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भूमिकाओं में आस्था घट रही है

पुस्तक की भूमिका

पुस्तक के साथ भूमिका का प्रकाशन आम चलन है। यह भूमिका किसी ऐसे व्यक्ति से लिखाई जाती है, जो उस विषय का मान्य विद्वान हो, उसकी बात का वजन हो और जिसके न्याय-विवेक पर भी लोगों का विश्वास हो। भूमिका के अनेक प्रयोजन होते हैं—वह पाठक को आगे पढ़ने और विषय-वस्तु को ग्रहण करने के लिए उसकी मानसिक तैयारी करती है; पुस्तक की विशेषताओं को दृष्टि-केंद्र में लाती है, उसका मूल्य निर्धारित भी करती है। वह पाठक को दिशा-संकेत करने के लिए होती है।

भूमिका का महत्व इसीलिए बढ़ जाता है। भूमिका-लेखक पर पाठक भरोसा करता है। पुस्तक पर किसकी भूमिका है और उसमें क्या कहा गया है, इससे पाठक उसे ख़रीदने-नहीं ख़रीदने, पढ़ने-नहीं पढ़ने का निर्णय करता है; उसमें उसे क्या मिलेगा, इसका भी आभास उसे होता है। बहुत अंश में न होता हो, पर होना स्वाभाविक है। जाग्रत, सुसंस्कृत पाठक भूमिका को बड़ा महत्व देता है।

हिंदी में इस ज़िम्मेदारी को न भूमिका-लेखक समझते हैं, न लेखक। हिंदी में भूमिका एक सिफ़ारिश होती है, एक प्रकार का विज्ञापन होता है, क्रय-शील माल का जैसे विज्ञापन किया जाता है, बढ़ा-चढ़ाकर प्रशंसा की जाती है, कल्पित गुणों का आरोप किया जाया है। लेखक किसी बड़े आदमी के पास जाता है; ऐसे के पास जाता है, जिससे उसके संबंध अच्छे हों और उससे भूमिका लिखने को कहता है। भूमिका-लेखक अक्सर इसे अपना सौभाग्य मानता है और ख़ूब बढ़ा-चढ़ाकर तारीफ़ कर देता है। आप एक शीर्षस्थ कवि और एक तुकबंद की भूमिकाओं में समानता पाएँगे—एक व्यक्ति हिमालय-सी ऊँची और टीले-सी नीची पुस्तकों की एक-सी भूमिका लिखता है।

भूमिका के कुछ बने-बनाए 'रेडिमेड' ढाँचे होते हैं, उन्हें जगह-जगह फ़िट कर दिया जाता है।

जैसे किसी नौकरी के लिए किसी बड़े आदमी के पास टेस्टीमोनियल (प्रमाण-पत्र) लेने जाते हैं, और वह लिख देता है—‘He bears good moral character.’ (उसका नैतिक आचरण अच्छा है), वैसे ही भूमिका-लेखक रस्म-अदायगी के लिए कुछ ‘यों ही’ वाक्य लिख देते हैं। टेस्टीमोनियल देने वाला माँगने वाले से ही कभी कह देता है कि तुम्हीं लिख लाओ, दस्तख़त मैं कर दूँगा। ऐसे ही कुछ भूमिकाएँ भी टाली जाती हैं। इनसे कृति के बारे में आपको कुछ ज्ञान नहीं हो सकता। आप अगर पुस्तकों की भूमिका देखें, तो आपको यह आभास होगा कि हर लेखक सर्वश्रेष्ठ है, हर कृति उत्तम और युगांतरकारिणी है। सफ़ेद झूठ और काले झूठ के साथ यह भूमिका-झूठ भी होता है।

कोई भी आदमी किसी भी विषय की भूमिका लिख देता है। मनोवैज्ञानिक से आप रसायन-शास्त्र की भूमिका लिखवा सकते हैं। वह मना नहीं करेगा। जब से नेताओं ने भूमिका लिखने का काम ले लिया है, तबसे भूमिकाओं की और दुर्दशा हो गई हैं। राजनायक हर विषय का प्रकांड पंडित होता है; यह अपने यहाँ मान लिया गया है। इसके सिवा एक लाभ यह भी है कि उससे भूमिका लिखवाने से सरकारें पुस्तकें ख़रीद लेती हैं। इस प्रकार की भूमिकाएँ बड़ी हास्यास्पद होती हैं।

हमारे यहाँ भूमिका-लेखन ज़्यादा सम्मान का काम समझा जाता है—कुछ लोगों का ख़याल है कि वे बिना कुछ सृजन किए, केवल भूमिका-लेखन के द्वारा अपनी साहित्यिक प्रतिष्ठा क़ायम रख सकेंगे। भूमिका-लेखन के लिए लालायित रहने वाले भी कितने ही बड़े लोग हैं। हमने तो ऐसा भी सुना है कि कोई ऐसे भी हैं जो इसे धंधे के रूप में करते हैं। छोटे लेखक से कहा कि मैं तुम्हारी भूमिका लिखूँगा, तो तुम्हारी प्रतिष्ठा बढ़ेगी, इसलिए पैसा दो। और बड़े से कहेंगे कि अपनी पुस्तक की भूमिका तुमसे लिखवाऊँगा, तो तुम्हारी प्रतिष्ठा बढ़ेगी, इसलिए मुझे पैसा दो।

एक बार हमसे एक मित्र ने कहा—तुमने ‘वेल ऑफ़ लोनलीनेस पढ़ा? ज़रूर पढ़ लेना; हेवलाक एलिस की भूमिका है।’ उस दिन लायब्रेरी में शेक्सपियर पर पुस्तकें देखते-देखते नज़र पड़ी ‘डेवलपमेंट ऑफ़ शेक्सपियर इमेजरी’—एक जर्मन प्रोफ़ेसर की; प्रथम पृष्ठ पर ही छपा था—‘Foreward by Dover Wilson’ कहा—अच्छी होगी, डोवर विल्सन की भूमिका है।

क्या हिंदी की पुस्तकों को इस विश्वास के साथ हम ग्रहण कर सकते हैं? क्या हम किसी पुस्तक पर हिंदी के शीर्षस्थ आलोचक की भूमिका देखकर उसे उठा सकते हैं? और क्या हम धोखा नहीं खावेंगे? सौ में से नब्बे मामलों में हमें धोखा होगा, क्योंकि हमारा भूमिका-लेखक ज़िम्मेदारी नहीं समझता। वह यह भी नहीं जानता कि उसकी भूमिका को कोई ‘सीरियसली’ लेगा।

भूमिका-लेखन के लिए हर समय हर विद्वान तैयार रहता है। अगर वह तारीफ़ न करे, तो उससे लिखावे कौन? भूमिका लिखने को बड़ा भारी सम्मान जो वह मानता है! याद आता है कि बर्नाड शाँ ने एक बार सी.ई.एम.जोड़ सरीख़े आदमी की पुस्तक की भूमिका लिखने से इंकार कर दिया था, हालाँकि इसके कारण अद्भुत थे; जैसे यही कि ‘फिर तुम्हारी पुस्तक को कोई नहीं पढ़ेगा, मेरी भूमिका ही सब पढ़ेंगे।’ हिंदी में महालेखक भी, पेम्फ़लेट तक की भूमिका लिख देगा।

आजकल एक प्रवृत्ति और देखने में आ रही है। भूमिका-लेखक पुस्तक की भूमिका लिखते-लिखते दूसरी साहित्य-धाराओं के संबंध में ग़ैरज़िम्मेदारी से मन का क्रोध निकालता है। भूमिका साहित्य-धाराओं के खंडन-मंडन के लिए उपयुक्त स्थल नहीं हैं। उसमें प्रस्तुत पुस्तक और विशेष साहित्य-धारा की विशेषताओं का उल्लेख किया जा सकता है, उसकी प्रशंसा भी की जा सकती है, पर अप्रासंगिक रूप से दूसरी विधाओं और धाराओं को निंदित करने से भूमिका की महत्ता ही कम होती है।

इधर शायद इन्हीं सब कारणों से भूमिका लिखाने की ओर से लोग उदासीन होते जाते हैं। वे समझते हैं कि भूमिका से पुस्तक का कोई मूल्य बढ़ने वाला नहीं है। भूमिका-लेखक का नाम पढ़कर कोई भी पुस्तक को नहीं उठाएगा।

हिंदी के भूमिका-लेखकों को अपनी ज़िम्मेदारी समझनी चाहिए। फ़ार्म की खाना-पूरी करके ‘केरेक्टर सर्टिफ़िकेट’ प्रदान नहीं करना चाहिए। ‘धर्म-संकट’ और ‘मुँहदेखी’ के झमेले में सत्य की ओर से इतने उदासीन नहीं होना चाहिए। भूमिकाओं में आस्था घट रही है। कुछ काल में भूमिका के 4-6 पृष्ठ व्यर्थ के ख़र्च के सिवा और कुछ नहीं होने वाले है।

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