होते हुए इतना तो कर ही सकता है।

उसकी कविता में पैग़ाम है, और एहतिराम भी—एक ऐसे समाज, विचार और दर्द का, जिसका इज़हार अपने शरीर की पीड़ा की कविता तक नहीं रुकता। “इस वक़्त क्या हम अपने ज़ख्मों की पहचान कर पा रहे हैं?” हर कविता में वह मुखर जैसे उन रंगों का इज़हार कर रहा है, जो सिर्फ़ अपने अंदर ही नहीं, बल्कि सबके बीच की नफ़रत के कालेपन को समझने की कोशिश तो है ही।

कवि ने हर संकट को अपनी कविता के ज़रिए बेशक एक शब्द, एक भाव, एक आह बनाकर लोगों के सामने रख दिया। हर एक मंजिल में वही मुसीबत है, लेकिन वह भी एक नई आस, एक नई उम्मीद से भरा हुआ ‘शब्दबाँकुरा’ है। और जब वह बहुत आशा में नहीं होता, तब भी उसकी कविता, अँधेरों में एक नई रौशनी को दरयाफ़्त करने की ललक है। “क्या हम अपने आपको अपने रंग से पहचान सकते हैं?” एक ऐसा सवाल, जो कवि ने अपनी पूरी निष्ठा से कविता में रख दिया।

उसकी कविता के हर शब्द में एक आईना है, जहाँ आदमी अपनी ज़िंदगी के हर हिस्से में अपनी पहचान को खोजने की कोशिश कर रहा है। कुछ कविताओं में वह किसी एक शरीर की दुर्दशा का इज़हार नहीं करता, बल्कि दुष्टों के अंदर छुपी नफ़रत, और एक छुपी हुई तक़सीम का इज़हार कर रहा है। वह चाहता है कि लोग अपने रंगों को समझें, अपने ज़ख़्मों को देखकर अपने रंग की पहचान करें, ताकि वह अपने देश की असली तस्वीर को पहचान सकें।

कवि के लफ़्ज़ों में एक तिलमिलाहट भी है, जो दुनिया की बेबाक नफ़रत और तय कर दिए गए बेबस रंगों के बीच का सफ़र है। “इस वक़्त (जिसे इतिहास के समुद्र से मथ कर लाया जा रहा है) क्या हम अपनी तक़सीम को टाल नहीं सकते हैं?” एक बड़ा सवाल, जिसमें कवि ने हर इंसान से अपने रंग और पहचान को समझने की दरख़्वास्त की। देखिए ना! कविता एक दरख़्वास्त के रूप में एक दस्तावेज़ है, जिस पर चलाए गए क़लम का रंग अपने अंदर एक राज़ छुपा रहा है, और वह कवि हर रंग को समझना चाहता है—नफ़रत, दोस्ती, इंसानियत—और व्यथित समय में सभी रंगों को इकट्ठा समझना!!!

और अभी तक उसकी कविता विविध रंगों में बह रही है, उसने एक सच का इज़हार कर दिया है! एक व्यक्ति होने का सच! समष्टि और व्यष्टि के अर्थ को समझते हुए, विनष्टि के ख़ौफ़ की आहट पर चौंक कर देखने का सच! और इसके बावुजूद भी उसका हर लफ़्ज़ अपने अर्थ और रंग में ज़िंदा है, एक बेख़ौफ़ कविता जो सच का बयान और तलाश है।

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