Font by Mehr Nastaliq Web

रविवासरीय : 3.0 : गद्यरक्षाविषयक

गद्य की रक्षा करना एक गद्यकार का प्राथमिक दायित्व है। गद्यरत के गद्य की रक्षा कैसे होती है? आइए जानते हैं :

गद्यरत जब प्रकाश पर रचे; तब चाहे कि प्रकाश के जितने भी संभव-असंभव आयाम हैं, वे सब व्यक्त हो जाएँ और यह ज़िक्र करना भी ज़रूरी लगे कि प्रकाश दलित थे और उनके परिवार की उनकी अनुपस्थिति में आज क्या स्थिति है।

पर गद्यकार जब गद्य-प्रवाह में होता है, तब बहुत सारे तथ्य कथ्य के विन्यास में अट नहीं पाते। यहीं बस यहीं—गद्य की रक्षा का सवाल एक समस्या बनकर आकार लेता है।

एक कवि के महत्त्व को उद्घाटित करने के लिए उसे दलित, आदिवासी, स्त्री, अल्पसंख्यक, समलैंगिक, अभावग्रस्त, वंचित, विक्षिप्त, बीमार, दिव्यांग आदि बताने से बेहतर है कि गद्यकार सूखे कुएँ में कूद जाए। यह सर्वज्ञात है कि देश-काल के साथ-साथ इन स्थितियों के भी अंक होते हैं; लेकिन गद्य की रक्षा में एक रचनाकार के ये अंक काट लिए जाने चाहिए, क्योंकि गद्यरत का वास्तविक काम इस सबके बीच रचनाकार के रचनात्मक संघर्ष और रचना पर उसके विश्वास की जाँच करना है।

अकादमिक अनुशासनों में बँधे अध्येताओं, रिसर्चरों, पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, इन्फ़्लूएंसर्स और एंकर्स का गद्य समयानुकूल होते हुए भी इसलिए बेनूर होता है; क्योंकि उसमें गद्य की रक्षा के वैसे यत्न नज़र नहीं आते, जैसे एक रचनाकार के यहाँ नज़र आते हैं।

रचनाकार प्राय: अपने रचनात्मक गद्य में अपने वैचारिक सिद्धांतों का प्रवक्ता होने से बचते हैं। इधर के कुछ ललित और ललाम दोनों ही प्रकार के गद्यकार बतौर रचनाकार इस रचनात्मक विशेषता से विहीन हैं। उनका ‘सुंदर’ गद्य मूलतः उनके हिंसक-कट्टर-अतिवादी विचार से सुशोभित है। यहाँ सघन प्रतीत होती हुई तरलता की एक परत हटाइए और गँदलापन पाइए। यह गद्य यूरिया, कोलतार डाई, डिटर्जेंट और दफ़्ती से तैयार होने वाले नक़ली पनीर से भी ज़्यादा नुक़सानदायक है। इस गद्य की रक्षा नहीं, इस गद्य से रक्षा ज़रूरी है। इसमें काम आता है—स्वस्थ मानसिक अभ्यास और कार्यभार देता हुआ गद्य। वह गद्य नहीं जो पहले मंडल के लिए लड़ता था, अब मंडल से लड़ता है।

गद्य की रक्षा कथ्य को स्थिरतापूर्वक देखने से होती है, क्योंकि कथ्य बहुत बेलगाम होता है और कभी-कभी वह अपनी संभ्रमित गति से गद्य को नष्ट करने लगता है। इस गति पर सफल नियंत्रण से ही गद्य की रक्षा होती है।

हमारी बिल्कुल समकालीन कथा का गद्य हमारी प्रतिष्ठित-प्रसिद्ध लंबी कहानियों के गद्य का चूरा मात्र है।

एक समय से शुरू होकर एक समय तक हिंदी में लंबी कहानी ने गद्य की रक्षा के लिए कुछ विशेष प्रयत्न किए। इसमें प्रमुख था—कथा-गद्य में गद्य-कविता सरीखा प्रयत्न। लेकिन कथा में गद्य की रक्षा कविता से ज़्यादा दर्शन से होती है और कथा में दर्शन के लिए उपन्यास आवश्यक है। हिंदी के आसन्न अतीत में कवि-कहानीकार दोनों ही समान रूप से लंबी कहानी से वैसे ही संक्रमित हुए, जैसे आज उपन्यास से हो रहे हैं। आज हिंदी की हर फटी जेब में एक उपन्यास है; जिसका दर्शन उसके दिमाग़ में नहीं, पैरों में है। पैर जो कभी संस्थाओं की तरफ़ भागते हैं, कभी साहित्य-उत्सवों की तरफ़; कभी सिनेमा की तरफ़ भागते हैं, कभी समादृतों की तरफ़।

पुस्तक पर एकाधिक सम्मतियाँ-अनुशंसाएँ-प्रशस्तियाँ और अधिक परिचय—पुस्तक-लेखक के अति कमज़ोर आत्मविश्वास का प्रदर्शन मात्र हैं।

सम्मतियाँ-अनुशंसाएँ-प्रशस्तियाँ लाभ पहुँचाती हैं—गद्यकार को, गद्य को नहीं।

गद्य की रक्षा इन शब्दों-वाक्यों से नहीं होती :

~ सुंदर!
~ बधाई!
~ शुभकामनाएँ!
~ शीघ्र पढ़ें!
~ ज़रूर पढ़ें!
~ अब उपलब्ध है/हूँ!
~ अवश्य मँगवाएँ!
~ जल्दी से जल्दी मँगवाएँ!
~ तुरंत ख़रीदें! 
~ लिंक कमेन्ट में!
~ शुक्रिया!

कविता की भाषा युगों से गद्य की रक्षा कर रही है, वैसे ही जैसे संगीत की भाषा कविता की।

अपने गले में अपनी ही ख़रीदी माला डालते हुए गद्य से गद्य की रक्षा संभव नहीं है।

गद्य की रक्षा में असफलता कैसे प्राप्त होती है, यह यहाँ प्रस्तुत गद्य में देख सकते हैं।

•••

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

10 जनवरी 2025

आत्म-तर्पण : कबहुँ न नाथ नींद भरि सोयो

10 जनवरी 2025

आत्म-तर्पण : कबहुँ न नाथ नींद भरि सोयो

‘हिन्दवी’ के विशेष कार्यक्रम ‘संगत’ के 89वें एपिसोड में हिंदी कथा साहित्य के समादृत हस्ताक्षर चन्द्रकिशोर जायसवाल ने यहाँ प्रस्तुत संस्मरणात्मक कथ्य ‘आत्म-तर्पण’ का ज़िक्र किया था, जिसके बाद कई साहित

19 जनवरी 2025

रविवासरीय : 3.0 : पुष्पा-समय में एक अन्य पुष्पा की याद

19 जनवरी 2025

रविवासरीय : 3.0 : पुष्पा-समय में एक अन्य पुष्पा की याद

• कार्ल मार्क्स अगर आज जीवित होते तो पुष्पा से संवाद छीन लेते, प्रधानसेवकों से आवाज़, रवीश कुमार से साहित्यिक समझ, हिंदी के सारे साहित्यकारों से फ़ेसबुक और मार्क ज़ुकरबर्ग से मस्तिष्क... • मुझे याद आ

02 जनवरी 2025

‘द लंचबॉक्स’ : अनिश्चित काल के लिए स्थगित इच्छाओं से भरा जीवन

02 जनवरी 2025

‘द लंचबॉक्स’ : अनिश्चित काल के लिए स्थगित इच्छाओं से भरा जीवन

जीवन देर से शुरू होता है—शायद समय लगाकर उपजे शोक के गहरे कहीं बहुत नीचे धँसने के बाद। जब सुख सरसराहट के साथ गुज़र जाए तो बाद की रिक्तता दुख से ज़्यादा आवाज़ करती है। साल 2013 में आई फ़िल्म ‘द लंचब

29 जनवरी 2025

जीवन को धुआँ-धुआँ करतीं रील्स

29 जनवरी 2025

जीवन को धुआँ-धुआँ करतीं रील्स

मैं बहुत लंबे समय से इस बात पर चिंतन कर रहा हूँ और यह कितना सही और ग़लत है—यह तो खोजना होगा; पर मैं मान कर चल रहा हूँ कि रोमांस मर चुका है। उसके साथ ही मर चुका है साहित्य। कला दम तोड़ रही है। अगर यह क

09 जनवरी 2025

ज़िंदगी की बे-अंत नैरंगियों का दीदार

09 जनवरी 2025

ज़िंदगी की बे-अंत नैरंगियों का दीदार

कहानी एक ऐसा हुनर है जिसके बारे में जहाँ तक मैं समझा हूँ—एक बात पूरे यक़ीन से कही जा सकती है कि आप कहानी में किसी भी तरह से उसके कहानी-पन को ख़त्म नहीं कर सकते, उसकी अफ़सानवियत को कुचल नहीं सकते।  उद

बेला लेटेस्ट