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रविवासरीय : 3.0 : पुष्पा-समय में एक अन्य पुष्पा की याद

• कार्ल मार्क्स अगर आज जीवित होते तो पुष्पा से संवाद छीन लेते, प्रधानसेवकों से आवाज़, रवीश कुमार से साहित्यिक समझ, हिंदी के सारे साहित्यकारों से फ़ेसबुक और मार्क ज़ुकरबर्ग से मस्तिष्क...

• मुझे याद आता है : वह संतुलित अतिवाद के प्रदर्शन का प्रारंभिक समय था। मसीहाओं और मूर्खों का संख्या-बल सशक्त होता जा रहा था और मैं बेरोज़गार। 

• फ़ॉलोअर्स हों तो आदमी क्या नहीं कर सकता। [शैली साभार : नामवर सिंह, जिन्होंने कहा कि प्रतिभा हो तो आदमी क्या नहीं कर सकता।] 

• मेरे एक ममेरे भाई हैं। उनसे जब मेरा रोज़गार-संकट देखा नहीं गया, तब एक रोज़ उन्होंने मुझसे कहा कि तुम पुष्पा जी के पास चले जाओ। वह बहुत बड़ी साहित्यकार हैं और तुम्हें ‘विश्व हिंदी सम्मेलन’ में विश्व घुमा सकती हैं। 

मेरे ममेरे भाई साहब एक ट्रैवल-कंपनी के संचालक रहे आए। वह पुष्पा जी के लिए वीजा-पासपोर्ट की समयानुकूल व्यवस्था देखा करते थे। 

मैंने अहंग्रस्त होते हुए सोचा कि आख़िर ऐसा कौन-सा बड़ा/बड़ी साहित्यकार है, जिसे मैं नहीं जानता! मुझे स्वयं में पुष्पा जी के प्रति दिलचस्पी के लक्षण नज़र आने शुरू हुए। मैं ‘विश्व हिंदी सम्मेलन’ नाम की बीमारी से वाक़िफ़ था। कुछ वर्ष पूर्व ही जोहान्सबर्ग [दक्षिण अफ़्रीका] में फ़ैली इस बीमारी के विषय में एक हिंदी कवि ने फ़रमाया था : 

यह जींस चीज़ बर्बादी की 
और उस पर कुर्ती खादी की 
तेरी पायल बाजे चाँदी की 
जय बोल महात्मा गांधी की  

• वे विचार भाषा में व्यक्त ही नहीं हो सकते, जो हमारे दिमाग़ में हैं।   

भाषा विचार और उसके मूल्य सत्य को प्रदूषित करती है।   

• वह चैत्र नवरात्रि का पहला दिन था, जब मैं एक तीन मंज़िला इमारत के नीचे खड़े होकर पुष्पा जी को खोज रहा था।

मैंने मन ही मन शैलपुत्री का स्मरण किया : माँ! तुम भक्तजनों की मनोवांछा पूर्ण करने वाली कल्पलता हो... मुझे सबसे ऊपर से एक पुकार सुनाई दी। मैं इस पुकार पर चढ़ता-बढ़ता गया। मेरे सामने अपनी केश-राशि को काले तौलिये में बाँधे एक सद्यःस्नाता थीं। वह बोलीं : ‘‘बेटा, कुत्ता है न... इसलिए थोड़ा ध्यान देना पड़ता है—बँधा हो कि न हो।’’ 

पुष्पा जी ने मुझे मिठाई दी और थोड़ी प्रतीक्षा करने को कह पूजा-कक्ष की ओर चल दीं। मैंने मिठाई खाई और थोड़ा पानी पीकर मेज़ पर पड़ा ‘दैनिक जागरण’ पढ़ने लगा। एक भयावह व्यक्ति की तस्वीर और नाम लगभग सारे पन्नों पर था। मैं डर रहा था कि तभी पुष्पा जी सुगंधित धूप करती हुई आईं। उन्होंने मुझे प्रसाद दिया और बोलीं, ‘‘बड़े मौक़े से आए हो बेटा! आओ, मैं तुम्हें अपनी पुस्तकें दिखाती हूँ।’’ मुझे तुरंत नहीं, लेकिन बहुत जल्द पता चला कि वह अपनी लिखीं किताबों की बात कर रही थीं। वह तब तक चार दर्जन से ऊपर किताबें लिख चुकी थीं। इनमें तीन दर्जन के आस-पास काव्य-विधा से संबंधित थीं, शेष उपन्यास-कहानी-डायरी-संस्मरण-यात्रा... उन्होंने अपनी सबसे नई किताबें माता की चौकी के नज़दीक रखी हुई थीं। वह बोलीं : ‘‘सब माँ का आशीर्वाद है, बेटा! तुम्हारी कितनी किताबें आई हैं?’’ मैंने कहा : “एक आई है साहित्य अकादेमी से।’’ वह बोलीं : ‘‘साहित्य अकादेमी से किताब कैसे छपती है; मेरी भी छपवाओ बेटा, जो भी ख़र्चा आएगा... देख लेंगे।”  मैंने कहा : ‘‘जी...’’ वह बोलीं : ‘‘वैसे हिंदी अकादेमी तो बीस हज़ार का अनुदान देती है—नए लेखकों को—किताब छपवाने के लिए, साहित्य अकादेमी नहीं देती?’’ मैंने कहा : ‘‘नहीं...’’ वह बोलीं : ‘‘मेरे बेटे की किताब आई है—हिंदी अकादेमी के अनुदान से, लेकिन बड़ी मुश्किल हुई। उसके पास कविताएँ ही कम पड़ गईं! बताओ केवल छोटी-छोटी चालीस कविताओं से कोई किताब बनेगी!’’ मैंने कहा : ‘‘हूँ...’’ वह बोलीं : ‘‘मैंने दीं फिर अपनी तीस-पैंतीस कविताएँ उसे, तब आई उसकी किताब। घर-परिवार में तो एक दूसरे के काम आना ही पड़ता है, बेटा। कविताओं का क्या है, फिर लिख जाएँगी।’’ मैंने कहा : ‘‘बिल्कुल।’’ वह बोलीं : ‘‘तुम्हें ले चलूँगी मॉरीशस... चलोगे न? पासपोर्ट है?’’ मैंने कहा : ‘‘नहीं।’’ वह बोलीं : ‘‘बनवा लो।’’ मैंने कहा : ‘‘जी।’’

पुष्पा जी इसके बाद एक फ़ोटो एल्बम खोलकर मुझे गए विश्व हिंदी सम्मेलनों की तस्वीरें दिखाती रहीं। उनमें स्वयं को साहित्यकार कहने वाले विचित्र-विचित्र जीव नज़र आ रहे थे। मैंने कहा : ‘‘इनमें मुख्यधारा का कोई साहित्यकार नहीं है क्या?’’ वह बोलीं : ‘‘मुख्यधारा का साहित्यकार किसे मानते हो, बेटा?’’ मैंने कहा : ‘‘नामवर सिंह को।’’ वह बोलीं : ‘‘उनका आशीर्वाद हमें मिलता रहता है, ये देखो...’’ वह एक तस्वीर में नामवर सिंह को माला पहना रही थीं और नामवर सिंह उन्हें नमस्कार कर रहे थे। 

शासनादेश सारे वाराणसी आते हैं
स्नान-ध्यान-दाह वाले काशी

बाक़ी सब बनारस आते-जाते हैं

~ हरीश चंद्र पांडे       

• नामवर सिंह के पूरे व्यक्तित्व को अगर देखें तो वह एक ऐसे व्यक्ति नज़र आते हैं, जिसका मुँह हमेशा खुला हुआ, हाथ हमेशा उठे हुए, पैर हमेशा सफ़र में हैं। इस प्रक्रिया में ऐसे अवसर अनेक हैं, जब वह मार्क्सवाद की नैतिकता को आहत करते रहे; जबकि वह प्रतिभा-पुंज, प्रखर बौद्धिक, प्रबुद्ध आलोचक, तलस्पर्शी विश्लेषक, अद्भुत वक्ता रहे… यह नामवर सिंह के चाटुकार और प्रशंसक ही नहीं, उनके विरोधी और शत्रु भी स्वीकार करते हैं। वह हिंदी आलोचना को उसके ठंडेपन और शुष्कता से बाहर लाए, वह उसे उसके समकालीन दायित्व और प्रतिभा-अन्वेषण के नज़दीक ले गए। उन्होंने लिखित और वाचिक दोनों ही माध्यमों में हिंदी आलोचना को उसका मूल कार्य-भार समझाने की चेष्टा की। 

• हिंदी के अकादमिक और प्रकाशन जगत पर एक साथ छाए रहे नामवर सिंह के भीतर का वामपंथी धीरे-धीरे ख़त्म होता गया। अपने अंत तक आते-आते तो वह ईश्वर को याद करने लगा [देखिए : नामवर सिंह पर केंद्रित ‘एनडीटीवी’ का 4 मई 2018 का प्राइम टाइम]।

• मैंने पुष्पा जी का लोहा मानते हुए उनसे विदा ली। उन्होंने मुझे पाँच सौ रुपये का एक नोट जबरन देते हुए कहा, ‘‘आते रहना...’’ 

• मैं इस ओर फिर कभी नहीं आया। यों ही कुछ दिन बीते। मैं इंडिया टुडे ग्रुप के उपक्रम ‘लल्लनटॉप’ में काम करने लगा।

एक रोज़ मैं दफ़्तर से घर लौट रहा था कि अचानक बीच राह में पुष्पा जी की कॉल आई : ‘‘बेटा, तुम तो मुझे भूल ही गए!’’ मैंने कहा : ‘‘अरे! बिल्कुल नहीं।’’ वह बोलीं : ‘‘आजकल कहाँ हो?’’ मैंने कहा : ‘‘...‘आज तक’ में।’’ वह बोलीं : ‘‘मेरा इंटरव्यू करवाओ न...’’

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