Font by Mehr Nastaliq Web

आजकल लोग पैदा नहीं होते अवतरित होते हैं

सोचता हूँ कुछ लिखूँ पर लिखने के उत्साह पर अवसाद भारी है।

~

भाषा का बुनियादी ताना-बाना शब्दों से कहीं अधिक प्रयोगों से निर्मित होता है। आजकल लोग पैदा नहीं होते अवतरित होते हैं। वाक्यों में दो क्रिया पदों का इस्तेमाल एक राजनीतिक युक्ति है। आप जब इसे पढ़ रहे हैं तो आपके द्वारा पढ़ लिए जाने का कार्य संपन्न हो रहा है। 

~

ढलती हुई शाम, पहाड़ की चोटी, विंटर लाइन, गर्म चाय, एक कश सिगरेट और तुम्हारा साथ उदासी के रंग को और चटख करता है।

~

आवारगी और नैतिकता में कुत्ते-बिल्ली का बैर है, लेकिन पहाड़ आने के बाद पता चलता है कि बिल्लियाँ भी दोस्त हो सकती हैं। पहाड़ आने से पहले कुत्ते और बिल्लियों के साथ की असहजता कब सहजता में बदल जाती है, पता नहीं चलता। 

बिल्लियाँ अकविता के घर से कब की बेदख़ल हो चुकी हैं। कुत्ते अब भी वहीं हैं। मुहावरे बदल दिए जाने चाहिए। राजनीति जो मुहावरा बनाती है : नज़ीर बनाती है। मुझे डर इस बात का नहीं है कि नए मुहावरे बन रहे हैं। मुझे डर है : यह नज़ीर न बन जाए। 

~

छूटने से नहीं छूटता। खुरचने से बदरंग पड़ी स्मृतियाँ अचेतन में धँसती हैं। स्मृतियाँ स्याह नहीं हैं। अवचेतन सजग है और चेतना मूर्छित। 

~

कविता पढ़कर भी पढ़ने का सुख नहीं।

~

गद्य-सा जीवन कविता-सी मृत्यु।

~

ठहरी हुई झील में मछली का उछाल : झील का अधूरापन टूटा। नाव अतिक्रमण है—मानुष दबदबे का। 

~

अभी आकृतियाँ बेढब, सभी क्रियाएँ अनुशासनहीन। 

~

जीवन रूटीन-सा बन गया है। प्रतिदिन एक जैसा दिन। 
ऊब! भाग कर जाना है और फिर वही रूटीन। भागना भी रूटीन है।

~

जो बहुत बोलते हैं, कम बोलते हैं। चुप्पी बहुत शोर करती है। कान के परदे फटने लगते हैं। बहुत ज़ोर से बोला गया सच—झूठ है। मैं भाग रहा हूँ अपने आपसे। 

~

मैं अपने लिए मृत्युलेख लिखता हूँ। मिटा देता हूँ। कोई भी बात अंतिम नहीं, ईमानदार नहीं। मेरे मरने पर झूठ लिखा जाए। 

~

मैं अपने मरने की अफ़वाह उड़ाना चाहता हूँ। 

~

अपनी सदाशयता की चादर में मैंने हिंसक चाक़ू छिपा रखे हैं। सावधान! मैं हत्यारा हूँ। मैंने किसे मारा : ख़ुद को। क्रूरता अवसर पाते ही मेरा ही गला घोंटती है।

~

हम कब मिलेंगे? शायद हम कभी नहीं मिलें।
अवधारणाएँ कब टूटेंगी? यथार्थ का आईना चटकेगा तब।
शीतयुद्ध का अंत : टूटकर भिन्न होना। यानी अब भी कुछ बचा है? 
नफ़रत... और प्यार? वह कब था। सिर्फ़ समझौते थे। तुमने प्यार समझा। ग़लती का मूल यही है। अविच्छिन्न : अपने हरेक टुकड़े को जोड़ना और फिर तोड़ना। यही क्रम है—जीवन।

~

साज़िश : सामने वाले का पैग बड़ा बनाना।
प्रेम : बने रहना किसी भी क़ीमत पर।
सेक्स : देह की भूख अथवा साहचर्य का प्रत्यक्षीकरण।
नैतिकता : मुँह में कालिख पोत बेशर्मी से चिल्लाना।
पागलपन : जीवन-मूल्य। 

~

उत्तर समय में सब कुछ फ़्री। क़ीमत की बोली लगती है। सबसे ऊँची क़ीमत फ़्री। सत्ता की क़ीमत : धनपशु की डकार। 

फ़्री एक ऐसी अवधारणा है कि इस काटे का कोई मंतर नहीं है। ऊपर से लोन कोढ़ में खाज का इससे सुंदर उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ।

~

कुलपटाइटिस : एक बनारसी बीमारी। प्रोफ़ेसरों को लगती है। 

लक्षण : निहुरते हुए चिंगुर जाना। कभी-कभी यह किसी को भी लग सकती है, बस उसे विशिष्टटाइटीस कहेंगे। 

~

महामारी : आत्म।
महाकोप : आत्म-एकांत।
उपचार : प्रतिदिन कम से कम दो तस्वीरों के साथ फ़ेसबुक पोस्ट। 

~

अन्यमनस्क : जीवन आजकल।
बाज़ार : बिका हुआ। 
ख़रीददार : जो सब कुछ ख़रीदे। 
ज़रूरतमंद : जनता। 
कौड़ी के दाम का अनाज : किसान। 
महँगाई : बिचौलिया। 
आम आदमी : पानी पीना है प्रतिदिन, तो प्रतिदिन कुआँ खोदना है।

~

बकूँ : जुनून में। नासमझ : मैं। समझदार : सिर्फ़ तुम। 

~

पानी-सा : बह जाओ।
पत्थर-सा : ठहर जाओ।
रेत-सा : फिसल जाओ।
मानुष-सा : गिर जाओ।

~

काट दो। काटना विकास है। लहूलुहान कौन?
साँसें टूट रही हैं : भविष्य।

~
 
कुछ बीत रहा है : कुछ नया आएगा, नया भी पुराना होगा। 

~
 
स्मृति : बिजली चमकती है अचानक। फिर उल्कापात। फिर सन्निपात। अचकचा कर बड़बड़ाते हुए चुप।

~

वह चेहरा जिसे रोज़ देखना है। वह असुंदर है। वह जो सुंदर था, गुज़र गया। 

~

फ़रेब है। एक दिन यह भी टूट जाएगा। शायद तब यह दुनिया सुंदर लगे। शायद न लगे। सुंदर का स्वप्न खो गया। अमरदेसवा, बेगमपुरा पर बम बरस रहा है। वहाँ लाशों के जलने का चिरायँध फैला हुआ है। अयोध्या उजियार हुआ है। 

~

जिसे पकड़ता हूँ : समय है। छूट जाता है। नाख़ून से पकड़ना और फिर उसका भी फिसल जाना। कोई जतन काम नहीं आता। वह आते-आते आएगा। जाना अचानक। एकाएक...

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

14 अप्रैल 2025

इलाहाबाद तुम बहुत याद आते हो!

14 अप्रैल 2025

इलाहाबाद तुम बहुत याद आते हो!

“आप प्रयागराज में रहते हैं?” “नहीं, इलाहाबाद में।” प्रयागराज कहते ही मेरी ज़बान लड़खड़ा जाती है, अगर मैं बोलने की कोशिश भी करता हूँ तो दिल रोकने लगता है कि ऐसा क्यों कर रहा है तू भाई! ऐसा नहीं

08 अप्रैल 2025

कथ्य-शिल्प : दो बिछड़े भाइयों की दास्तान

08 अप्रैल 2025

कथ्य-शिल्प : दो बिछड़े भाइयों की दास्तान

शिल्प और कथ्य जुड़वाँ भाई थे! शिल्प और कथ्य के माता-पिता कोरोना के क्रूर काल के ग्रास बन चुके थे। दोनों भाई बहुत प्रेम से रहते थे। एक झाड़ू लगाता था एक पोंछा। एक दाल बनाता था तो दूसरा रोटी। इसी तर

16 अप्रैल 2025

कहानी : चोट

16 अप्रैल 2025

कहानी : चोट

बुधवार की बात है, अनिरुद्ध जाँच समिति के समक्ष उपस्थित होने का इंतज़ार कर रहा था। चौथी मंजिल पर जहाँ वह बैठा था, उसके ठीक सामने पारदर्शी शीशे की दीवार थी। दफ़्तर की यह दीवार इतनी साफ़-शफ़्फ़ाक थी कि

27 अप्रैल 2025

रविवासरीय : 3.0 : इन पंक्तियों के लेखक का ‘मैं’

27 अप्रैल 2025

रविवासरीय : 3.0 : इन पंक्तियों के लेखक का ‘मैं’

• विषयक—‘‘इसमें बहुत कुछ समा सकता है।’’ इस सिलसिले की शुरुआत इस पतित-विपथित वाक्य से हुई। इसके बाद सब कुछ वाहवाही और तबाही की तरफ़ ले जाने वाला था। • एक बिंदु भर समझे गए विवेक को और बिंदु दिए गए

12 अप्रैल 2025

भारतीय विज्ञान संस्थान : एक यात्रा, एक दृष्टि

12 अप्रैल 2025

भारतीय विज्ञान संस्थान : एक यात्रा, एक दृष्टि

दिल्ली की भाग-दौड़ भरी ज़िंदगी के बीच देश-काल परिवर्तन की तीव्र इच्छा मुझे बेंगलुरु की ओर खींच लाई। राजधानी की ठंडी सुबह में, जब मैंने इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से यात्रा शुरू की, तब मन क

बेला लेटेस्ट