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कविता की कहानी सुनता कवि

कविता आती है और कवि को आत्मा से शब्द की अपनी यात्रा की दिलचस्प दास्ताँ सुनाने लगती है। कवि के पूछने पर कविता यह भी बताती है कि आते हुए उसने अपने रास्ते में क्या-क्या देखा। कविता की कहानी सुनने का कवि पर क्या प्रभाव पड़ता है, अंतिम भाग उस पर है। कहानी के कुल चार भाग हैं—

एक

एक कल्पनाशील अँधेरा था, इसलिए हर जगह मौजूद था। वह अपनी सारी कल्पनाओं के कानों में ‘अहम’ का उच्चारण अलग-अलग ध्वनियों में कर देता था, ताकि उसकी सारी कल्पनाओं को अपनी-अपनी आवाज़ सुनाई दे। उसकी सारी कल्पनाएँ एकाकी थीं, उसी की तरह।

उसकी कल्पनाओं में से एक कल्पना थी—पृथ्वी। पृथ्वी जितनी बार ‘अहम’ दोहराती उस पर उतनी ही परतें बनती जातीं।

कहते हैं जहाँ-जहाँ ‘अहम’ की तरंगें मछलियों की तरह तैर रही थीं, वहाँ-वहाँ पानी था और जहाँ ‘अहम’ के कंपन भय की तरह काँप रहे थे, वहाँ ज्वालामुखी, बिजलियाँ और तूफ़ान थे।

जब ‘अहम’ के कण एक साथ कई धड़कते रंग उत्सर्जित करने लगे तो वे हवा होकर उड़ने लगे।

मैं अँधेरे के भीतर आश्चर्य के भाव की तरह जागी हुई थी चुपचाप… अँधेरे की आत्मा की तरह।

दो

अँधेरे में मुझे खोजते हुए
एक लंबी यात्रा की कल्पना 
मेरे रूबरू आई
और मुझसे कहा—चलो चलते हैं!
जितनी दूर एक दीए की रौशनी जाती है
जितनी दूर जाती है नदी को ढूँढ़ती एक भारी थकान
संगीत में जितनी दूर तक फैल जाती है निकटता 
वर्तमान को जितनी दूर ले जाता है अतीत और भविष्य 
रहस्य के मैदानों में जितनी दूर तक जाता है कोई संदेह
जितनी दूर जाती है एक खिलौने की सीटी
आँख के आकाश में जितनी दूर तक जाते हैं रंगों के पाखी
जितनी दूर तक जाता है एकांत सरलता के साथ
चलो चलते हैं जितनी दूर बदनामी का भय जाता है 
जितनी दूर घर से भागी हुई लड़कियाँ जाती हैं, 
हिंसा और नफ़रत की आग जाती है
जितनी दूर सुख और दुःख के बीच खींची हुई लकीर जाती है
जितनी दूर कविता से काव्य जाता है 
जितनी दूर ग़ुलामों से भरे जहाज़ जाते हैं, 
प्रवासी पंछियों का श्रद्धा भरा परिवार जाता है
जितनी दूर रस्सी तोड़कर कोई जानवर जाता है, 
किसी चरवाहे की लंबी पुकार जाती है 
चलो चलते हैं

तीन

रास्ते में तुम्हें क्या-क्या दिखाई दिया?

मुझे दिखाई दिया सपने को पाने और खोने का सपना
मैंने देखी पहाड़ियों की चोटियों पर एकांत के गीत गाने वाली बादलों, रंगों और सितारों की एक जनजाति
बच्चों के साथ खेलता-दौड़ता मामूली चीज़ों का एक देवता
खंडहरों के नक़्शे पढ़ती हुई रौशनी और उसके चमकते दूध के दाँत 
परिंदों के पक्ष में बोलते हुए फ़ारसी गुंबद
मन-खंडहर में गिरे हुए किसी प्रेम कहानी के तराशे हुए स्तंभ 
मौन-महल के भीतर विचार-भरी अक़्ल की एक झोपड़ी

हवा के झोंके, लहरें, सागर की और आग की लपटें यादों को उनका किरदार समझा रही थीं
ख़ामोशी से बिछड़कर एक लोकगीत रो रहा था
बेहोश हो चुकी किताब को उलट-पुलट कर देखता एक आदमी था
एक स्त्री धागों से हाथी काढ़ रही थी, जो हज़ारों सालों से उसके सपनों में घूम रहा था
किसी तीमारदार की मानिंद एक चराग़ बीमार के पास बैठा जाग रहा था 
एक सपना जंगल में पूरबमुखी घर बना रहा था
गुलाब जितनी दूरी तय करने के बाद एक इच्छा दिल को छोड़कर जा रही थी प्रकाश से भी तेज़ 

अपने बेतुके हाल पर खिलखिलाती हुई इक मुहब्बत थी
छोटी-सी एक वजह थी जिसे दुनिया बड़ी हसीन लगती थी
अनगिनत चीज़ें थीं जो चिंताओं को बहुत बड़ी दिखाई देती थीं और आनंद को भी

नदी किनारे था एक कछुआ जिसे नदी-किनारा 
मानव सभ्यता का इतिहास सुना रहा था
स्कूल जाता हुआ एक बच्चा था जो बहुत सारा समय लगाकर नदी पार करना चाहता था

एक कलाकृति थी जिसके रंगों ने सरकार पर हमला बोल दिया था
आईनों और पंखों से भरा हुआ एक पिंजरा था 
ध्वस्त हो चुके एक शहर का इंटरव्यू लेता एक रिपोर्टर था और पतन की कहानी कह-कहकर थक चुका मलबे का ढेर
ऊँची लहरें हवाओं के साथ एक नीली प्रार्थना में शामिल होने जा रही थीं 
एक दिल, जिसमें किसी को चूमने की इच्छा के गुलाब खिल रहे थे, हथियारबंद सैनिकों द्वारा चारों तरफ़ से घेरा जा चुका था

अनगिनत आँखों में  “मुझे कोई नहीं समझता” का तन्हा लड़खड़ाता हुआ सपना था
एक चोट थी जो ख़ुद को अच्छी तरह कभी नहीं देखना चाहती थी
शब की इबारत को पढ़ने के लिए, फ़ुर्सत की शब ढूँढ़ती हुई दर्द की तन्हाई थी 
एक दलदल था, फ़ैक्ट्री में फँसे आदमियों के सीनों में और आँखों में आँसू गैस 
काला, एक विकास मार्ग था जो असंख्य पर्वतों, पेड़ों को गिरा देने के बाद चीखते हुए कह रहा था—‘मैं खो गया हूँ, मैं खो गया हूँ’

एक असंतुष्टि थी जिसके ऊपर 
कोई फूलों भरा गुलदान रख देता, कोई रख देता एक लंबा उपन्यास, कोई लकीरें खींच देता और कोई धरकर अपना सिरहाना जागता-सोता-करवट बदलता रहता 
जगमगाती सड़कों पर, एक तूफ़ान-ए-बला था मुंतज़िर, किसी आवारा के लिए
नाशाद-ओ-नाकारा के लिए

मई के बादलों का शुक्रिया कहता हुआ बारिश से भरा एक पालतू कुत्ते का बर्तन था
विलुप्त हो रहे एक जानवर के पदचिह्मों पर चलता हुआ एक आदमी था 
तारों भरे आकाश में एक ब्रह्मांडीय पीर एकाकी होने का रियाज़ कर रही थी
भाषा का सबसे सरल वाक्य बनकर एक आदमी खेत में हल चला रहा था

चार

कहते हैं कविता की दास्ताँ सुनते हुए कवि को कुछ देर शब्दों के जंगल में भटकते हुए देखा गया। फिर वो ध्वनि-बरगद की शाख पर हंस की तरह नज़र आया... चुपचाप जंगल को निहारता हुआ... और उसके बाद न जाने कब कवि अँधेरे में उड़ गया... अकेला… इतना अकेला कि अँधेरा हो गया... एक कल्पनाशील अँधेरा... जिसके भीतर काव्य की तरह जाग रही आत्मा थी...

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