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सूफ़ी आंदोलन के कुछ अनछुए पहलू

सन्यासी फ़क़ीर विद्रोह के नायक बाबा मजनू शाह

आज़ादी के लिए देश में कई लड़ाईयाँ लड़ी गई हैं और कई स्वतंत्रता सेनानियों ने अपना बलिदान दिया है। इतिहास में दर्ज पहला स्वाधीनता संग्राम फ़क़ीर-सन्यासी विद्रोह के नाम से जाना जाता है। इसी विद्रोह के एक नायक मजनू शाह हैं। 

बाबा मजनू शाह बंगाल के रहने वाले थे। साल 1750 के आस-पास अँग्रेज़ी हुक़ूमत के ज़ुल्मों के ख़िलाफ़ उठ खड़े हुए लोगों को एक जुट करते-करते, उन्होंने अपने साथ कुछ सन्यासियों को लेकर अँग्रेज़ी हुक़ूमत के ख़िलाफ़ विद्रोह का बिगुल फूँक दिया।

वर्ष 1763 में बाबा ने अँग्रेज़ी फौज के लेफ़्टिनेंट ब्रेनान की हत्या कर दी। इस घटना के बाद अँग्रेज़ों ने उन्हें वॉन्टेड घोषित कर दिया। वॉन्टेड घोषित होने के बावजूद छिपते-छिपाते सन्यासियों के इस संगठन ने अँग्रेज़ों से जगह-जगह लोहा लिया और उन पर हमले करते रहे।

बंगाल (अब बांग्लादेश का हिस्सा) दीनापुर में ऐसे ही एक हमले में मजनू शाह बुरी तरह घायल हो गए और वो छिपते हुए किसी तरह उत्तर प्रदेश के कानपुर ज़िले में मौजूद एतिहासिक क़स्बे मकनपुर में आ गए और अपने जीवन का अंतिम समय उन्होंने गुमनामी में मशहूर सूफ़ी संत ज़िदा शाह मदार की दरगाह पर मलंग की हैसियत से गुज़ारा। 

क़स्बा मकनपुर में बाबा मजनू शाह की कोठरी, उनकी समाधि, मीटिंग प्लेस और एक ज़ंजीर स्मृति के तौर पर आज भी मौजूद है।


बिहार साइंटिफिक सोसाइटी की स्थापना करने वाले सूफ़ी इमदाद अली साहब
 
शाह इमदाद अली साहब ने अपने पेशे की शुरुआत 1829 ई. में राजस्व विभाग में एक कर्मचारी के रूप में की। बाद में 1848 ई. में मुंसिफ बने और सादर अमीन के पद से सेवानिवृत हुए। पीर-ओ-मुर्शिद हज़रत शाह मुहम्मद मेहदी हसन फ़ारूकी थे, जिनकी ख़ानक़ाह मोहल्ला करीम चक, छपरा में स्थित थी। शाह इमदाद अली साहब के सैकड़ों मुरीद थे और यहाँ से यह सिलसिला सुह्रावार्दिया क़ादरिया जहाँगीरिया के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 

1864 ई. में इन्होने बिहार साइंटिफिक सोसाइटी की स्थापना की जिसका मुख्य उद्देश्य बिहार के लोगों में वैज्ञानिक चेतना का विकास था। यह सोसाइटी पाश्चात्य वैज्ञानिक किताबों का अनुवाद भी कर रही थी।

यह संस्था एक अख़बार भी प्रकाशित करती थी, जिसका नाम ‘अख़बार-उल-अख़यार’ था। इन्होने अपना प्रिंटिंग प्रेस भी शुरू किया, जिस का नाम ‘चश्मा-ए-नूर’ था। इस के संपादक अयोध्या प्रसाद ‘बहार’ थे। बाद में इसके संपादक मुंशी क़ुर्बान अली भी रहे। यह अख़बार 1868 ई. में शुरू हुआ। सन् 1873 ई. में इस अख़बार में उर्दू के साथ-साथ हिंदी लिप्यांतरण भी प्रकाशित होने लगा। 

हज़रत इमदाद अली साहब ने 1868 ई. में मुज़फ़्फ़रपुर शहर में एक सोसाइटी बनाई जिसका नाम पहले ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन रखा गया, बाद में इसका नाम बदल कर बिहार साइंटिफिक सोसाइटी कर दिया गया। इसका मकसद यूरोपियन साइंस की किताबों का मादरी ज़बानों में तर्जुमा करना था। 

आख़िरकार गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया ने मार्च 1870 ई. में एक हुक्म जारी किया कि तालीम मादरी ज़बान में होनी चाहिए। सोसाइटी के प्रयासों से बहुत सारी यूरोप में पढ़ी जाने वाली विज्ञान की किताबों का तर्जुमा मादरी ज़बान में किया गया। मुज़फ़्फ़रपुर और गया में स्कूल क़ायम किए गए। उर्दू ज़बान में एक पंद्रह रोज़ा अख़बार भी शुरू किया गया। 

हज़रत सय्यद इमदाद अ'ली साहब ने जब बिहार में साइंटिफिक सोसाइटी की स्थापना की, तब उन्होंने सर सय्यद से भी राब्ता किया था। उन्होंने सर सय्यद को एक हज़ार रूपए लंदन भेजे ताकि वहाँ से विज्ञान पर छपी अच्छी अँग्रेज़ी किताबें ख़रीदी जा सकें जिनका तर्जुमा साइंटिफिक सोसाइटी द्वारा हो सके। 

हमें सर सय्यद का एक पत्र हज़रत सय्यद इमदाद अ'ली साहब के नाम प्राप्त हुआ, जिसमें इस सोसाइटी और इसके कार्यों का ज़िक्र है। अंतिम वाक्य रोमांचित करता है। सर सय्यद फरमाते हैं –“सब कुछ आप की करामात है और कुछ नहीं!”

सूफ़ी-भक्ति परंपरा ने हिंदुस्तान की लगभग हर भाषा को अपना स्वर देकर समृद्ध किया है। यह यात्रा आज भी चल रही है और बक़ौल हज़रत अहमद जाम हर ज़माने में चलती रहेगी

हर ज़माँ अज़ ग़ैब जान-ए-दीगर अस्त

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समाप्त

पहली, दूसरी और तीसरी कड़ी यहाँ पढ़िए : कोटि जनम का पंथ है, पल में पहुँचा जाय | गंगा-जमुनी तहज़ीब और हिंदुस्तानी सूफ़ीवादक्या है क़व्वाली वाया सूफ़ी-संगीत का खुलता दरीचा

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