चतुर्भुजदास के दोहे
सकल तू बल-छल छाँड़ि, मुग्ध सेवै मुरलीधर।
मिटहिं सहा भव-द्वंद फंद, कटि रटि राधावर॥
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वत्सलता अरु अभय सदा, आरत-अघ-सोखन।
दीनबंधु सुखसिंधु सकल, सुख दै दुख-मोचन॥
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अखिल लोक के जीव हैं, जु तिन को जीवन जल।
सकल सिद्धि अरु रिद्धि जानि, जीवन जु भक्ति-फल॥
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प्रगट वंदन रसना जु प्रगट, अरु प्रगट नाम रढ़ि।
जीभ निसेनी मुक्ति तिहि बल, आरोहि मृढ़ चढ़ि॥
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और धर्म अरु कर्म करत, भव-भटक न मिटिहै।
जुगम-महाशृंखला जु, हरि-भजनन कटिहै॥
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‘चत्रभुज' मुरलीधर-कृपा परै पार, हरि-भजन-बल।
छीपा, चमार, ताँती, तुरक, जगमगात जाने सकल॥
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ऊँच नीच पद चहत ताहि, कामिक कर्म करिहै।
कबहुँ होइ सुरराज कबहुँ, तिर्यक-तनु धरिहै॥
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere