सौ के साही : कार्यक्रम का यू-ट्यूब देखा हाल
पंकज प्रखर 22 मई 2024
वरिष्ठता कभी-कभी बहुत ऊब और थकान महसूस कराती है।
कुछ ऐसा ही 1 मई 2024 को दिल्ली विश्वविद्यालय के शहीद भगत सिंह महाविद्यालय हिंदी-विभाग द्वारा आयोजित आग़ाज़-ए-वैखरी के कार्यक्रम से प्रतीत हुआ। यह कार्यक्रम हिंदी के कवि-आलोचक विजय देव नारायण साही के शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में था और विभाग-प्रभारी के अनुसार इस अर्थ में महत्त्वपूर्ण भी कि साही के इस शताब्दी वर्ष में दिल्ली विश्वविद्यालय का यह अपनी तरह का पहला आयोजन था।
एक बेहद खलिहर साँझ में वक़्त बिताने और जानने-सुनने की सदिच्छा लिए हुए इस कार्यक्रम के यू-ट्यूब लाइव से गुज़रना हुआ।
यहाँ वक्ता के तौर पर नई पीढ़ी के कवि-शोधार्थी उज्ज्वल शुक्ल और मुख्य वक्तव्य के लिए प्रोफ़ेसर-आलोचक-अध्येता गोपेश्वर सिंह आमंत्रित थे। पीयूष तिवारी ने बेहद लिरिकल अंदाज़ में श्रीकांत वर्मा की पंक्ति ‘जो बचेगा / कैसे रचेगा’ से संचालन की शुरुआत की।
परंपरा के तहत सरस्वती-वंदना और दीप-प्रज्वलन की औपचारिकता के लिए उन्होंने वैसे ही लिरिकल अंदाज़ में विष्णु पुराण का मंत्र उद्धृत करते हुए मंचासीनों को आहूत किया। मंच के पीछे साही की कविता के पोस्टर में निरीहता अपनी वर्तनी (निरिहता) में उसी तरह डाँवाडोल दिख रही थी, जैसे आगे चलकर मुख्य वक्ता का वक्तव्य!
विश्वविद्यालय के कुलगीत जैसी औपचारिकता के बाद स्वागत-वक्तव्य देते हुए विभाग-प्रभारी डॉ. हेमंत कु. हिमांशु ने प्रो. गोपेश्वर सिंह का आभार व्यक्त करते हुए कहा, “मैं उन्हें यहाँ उपस्थित देखकर गौरवान्वित महसूस कर रहा हूँ। हम चाहते हैं कि हिंदी का सांस्कृतिक कैनवस ऐसा हो जिसमें वरिष्ठ के साथ कनिष्ठ भी हों—इसलिए हमने उज्ज्वल शुक्ल को भी आमंत्रित किया है।” यह और बात है कि इस वरिष्ठता ने आगे चलकर कार्यक्रम के कैनवस पर कपास ओटने का ही काम किया।
संचालक ने वापिस माइक पर आते हुए कहा, “इस रील-पीढ़ी को साही की कविताओं को समझना चाहिए।” और फिर इस क्रम में साही की कुछ कविताओं का बारी-बारी से पाठ भी हुआ। साही की लंबी कविता ‘अलविदा’ के पाठ के दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय के उपस्थित स्नातकों और इच्छित स्नातकों के बीच जिस तरह की अधैर्यता और ऊब पनप रही थी, वह हिंदी की अकादमियों में कविता के प्रति तैयार माहौल का परिचय देती हुई प्रतीत होती है।
महाविद्यालय के प्राचार्य ने ख़ुद को वाणिज्य विभाग का बताते हुए कहा कि मैं कम बोलूँगा और हिंदी-साहित्य और उसकी ताक़त बताते हुए एक आँकड़ा पेश किया, “इस वर्ष सबसे ज़्यादा बिकने वाली पुस्तक ‘रामचरितमानस’ रही जो तुलसी ने पाँच सौ वर्ष पूर्व लिखी थी।” हालाँकि इस आँकड़े से परिचित होते हुए भी वह नितांत अपरिचित होने की भंगिमा में बने रहे।
वक्ताओं के परिचय देने की रस्म-अदायगी में डॉ. कु. भास्कर ने मुख्य वक्ता प्रो. गोपेश्वर सिंह का एक विकिपीडियानुमा परिचय पढ़ते हुए इस परिचय की लंबी शृंखला को थोड़ा और लंबा किया।
व्याख्यान के शुरुआत में पहले वक्ता युवा-कवि-शोधार्थी उज्ज्वल शुक्ल ने प्रो. गोपेश्वर सिंह के सामने रवायत के तौर पर ‘सूर्य को दीपक दिखाने’ जैसे लिजलिजे मुहावरे के साथ “असमर्थता और हिचकिचाहट में अपनी बात रखने से” बात शुरू की—हालाँकि वह अपने पूरे व्याख्यान में कहीं हिचकिचाते हुए नज़र नहीं आए। बस जल्दबाजी में ज़रूर रहे!
उज्ज्वल शुक्ल ने अपनी बात शुरू करते हुए कहा कि साही पर जब भी बात होती है, उनकी कविता के बरअक्स उनकी आलोचना की ज़्यादा चर्चा होती है। कार्यक्रम की थीम पर ज़ोर देते हुए, साही को पढ़ने-समझने और उनसे वैचारिक बहस करने का समय बताते हुए, उन्होंने रचना-कर्म के पुनर्मूल्यांकन की बात कही और मुख्य वक्ता की उपस्थिति को उल्लिखित किया।
‘तार सप्तक’ के हवाले से उन्होंने केदारनाथ सिंह, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना और साही का एक तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया। साही के पच्चीस शील का ज़िक्र करते हुए, वह सार्त्र और अस्तित्ववाद की ओर भी गए। साथ ही ‘कामयाब’ कविता से इस बात को और पुख़्ता करते हुए नज़र आए। कविता ‘संग-संग के गान’, ‘विषकन्या के नाम’ और ‘संयोजन’ के हवाले से इन कविताओं के बदलते शिल्प पर बात करते हुए, उन्होंने अब्बास किरोस्तामी की फ़िल्म ‘Taste of Cherry’, ‘The Wind Will Carry Us’ से उसकी तुलना भी की।
‘इलाहाबाद : एक रात’ कविता पर ज़ोर देते हुए, उन्होंने कहा कि इस कविता पर बात होनी चाहिए। ‘स्वर्ग-स्वप्न’ और ‘बंगाल की उन अप्सराओं’ जैसे संबोधन क्या हैं! क्या यह स्टीरियोटाइप है (?) इसे एक प्रश्न की तरह रखते हुए कहा, “बंगाल में आधुनिकता और नवजागरण की पहली धमक के बाद स्वतंत्रता के लिए क़दम बढ़ाती स्त्रियाँ क्या इस व्यंग्य के दायरे में हैं? या जो पुरुष रोज़गार या स्त्री की तलाश में बंगाल की तरफ़ गए—क्या ये स्त्रियाँ उन के स्वर्ग-स्वप्नों में भोग की वस्तुओं की तरह आती हैं?”
उज्ज्वल शुक्ल वक्तव्य संक्षिप्त था। यह वरिष्ठ और कनिष्ठ के अनुपातिक था। उनका यह कहना था—मैं एक छात्र और शोधार्थी के तौर पर बोलूँगा। पता नहीं... जल्दी जाने के तौर पर दिखते हुए उन्होंने साही की कविताओं से प्रश्न जैसा कुछ छोड़ते हुए अपना वक्तव्य समाप्त किया।
यू-ट्यूब पर चल रहे इस कार्यक्रम में मेरी दिलचस्पी थोड़ी बहुत बनी रही कि प्रो. गोपेश्वर सिंह का महत्त्वपूर्ण व्याख्यान अब होगा—इस इंतज़ार में मैंने दूसरी करवट ली। उन्होंने मंच पर बहुत धीमी और रुक-रुककर बोलने की शैली में—‘प्राचार्य जी जा चुकें हैं, लेकिन बहुत अच्छा बोल गए हैं वो’—अपने वक्तव्य की शुरुआत की और क्रमशः सभी का नाम लेते हुए कहा, “प्रिय छात्रो! विजय देव नारायण साही की कविताएँ आपके कोर्स में नहीं हैं। हम लोग उनकी आलोचना पर ही अधिकतर बात करते हैं। वह अँग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर थे और हिंदी से उनकी रोज़ी-रोटी नहीं चलती थी।”
इस वक़्त तक उनके चेहरे पर एक थकान और ऊब नज़र आ रही थी। उन्होंने बताया कि किस तरह उनकी माँ ने उन्हें हिंदी सिखाई और वह हिंदी के बड़े कवि-लेखक-आलोचक-सोशलिस्ट-एक्टिविस्ट बने। इसके बाद उन्होंने अपना अलाइनमेंट कुछ इस क़दर बदला कि बहुत देर तक मुख्यमार्ग से भटकर वह परती-परास घूमते रहे। आख़िर में बमुश्किल ही लौट सके।
पूरे वक्तव्य में बेहद नॉस्टेल्जिक होकर साही से अपनी पहली और एकमात्र मुलाक़ात का ज़िक्र करते हुए उन्होंने बताया कि किस तरह साही ने दरी पर बैठकर अपना वक्तव्य दिया। उन्होंने आगे कहा, “और साही ने पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर—जिन्हें अभी-अभी भारतरत्न भी मिला है—को भाव तक नहीं दिया।” उन्होंने साही के राजनीतिक संबंधों पर बातचीत करते हुए कहा, ‘‘वह जेपी, लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव के साथ पार्टी आदि की भूमिका की ओर चले गए।’’ गोपेश्वर जी के चेहरे पर अब थकान और ऊब की जगह चमक आ रही थी। इस चमक के साथ उन्होंने जितनी बार साही का नाम लिया, मुझे लगा वह कोई ज़रूरी सत्य उद्घाटित करेंगे, लेकिन बार-बार की गई उनकी ज़ोर-आज़माइश भी उन्हें ट्रैक पर न ला सकी।
गोपेश्वर जी ने कुछ और आगे जाकर कहा, “वह पाइप पी रहे थे! हिंदी में मैंने तीन लेखकों को पाइप पीते हुए देखा। सबसे पहले विजय देव नारायण साही (मुस्कुराते हुए) को, दूसरा राजेंद्र यादव और तीसरा मैनेजर पांडेय को।” थोड़ा रुककर वह बोलने लगे, “साही जी को मैंने देखा! धोती-कुर्ता पर पाइप! लगा ही नहीं कि यह अँग्रेज़ी का कोई प्रोफ़ेसर है—अँग्रेज़ियत की ऐसी-तैसी करता हुआ।”
कहना न होगा कि पाइप का आभिजात्य उन्हें इतना लुभा रहा था कि जितनी बार उन्होंने पाइप का ज़िक्र किया उतनी बार उन्होंने पीने की आकृति हवा में गढ़ी। अगर उनके जेब में पाइप होती तो वह पीकर बता देते। उन्होंने यह भी कहा, “वह उनका अंतिम वक्तव्य था! मैंने ही उसका कैसेट मँगवाया। डॉ. जगदीश गुप्त को इसकी चिंता थी, लेकिन मैंने ही उसे सुरक्षित करवाया। साही जी के उस दुर्लभ भाषण को बचाने में मेरी भी थोड़ी भूमिका है। मुझे गर्व होता है कि कम से कम उनका एक भाषण बचाने में मैंने भी थोड़ा योगदान दिया।”
इस दौरान ‘मैंने ही और मैंने भी’ की पुनरावृत्ति में चमक के साथ उनके चेहरे पर आत्ममुग्धता के भाव भी चिपक गए थे। इस बीच ‘सौ के साही’ और ‘साही शताब्दी वर्ष’ विषय को लगभग लतियाते हुए, वह साही की दिनचर्या का विश्लेषण प्रस्तुत करते रहे और इस बीच पोस्टर में निरीहता की वर्तनी और कार्यक्रम में वक्तव्य—दोनों डाँवाडोल दिखते रहे।
साही के जीवन के बारे में चर्चा करते हुए उन्होंने अनगिनत नाम गिनवाए और फिर साही के चुनाव लड़ने की बात कर नामवर के चुनावी रिजल्ट का विश्लेषण किया। “उनकी ज़मानत ज़ब्त हो गई थी! उन्हें अठ्ठारह सौ वोट मिले थे मात्र! लेकिन साही अच्छा लड़े थे।”
साही का रोज़नामचा गढ़ते हुए अपने कुल सैंतीस मिनट लंबे वक्तव्य में आख़िर छटाँक भर बोलते हुए उन्होंने कहा, “साही ने रामचंद्र शुक्ल के बाद जायसी को जिस तरह एक नई दृष्टि से देखा वह महत्त्वपूर्ण है। आज विश्वविद्यालय की कक्षाओं में साही की पुस्तक ‘जायसी’ को पढ़ना अनिवार्य है।” उन्होंने यह भी कहा, “आचार्य शुक्ल ने जो जायसी के संबंध में सूफ़ी मत प्रस्तुत किए थे, साही ने उन्हें ध्वस्त कर दिया। शुक्ल जी जायसी को मध्यकाल में खड़ा कर देते हैं, जबकि साही उन्हें आधुनिक कवि मानते हैं।”
साही की ‘छठवाँ दशक’ के ‘लघुमानव के बहाने हिंदी कविता पर बहस’ के संदर्भ में मंच की ओर देखते हुए उन्होंने कहा, “साही ने एक नई बात पैदा की : छायावाद एक सत्याग्रह युग है। यह बात आज तक किसी ने नहीं कही थी।” और तालियों के बीच उनकी आवाज़ दब गई।
नंददुलारे वाजपेयी के ‘कामायनी’ की आलोचना और भोगवाद के बारे में हिंदी-समाज पर आरोप लगाते हुए उन्होंने कहा, “हिंदी में आलोचना की एक राजनीति होती है, जिसके तहत आलोचना को भुला दिया जाता है। इसमें क्रम तैयार कर दिया गया—आचार्य शुक्ल, आचार्य द्विवेदी, रामविलास शर्मा और नामवर सिंह। बाक़ी...! बीच के सब आलोचक भुला दिए गए।” इस भुला दिए गए वाक्य के बीच उन्हें यह भी स्मरण नहीं रहा कि उन्होंने स्वयं इस बातचीत में साही का रचना-कर्म भुला दिया।
साथ ही उन्होंने छायावाद को गांधी से प्रभावित घोषित करते हुए कहा, “साही ने छायावाद की अवधारणा को बदल दिया।”
“नई कविता लघुमानव की कविता है। साही ने सहज मनुष्य को नई कविता के केंद्र में रखा और उसका शीर्ष कवि बनाया अज्ञेय को...” यह बात उन्होंने नई कविता के संदर्भ में कही।
आलोचना की ओर रुख़ करते हुए कहा, “इधर जो आलोचना लिखी जा रही है, उसमें विषय पर ज़्यादा महत्त्व दिया जाता है। What प्रमुख नहीं है! How प्रमुख है...”, यह समझाते हुए उन्होंने एक सुदीर्घ उदारहण भी दिया।
साही की स्मृति को नमन करते हुए कहा, “मैंने विद्वान अध्यापकों के लिए वक्तव्य नहीं दिया, छात्रों को ध्यान में रखकर जैसे कक्षा में पढ़ाता था बोला। उन्होंने चुटकी बजाते हुए आगे कहा, “वरना धुआँधार बोलना मुझे चुटकी बजाते हुए आता है। मैं बोलकर निकल जाता और आपके पल्ले नहीं पड़ता, लेकिन मैंने सोचा आपसे संवाद करूँ...” यह कहकर उन्होंने अपना वक्तव्य समाप्त किया।
इस चुटकी बजाने और जाने दिया की स्वीकारोक्ति में अब उनके चेहरे पर एक गर्वोन्नमत आभा थी... वह मुस्कुरा रहे थे।
प्रश्नाकुल छात्रों के उत्तर देने के क्रम में बहस की बहुआयामी परंपरा पर बात करते हुए गोल-गोल—लगभग एक कट्ठा गोल परती घूमकर उन्होंने कहा, “ख़ैर मैं बहुत घरेलू बातचीत में चला गया।” हालाँकि महानुभाव अपने वक्तव्य में शुरू से ही विषयांतर होते रहे। इस तरह इस कार्यक्रम का शिल्प साही की रचना के पुनर्पाठ की माँग और उठाए गए ज़रूरी प्रश्न से शुरू होकर भटकते-भटकते साही के रोज़नामचा के विश्लेषण में खो गया। पूर्व वक्तव्य में उठाए गए प्रश्न, बातचीत आदि को उन्होंने ठीक इसी तरह दरकिनार किया जैसे पूरे कार्यक्रम में कवि के रचना-कर्म को।
बहरहाल! यूट्यूब पर कार्यक्रम सुनने की सदिच्छा से प्राप्त ऊब और निराशा के बाद मैंने सोचा—आज का दिन बादलों में नहीं! न जाने कहाँ खो गया...
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