आत्म-तर्पण : कबहुँ न नाथ नींद भरि सोयो
चन्द्रकिशोर जायसवाल 10 जनवरी 2025
‘हिन्दवी’ के विशेष कार्यक्रम ‘संगत’ के 89वें एपिसोड में हिंदी कथा साहित्य के समादृत हस्ताक्षर चन्द्रकिशोर जायसवाल ने यहाँ प्रस्तुत संस्मरणात्मक कथ्य ‘आत्म-तर्पण’ का ज़िक्र किया था, जिसके बाद कई साहित्य-प्रेमियों ने इसे पढ़ने की चाह ज़ाहिर की। बहुत बरस बीते जब ‘हंस’-संपादक और प्रसिद्ध कथाकार राजेंद्र यादव ने इसे ‘हंस’ में जारी शृंखला ‘आत्म-तर्पण’ के लिए लिखवाया था, लेकिन प्रकाशित नहीं किया। हमारे विशेष आग्रह पर ‘बेला’ के लिए यह ‘आत्म-तर्पण’ चन्द्रकिशोर जी के सुपुत्र प्रियंवद ने भेजा है। यहाँ हम इसे चन्द्रकिशोर जी की अनुमति से प्रकाशित कर रहे हैं।
‘ना सखि पैसा’ (कहानी) के चमकलाल की तरह वह भी चौंक गया। चमकलाल ने आँखें खोलीं, तो देखा, सामने साक्षात् श्रीराम खड़े हैं; उसने आँखें खोलीं, तो पाया कि सामने एक भैंसा खड़ा है और उसके साथ कोई महिषपाल। चमकलाल आह्लादित हो उठा था, और वह आकुंठित और आतंकित। हंकार कानों में पड़ चुकी थी; वह धीरे से उठ खड़ा हुआ और बोला, ‘‘आपने कुछ कहा?’’
‘‘हाँ, कहा’’ महिषपाल ने जवाब दिया। ‘‘कहा कि आप लोकांतरगमन के लिए तैयार हो जाएँ। मैं आपको लेने के लिए आया हूँ।’’
‘‘कौन हैं आप?’’ कुछ संकुचित होकर पूछा उसने।
महिषपाल ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, ‘‘मैं यम का दूत हूँ।’’
यम के दूत को उसने ख़ुफ़िया निगाहों से निहारा और भौंहें सिकोड़ते हुए बोला, ‘‘यमराज के दोनों दूतों को मैं उनके नथुने देखकर पहचान सकता हूँ; आपके नथुने तो...’’
‘‘हाँ, चौड़े नहीं है,’’ मुस्कुराते हुए जवाब दिया यमदूत ने, ‘‘मेरी नई तैनाती है।’’
‘‘यमदूत के पद पर!’’ उसने अचरज प्रकट किया, ‘‘दूत का कोई पद ख़ाली तो नहीं था।’’
‘‘ख़ाली तो मैं यमराज की कुर्सी तक करवा लूँगा।’’
‘‘वह कैसे?’’
‘‘जनमत से, बहुमत से।’’
‘‘जनमत से? बहुमत से?’’
‘‘हाँ-हाँ, बिल्कुल। अगर ‘मेरी तेरी उसकी बात’ की फ़सल और साल दो साल भी लहलहाती रहे, तो लोग मुझसे डरेंगे कि किसी यमराज से, जनमत मेरे पक्ष में जाएगा कि किसी और के?’’
‘‘जनमत से कहीं यमराज भागा है! आप बात चाहे जैसी कर लें, जिसकी कर लें।’’
‘‘तो फिर कुछ और जुगत भिड़ाऊँगा, और लगाऊँगा।’’
‘‘यमराज भाग जाए, यह कभी नहीं होगा।’’
‘‘हुआ कि नहीं?’’ यमदूत ताव में आ गया, ‘‘सरस्वती को धकियाकर ‘हंस’ को हथियाया कि नहीं?’’
उसे लगा कि अपने को यमदूत बताने वाला यह शख़्स सनक गया है जो बता रहा है कि ‘हंस’ अब सरस्वती का वाहन नहीं रहा। उसे अब पगले की बातों में मज़ा आने लगा। उसने मुस्कुराते हुए पूछा, ‘‘अच्छा, जनाब, आप मुझे ले जाने क्यों आए हैं?’’
‘‘क्योंकि आपके चोला छोड़ने का सही समय आ गया है,’’ दूत गंभीरतापूर्वक बोलने लगा, ‘‘अब आप खाने के लिए न जिएँ। आप लेखक हैं, मगर अब ठंठ हो चुके हैं। अब ख़ाक लिखेंगे आप! अब जो जिएँगे, तो सिर्फ़ न लिखने के कारण लिखते रहेंगे। इसलिए कह रहा हूँ कि झटपट ख़ाक का पैबंद हो जाएँ।’’
‘‘मगर मेरे मित्रों की सलाह है कि अभी मैं कहानियाँ लिखता रहूँ।’’
‘‘सलाह है उनके पास, मगर कहानी की समझ भी है क्या? ‘हंस’ मेरे क़ब्ज़े में आ गया है, तो कहानी की समझ क्या किसी और के क़ब्ज़े में चली गई? मेरी मानें, तो अब मर जाएँ।’’
‘‘मन नहीं हो रहा है कि इतनी जल्दी मर जाऊँ।’’
‘‘जल्दी कहाँ हुई। विलंब हो रहा है। मरने का मन तो बहुत पहले बना लेना था। मैं तो समझ रहा था कि आप तो तैयार बैठे हैं। मेरी चिट्ठी नहीं मिली थी क्या?’’
‘‘आपकी चिट्ठी? किसी यमदूत की चिट्ठी?’’
‘‘हाँ-हाँ, मैंने लिखा था न कि आपके द्वारा की गई दीपनाथ की हत्या की चारों तरफ़ जो प्रशंसा हो रही है, उससे निश्चय ही आप धर्मसंकट में पड़ गए होंगे, क्योंकि इससे अच्छी कहानी लिख सकने की क्षमता आपमें नहीं दिखाई देती।’’
‘‘अरे, ऐसा तो मुझे ‘हंस’ कथा मासिक के संपादक ने लिखा था।’’
‘‘तो मैं कौन हूँ? राजेंद्र यादव नहीं हूँ क्या? और अब तक किस ‘हंस’ की बातें कर रहा था?’’
‘‘महाप्रभु, आप!’’ उसने अपने दोनों हाथ जोड़ दिए।
वह सोच में पड़ गया। चमकलाल ने दुत्कार दिया था अपने प्रभु को कि वह धन नहीं त्यागेगा, तो क्या वह भी फटकार दे इस महाप्रभु को कि वह प्राण नहीं त्यागेगा? उसने कुछ गिड़गिड़ाते हुए कहा, ‘‘आप अपने निर्णय पर पुनर्विचार नहीं कर सकते, महाप्रभु? मेरे पास तो कहानियों के लिए कई संपादकों के...’’
‘‘चुप रहिए,’’ महाप्रभु बमक गए, ‘‘आपने कोई ऐरा-ग़ैरा समझ लिया है मुझे कि नत्थू-ख़ैरा की बात करने लगे! सौ संपादक मरे होंगे, तब कहीं जाकर अवतरित हुआ हूँ मैं। मुझे तो यह कमाल हासिल है कि लिफ़ाफ़ा देखकर बता दूँ कि रचना ‘हंस’ में छपने लायक़ है कि नहीं। अब तो मेरे साथ रहने से हरिनारायण जी (‘कथादेश’ पत्रिका के संपादक) भी ऐसे गुणी हो गए हैं कि सिर्फ़ लिफ़ाफ़ा फाड़ने की ज़हमत उठाते हैं और फिर पुलिंदे को निगाहों से तौलकर बता देते हैं कि रचना का क्या स्तर है; और अर्चना जी भी रचनाकार के दस्तख़त देखकर ही बताने लगी हैं कि रचना में कितना दम है। उन दोनों की भी यही राय है कि अब आप राम-शरण हो जाएँ।’’
‘‘वह तो ठीक है, श्रीमान्, मगर बात मरने की है, बहुत बड़ी बात।’’
‘‘बात लीख से लाख होने की थी; वह आप हो गए, अब क्या भस्मासुर होना चाह रहे हैं? मेरा कहा नहीं माना, तो कहीं के नहीं रहेंगे। मैं भी एक जिद्दी हूँ; ठान लूँ, तो कहानीकार की दुम भी नहीं कहलाएँगे आप। कोई अभागा ही मेरी बात नहीं मानेगा और आप कैसे अभागे हैं कि मैं आपको सुख की गंगा में नहलाने ले जा रहा हूँ, और आप दुख के दलदल में उतर जाने के लिए दंगमदंगा किए जा रहे हैं। सुन लीजिए जनाब, कि मरने का जो सुख मैं आपको देने जा रहा हूँ, वह हर किसी को नसीब नहीं होता।’’
‘‘मरने का सुख?’’
‘‘और नहीं तो क्या! मेरे पास आपको उठाने के लिए सिर्फ़ भैंसा ही नहीं है, आपको उड़ाने के लिए ‘हंस’ भी है। उस पर बैठकर उड़ेंगे, तो दुनिया देखेगी, टकटकी बाँधकर देखेगी। इस मंच पर आसीन होना बड़ी बात है; बहुत बड़ी बात, और आपकी बारी आई है—नटवर बन जाने की।’’
किसी मंच पर उतरने का ख़याल कभी नहीं उतरा था उसके मन में। कभी सोचा तक नहीं था कि अभिनेताओं की भीड़ में वह भी शरीक हो जाए, कि औरों की तरह वह भी मंच पर उछले-कूदे, नाचे-गाए, हँसे-रोए। उसे लगा था कि अगर उसने कभी ऐसा चाहा भी तो मंच पर खड़ा होकर वह अपने ऊपर पड़ने वाली असंख्य निगाहों को झेल नहीं पाएगा, भाग खड़ा होगा वहाँ से। उसने अपनी औक़ात आँक ली थी कि वह एक मूक दर्शक से अधिक कुछ भी नहीं हो सकता था। वह ख़ुफ़िया निगाहों से इस दुनिया को देखने लगा था और उसे आनंद आने लगा था अपने अकेलेपन में। वह गुनगुनाने लगा था—
देखता पलकें उठाकर
मौन मैं यह विश्व-मेला,
घूमता सुनसान पथ पर
मैं अकेला, मैं अकेला।
मगर उस लोक में एक ऐसा भी लोक था जहाँ वह बिलकुल अकेला नहीं था। अपने इस लोक में विचरते हुए उसे लगने लगा था कि न जाने कब से—शताब्दियों से, सहस्राब्दियों से—प्रकाशित रहा है वह :
हर बार
पालकी में बैठ
आती होगी वह यहाँ
और फिर उदास
वापस चली जाती होगी।
रवि-शशि ने हँसकर
अवश्य पूछा होगा उससे,
कंधे हमारे छिल गए हैं
ढोते-ढोते तुम्हारी पालकी।
बताओ तो सही,
तुम्हें मिलना किससे है?
और फिर उसने देखा कि उस पर निगाह पड़ते ही भित्तिचित्रा की अभिसारिका सुगबुगाई है—
रक्ताक्त हो उठे उसके अधर
और लाली छा गई कपोलों पर;
कर्ण-फूल मुस्कुरा उठे
और मुक्त हो गए नूपुरों में बँधे स्वर;
कनक-मेखला दीप्त हो उठी
और तोड़कर गहरी नींद
कसमसा उठे कंकण और भुजदंड।
भित्ति से बाहर कूद आई अभिसारिका
बावली हो गई—
‘‘जानती थी मैं;
किसी दिन आएगा
मेरा वसंत,
मेरा शरद,
मेरा ग्रीष्म।’’
उसके उस स्वप्न-लोक में लुका-छिपी शुरू हो गई। मानिनी मानकर बैठी थी, अपरिचित होने का ढोंग कर बैठी। जिससे सदियों तक प्रतीक्षा करवाई, उसे तो मनाना ही था उसके रूठ जाने पर।
वह नंदन-वन की ओर जाने लगा था—
गई थी मैं नंदन-वन
पुष्प-चयन करने,
और ढेर से कुसुम भरकर
अपने पुष्प-भाजन में
बैठ गई थी वहीं
गूँथने अपने लिए पुष्प-वेणी,
कि तभी मेरे कर्ण-मृदंग पर
हुआ एक आघात, ‘‘कविते! मैं...’’
समेटकर सारे कुसुम
मैं भाग गई एक ओर।
क्या तो नाम बताया था उसने!
वह मंदाकिनी के किनारे बैठ टकटकी बाँध देता था उस मानिनी पर—
स्वर्ण-तरी में बैठ
मैं छोड़ देती थी नौका
मंदाकिनी के मंद प्रवाह में;
गुनगुनाती थी
मिलन और बिछोह के गीत।
अचानक रजत उदकांत पर बैठा वह
पुकार उठता था, ‘‘मानिनी! मैं...’’
क्या तो नाम था उसका!
बादलों की क्रीड़ा में वह भी शरीक हो जाया करता था—
नगाड़े पर दे-दे थाप
जब क्रीड़ारत हो उठते
गगन में पयोधर,
तब खोलकर अपने पिच्छ
नाच उठते थे कलापी।
जब बाँध नहीं पाती थी मैं
अपने मन को,
तब बाँधकर अपने पाँवों में मंजीर
मैं चली जाती थी कवर-पुच्छों के बीच।
मेरा तो था निरभ्र आकाश,
पर तब भी अपने एक बादल को
ढूँढ़ते हुए
मैं जी भर नाचती थी।
और तभी
न जाने किधर से तो
टपक पड़ता था वह...वह...
क्या तो भला-सा नाम था उसका!
उसका भला-सा नाम था चन्द्रकिशोर, और वह किसी भुलावे में था कि स्वप्न-लोक तक धावा मारने लगा था, साहित्य-लोक में विचरने लगा था। वह होश में आने लगा जब उसने देखा कि उसका वह स्वप्न-लोक तो कहीं दूर निकल गया है, किसी शून्य में विलुप्त हो गया है। मोह टूट गया उसका जब उसने जाना कि उसके आने से किसी का शरद, किसी का वसंत नहीं आया था।
कहाँ है कोई नंदन-वन और उसमें पुष्प-वेणी गूँथती कोई कविता! न कोई मंदाकिनी है और न उसमें किसी मानिनी की स्वर्ण-तरी! यहाँ तो बस वही एक मेला है, जिसका मूक दर्शक बना हुआ है वह। यह तो धंधकधोरियों की दुनिया है। हर किसी ने एक दुकान खोल रखी है, देवों और देवांगनाओं तक ने, और हर दुकान पर कोई चमकलाल बैठा है।
पीड़ा की एक लहर उसके पूरे अस्तित्व को कँपा गई, कहाँ आ गया मैं, किधर फँस गया? वह आकुल-व्याकुल हो उठा, इस दुखग्राम में बड़ा कठिन है जीना। कैसे पार लगेगा, कैसे कटेगा अपना जीवन।
एक असमर्थ ने अपनी जीवन-यात्रा शुरू की थी।
और आज उस यात्रा के अंत पर जानने वालों ने पूछने वालों को बताया होगा, ‘‘एक असमर्थ की मौत हुई है; अभागा था।’’
साहित्य से डोर बचपन में ही बँध गई थी, पर एक गड्ढा; जिसे हर रोज भरना पड़ेगा, परेशान करने लगा था मुझे। इस परेशानी ने ही मुझे अर्थशास्त्र पढ़ने को मजबूर किया और साहित्य पढ़ने से रोक लिया।
विश्वविद्यालय से निकला, तो बंबई से जा लगा; मगर न तो बंबई रास आई और न बंबई की वह नौकरी, लगा कि यह तो साहित्य की डोर ही तोड़ देगी। साल नहीं गुज़रा कि पॉलिटेकनिक में अध्यापकी मिल गई। अब और कुछ नहीं चाहिए था मुझे, एक पेट का पुख़्ता इंतज़ाम हो गया था। अब तो अकेले घर में छकेला मारने का सुख मयस्सर था। साहित्य के कदंबों से झूले डाल दिए मैंने और पेंग मारने लगा।
उस दिन घर आया, तो अजीब मंज़र था। कमरा तो मेरा ही था, पर अभी सज्जित-सुवासित था और शय्या पर सजी-धजी कोई नवोढ़ा घूँघट काढ़कर बैठी थी। मैं हक्का-बक्का, यह क्या? मेरा वह स्वप्न-लोक समा गया मेरे कक्ष में? कौन है यह, मानिनी? किससे पूछूँ? कालिदास से? गेटे से? या...?
मैंने भाभी से पूछा, ‘‘भाभी, वह मेरे कमरे में कौन है?’’
भाभी ने हँसकर जवाब दिया था, ‘‘जो है, उसी से क्यों नहीं पूछ लेते?’’
मैंने हिम्मत जुटाई और सचमुच जाकर उससे पूछा, ‘‘आप कौन हैं?’’
चमककर खड़ी हो गई वह नवोढ़ा और घूँघट उठाकर लगभग चीख़ पड़ी, ‘‘हाय राम! मैं गायत्री चौधरी से गायत्री जायसवाल हो गई, और यह मरद पूछ रहा है कि मैं कौन हूँ! ज़रा आँखें मिलाकर तो बात कीजिए। बरात लेकर सहुरिया कोई और गया था? मेरे साथ फेरे किसी और ने लगाए थे? मेरा गठबंधन किसी और के साथ हुआ था? अब यह मैं बताऊँ कि मैं कौन हूँ?’’
माना कि भुलक्कड़ था, मगर यह क्या भूलना कि अपना ब्याह तक भूल गया! शायद निर्णय ही इतना अटल था कि उसके उलट जाने की बात कभी मन में लाई नहीं जा सकती थी। बहुत बाद तक रह-रहकर हूक उठती थी, क्या सचमुच मेरा ब्याह हो गया? मगर यह हेराफेरी हो कैसे गई? किसने साज़िश की मेरे विरुद्ध?
भुलक्कड़ था, तो यह साज़िश भी जल्दी ही भूल गया, मगर गायत्री... शायद...
शायद उस साजिश को बहुत दिनों तक भुला नहीं पाई होगी जो उसके विरुद्ध की गई थी। कभी मैंने कहा था, ‘‘गायत्री, सिर्फ़ उन्हें मत देखो जो महलों में रहते हैं और हिंडोलों में झूलते हैं; उन्हें भी देखो जो चिथड़े पहनते हैं और घास-पात खाते हैं।’’
तब उसने बिफरकर जवाब दिया था, ‘‘क्यों देखूँ मैं यह सब? आपने देखा था कि जिसका हाथ पकड़ रहे हैं, वह अपने घर में क्या खाती थी, क्या पहनती थी?’’
कभी-कभी वह बहुत शांत लहजे में मुस्कुराकर कहती, ‘‘ऐसा भी आदमी हो सकता है, जिसे कोई शौक़ ही नहीं हो! यह कैसा साहित्य कि आदमी का हर शौक़ छीन ले!’’
और आज मुझे भी बड़ा अटपटा लग रहा है कि भित्तिचित्रों की वामाओं को तो कंकण और भुजदंड पहनाता रहा और अपनी वामांगी के लिए कभी एक तार गहना नहीं लाया, एक अच्छी-सी साड़ी नहीं लाई! मगर उसने मेरे सारे अपराध क्षमा कर दिए थे। मुझे लड़बावरा मान लिया और अपनी झोंक में बह जाने दिया मुझे। जो जब-तब अपनी टेर अनसुनी होते देख अपनी पूरी धमक-चमक के साथ मेरे सामने आ खड़ी हुआ करती और मेरा लिखना-पढ़ना रोककर अपने ताने-तिश्ने से मुझे बींध दिया करती, उसी ने, जब मेरे लिखे दो पन्ने कोई समीक्षक चूहा कुतरने के लिए चुपके से उठा ले गया, तब घर के सारे चूहों पर आफ़त ला दी थी। मगर, हाँ, हर वक़्त गँवर मसलों में बात करने वाली गायत्री, मेरा जी जलाने के लिए नहीं, अपना मन बहलाने के लिए मेरी बेढंगी चाल पर यह सुनाने से बाज़ नहीं आती थी—
छौड़ी छिनार छौड़ी गस्ता
कहाँ बजार कहाँ रस्ता।
हमारे ही महल्ले की एक औरत गायत्री के पास अपना दुखड़ा सुनाते हुए चार-चार बच्चों का बोझ उसके ऊपर डालकर मर गए अपने पति को ग़ुस्से में गालियाँ बकने लगती थी। गायत्री को भी ग़ुस्सा आया होगा मेरी मौत पर कि कहा कुछ था और कर बैठा कुछ और, मगर उसने अवश्य बच्चों से कहा होगा, ‘‘अपने आँसू पोंछ लो; उनसे किसी का रोना देखा नहीं जाता था।’’
अपने आँसू पोंछकर प्रियंवद ने अपनी माँ को सुनाया होगा, ‘‘वह दुखी थे; माँ, न जाने किन-किन लोगों के दुख से दुखी थे! मैंने उन्हें अपनी ही कहानियों को पढ़कर सुबक उठते देखा है। उनकी अभी जीने की इच्छा थी, ख़ूब-ख़ूब लिखने की इच्छा थी, मगर शायद अपने दुख को सँभाल नहीं पाए वे। मैं रोऊँगा; माँ, मैं उनका कोई दुख बाँट नहीं सका।’’
मेरे दुख की कितना चिंता थी उसे! ‘मैं नहिं माखन खायो’ (कहानी) में उसी ने मेले में दिन भर भूखा-प्यासा रहकर और पास के सारे पैसे लगाकर पापा के हाथ में थमा देने के लिए एक सुंदर-सी बेंत की छड़ी ख़रीदी थी और मंदिर में ईश्वर से प्रार्थना की थी, ‘‘हे भगवान, मुझे बुद्धि दो। मैं बहुत बदमाशी करता हूँ और अपने पापा को बहुत दुख देता हूँ।’’
अपने लिए उसने कभी कोई प्रार्थना नहीं की थी, कहीं नहीं बुदबुदाया था, ‘‘हे ईश्वर, मेरे पापा को बुद्धि दो; वे मेरे लिए कुछ नहीं कर रहे हैं।’’
अपने अपराधी पिता को उसने कुछ और ही सुनाया था, ‘‘पापा, ईश्वर की बड़ी नेक निगाह है हम पर। आप साहित्यकार हो गए, मगर हम कंगाल नहीं हुए हैं।’’
बड़बोला सत्यंवद बिल्कुल वाग्बद्ध हो गया होगा और उसे लग रहा होगा कि उसकी अकड़, अक्खड़पन, हिम्मत, ताक़त, सब ग़ुम होता जा रहा है। पापा ही तो वह ज़मीन थे जिस पर पैर टिकाकर खिलंदड़ बना हुआ मैं उछल-कूद कर रहा था, ऐसा सोचने लगा होगा वह, और वह बार-बार अपनी माँ से पूछने-पूछने को हो जाता होगा, ‘‘गे माँ, बाप के मरने पर बेटा सचमुच अनाथ हो जाता है क्या?’’
जहाँ औरतों का रोज़ कुछ-न-कुछ मरता है, जहाँ बेटियाँ हर घड़ी मातम मनाने के लिए तैयार बैठी रहती हैं, जहाँ बच्चियाँ उम्र के आने से पहले समझ ले आती हैं, वहाँ मेरी नन्ही सुप्रिया को डर लग रहा है! कहीं सुन तो नहीं रखा है कि जब कुँवारी बेटी नहीं मरती, तब कमज़ोर बाप मर जाता है। मुझे डर लग रहा है, कहीं वह अकेले में मेरे चित्रा के सामने खड़ी होकर बुदबुदा न पड़े, ‘‘पुरखों को तारने के लिए मैं भी मर सकती थी; पापा, आपके लिए नहीं मर सकती थी क्या? मगर आपके लाड़-दुलार ने रोक रखा था मुझे।’’
क्या हाल हुआ होगा भैया का? बिल्कुल वही जो ‘टेढ़े गाछ की छाया’ (कहानी) के भागवत राय का हुआ था। घर से रूठकर निकल गए भागवत राय अपने एक मित्र के घर रहकर अपना जीव-श्राद्ध कर रहे थे कि तभी उन तक ख़बर पहुँची कि उनका इकलौता रामानंद घर छोड़कर जा रहा है और शायद अब लौटकर कभी नहीं आएगा। बगटुट घोड़े की तरह दौड़कर उन्होंने बेटे को पकड़ा और उसके सामने खड़े होकर फट पड़े, ‘‘क्यों रे, तुम अभी भी मुझे तंग करने से बाज़ नहीं आओगे? बाल-बच्चों को किसके भरोसे छोड़कर जा रहे हो? ...तुम चाहते हो कि मैं तुम्हारे बाल-बच्चों को यहाँ बेलाला होते देखूँ? इस बुढ़ापे में तुम्हारी खेती-बाड़ी सँभालूँ? ...तुरंत लौटो, नहीं तो अभी मैं पोखर में डूबकर जान दे दूँगा।’’
दिवंगता भाभी-भैया के सपनों में आने लगी होंगी, ‘‘मैं तो हर किसी को यही बताती थी कि मेरे चार बेटे हैं। क्या होगा अब बबलू-टिंकू का? मैंने तो उन दोनों बेटों को भी आशीष दिए थे। मेरे आशीष नहीं फलेंगे क्या?’’
भैया ने अपने बच्चों को बुलाकर कहा होगा, ‘‘मैं बंबई छोड़ रहा हूँ, मेरा एक घर उजड़ने को है।’’
मेरा एक घर और था, श्री श्रीपत राय का घर।
‘कहानी’ बंद होने तक पिछले दो वर्षों में मेरी पाँच कहानियाँ उसमें प्रकाशित हो चुकी थीं। ‘कहानी’ बंद होने के दो-तीन महीने के बाद संपादक का एक पत्र आया था, जिसमें उन्होंने लिखा था कि ‘कहानी’ बंद हो गई है, मगर मेरी रचनाओं में उनकी रुचि है और मैं जो कुछ लिखूँ उसे उनके पास अवश्य भेजूँ। तब मेरी रचनाएँ ही नहीं, मैं भी पहुँचने लगा था उनके पास। श्रीपत जी ने अपने घर में मुझे अपना घर बना लेने दिया।
उन्होंने मेरे लेखन में गहरी रुचि ले ली। उनका पत्र आया था, ‘‘तुम्हें मैं तुम्हारे असली रूप में ही देखना चाहता हूँ, बिशनपुर गाँव का चन्द्रकिशोर। वहीं लेखन की संभावनाएँ हैं या वहीं वह प्राण हैं, जहाँ से लेखन फूटता है।’’
शुरू-शुरू में ही उन्होंने मुझे सावधान कर दिया था कि अगर लेखन-कर्म से जुड़े रहना है, तो अभी ही अच्छी तरह से प्राणायाम कर लूँ। वह मेरी रचनाएँ पढ़ते और गुण-दोष लिख भेजते, ‘‘उपन्यास मिलते ही पढ़ गया था। फिर दुबारा पढ़ा। बहुत सुंदर लेखन है। उसका दोष यही है कि बहुत अच्छा है और आज के परिवेश में उसे समझने वाले बहुत थोड़े होंगे। यह तुम्हारी नियति है। ...अब उसका दोष बताऊँ। उसकी भाषा में बिहारी प्रयोग बहुत है।’’
वह मेरी प्रेरणा बन चुके थे, ‘‘तुम्हारी रचनाशीलता के लिए प्रार्थना करता हूँ। जो मैंने खोया है, वह तुममें पाना चाहता हूँ। यही नियम है न? मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।’’
उनका प्रश्रय और प्रोत्साहन नहीं मिला रहता, तो शायद ‘चिरंजीव’, आठ सौ पृष्ठों का मोटा उपन्यास, नहीं लिखा जाता, ‘‘तुम निर्द्वंद्व होकर लिखते चलो। उपन्यास पर पूरे प्राण लगा दो।’’
उन्होंने मेरे सारे संकोच दूर कर दिए थे, ‘‘दिल्ली जितनी बार आ सको, मेरे लिए वह वरदान होगा। मैं धन-धान्य से पूर्ण, पर तृषित पिता हूँ। उनको मरण से बचाने का दायित्व तुम पर छोड़ता हूँ। जब मैं इतना निर्वसन हो सकता हूँ, तो तुम्हें लाज किस बात की?’’
उनका स्नेह और वात्सल्य मेरा पोर-पोर भिगो चुका था। एक पत्र में लिखा था उन्होंने, ‘‘जितना भी समय मेरे साथ रह सको, रह लो। ...जितना धन ख़र्च करना चाहो, सहर्ष करो। मुझे उपकृत करो।’’
एक बार किसी उदासी और परेशानी में एक पत्र लिख डाला था मैंने उन्हें। उनका जवाब आया था, ‘‘मैं बहुत उद्विग्न हूँ कि तुम्हारी चिंताओं में किस प्रकार कमी लाऊँ। तुमने कभी इस प्रकार का कातर पत्र नहीं लिखा और इसी वजह से मेरी चिंता शतगुण बढ़ गई है। सरल व्यक्ति के लिए जीवन सदैव ही विषमय रहा है। तुम अपवाद कैसे होते? मेरे रहते तुम्हें कोई परेशानी हो, यह मेरे प्रति तुम्हारा घोरतम अन्याय है। ...बहू और पौत्रों से कहना कि बिन देखे ही मैं उनका दास बन चुका हूँ। वात्सल्य व्यक्ति को दास ही तो बनाता है।’’
बबलू-टिंकू उनके दर्शन कर आए थे, पर राम जाने, सुप्रिया अब कभी उन्हें देख पाएगी या नहीं। उन्होंने लिखा था, ‘‘सुप्रिया को देखने की बड़ी इच्छा है। पर वह पूरी होगी भी या नहीं, सो तो राम जानें।’’
जिस बूढ़े ने मुझे इतने आशीष दिए थे, जिसने मेरे लिए प्रार्थनाएँ तक की थीं, जो बूढ़ा मेरे लिए चिरंजीव के उस बूढ़े की तरह था जिसकी गोद में हर रोता हुआ बच्चा चुप हो जाया करता था, और जिसने लिखा था कि ‘‘चिंता तुम्हारी है। मैं तो अब जीवन से विदा ले रहा हूँ,’’ उस बूढ़े से कोई यह न कहे कि चन्द्रकिशोर अब नहीं रहा; कहे तो बस यह कहे कि क्यों तो हर किसी से रूठा हुआ है, वह और अब किसी को ख़त नहीं लिखता।
बहुत सच नहीं था बहुतों का यह कहना कि मैं एकांतप्रिय था, कि मैं समागम से कतराता था। मैं कभी अकेला रहा होऊँ, ऐसा तो कभी लगा ही नहीं मुझे। मेरे एकांत में हर वक़्त मेरी किसी कहानी का कोई-न-कोई पात्र मेरे साथ हुआ करता था, जिसके साथ मैं दुख-सुख बतियाता था, हँसता था, रोता था। इसी निरापद एकांत में मैं ‘हिंगवा घाट में पानी रे!’ की सोनापुरवाली के साथ बतरस लुटता था, ‘‘घेघू का नकबेसर रख लो, रनिया,’’ रनिया की मनुहार करता था।
मेरे इस एकांत में धर्मवीर भारती भी आए थे और राजेंद्र यादव भी, मगर संकोच ने इस क़दर धर रखा था मुझे कि भारती जी से कभी मिल नहीं पाया और यादव जी से बहुत देर से मिला। ‘धर्मयुग’ में ‘नकबेसर कागा ले भागा’ छपी थी और तुरंत बाद ही मुझे भैया के पास बंबई जाना पड़ गया था। भारती जी से मिलने का समय मिल जाने पर भी मैं बिना मिले चला आया था। मन में यह खटका पड़ गया कि कहीं संपादक वाग्बाण न छोड़ बैठे, ‘‘आ गए एक कहानी लिखकर बटुआ में बंबई भरने!’’
‘हंस’ में ‘हिंगवा घाट में पानी रे!’ छपी थी और उसके बाद कई बार दिल्ली जाना हुआ था, पर ‘हंस’ के संपादक से मिलने का मन बना नहीं पाया। कोई एढ़ो मियाँ तो राजेंद्र जी डेढ़ो मियाँ, यह सब सुना था। डर लग गया कि वह यह और इस तरह सुनाने से बाज़ नहीं आएँगे, ‘‘यह लो! आ गए आपने क्या नाम बताया? हाँ, चन्द्रकिशोर जी। एक कहानी ‘हंस’ में छपवाकर दिल्ली हिलाने आ गए! डेढ़ गो बोझ दीयर में खलिहान!’’
विद्वानों की समज्या में शरीक होने से मैं अपने को इसलिए बचा लेता था कि मैं शास्त्रार्थ-महारथियों के समक्ष अपने को अत्यंत ज्ञानदुर्बल पाता था। चाहा तो मैंने भी था कि ख़ूब पढ़ूँ, ज्ञानार्जन करूँ, मगर शून्य से आगे नहीं बढ़ सका, छूँछा का छूँछा ही रहा। यह ज़रूरी था कि मैं अपने को उघार होने से बचाता रहूँ। और तब चुप्पी मेरी ढाल बन गई, बनी रही।
यह चुप्पी मेरे साथ ऐसी चिपकी कि जहाँ कुछ बोला जा सकता था, वहाँ भी चुप रहने लगा मैं। मगर मैंने देखा था कि बार-बार इससे मेरी रक्षा ही हुई थी। कोई ज्ञान की बात नहीं शुरू की थी—‘हंस’ के संपादक ने, जब पहली मुलाक़ात में ही वह पूछ बैठे थे, ‘‘कभी प्रेम का चक्कर चला है या नहीं, चन्द्रकिशोर जी,’’ मगर मैं मुसकुराकर चुप रह गया था। कोई बक्की रहता, तो सब कुछ बक देता। जिस किसी को सुनाया, वह पूरी बात सुनने के पहले ही पूछ बैठा, ‘‘आपने कुछ बताया तो नहीं?’’ और फिर मेरे भाग्य को सराहा, ‘‘बच गए, बाल-बाल बच गए।’’ और तब उन्होंने एक अभागे का क़िस्सा सुनाया था।
वह अभागा भारी बक्की था, और जिसे बक-बक करने की बान पड़ी हुई है। उसे यह होश कहाँ कि पेट की कितनी बात निकालें और कितनी पेट में ही पड़ी रहने दे! बक्की किसी सयाने से मिलने गया, एक कथाकार और दूसरा संपादक। बक्की बोला, ‘‘मान्यवर, मेरी हर उत्कृष्ट कहानी को आप आज तक निकृष्ट मानकर लौटाते रहे हैं; आज मैं जो कहानी लेकर आया हूँ, हो वह निकृष्ट आपकी नज़र में, मगर आप उसे उत्कृष्ट मान लें, यह प्रार्थना कर रहा हूँ।’’
सयाने ने मुँह चमकाया, ‘‘निकृष्ट को उत्कृष्ट मान लूँ?’’
‘‘हाँ, मान्यवर, मान लें, महिला लेखन के नाम पर मान लें।’’
सयाने संपादक ने बक्की कथाकार को ख़ूब ठीक से निहारा और फिर अपनी शंका ज़ाहिर की, ‘‘आप महिला हैं?’’
‘‘नहीं-नहीं, यह कहानी मेरी नहीं,’’ बक्की बोला, ‘‘मेरी प्रेमिका की है।’’
‘‘किस चक्कर में जा फँसे आप!’’ संपादक ने मुँह बिचकाते हुए कहा।
‘‘इसे कोई चक्कर न कहें, मान्यवर,’’ बक्की बोला, ‘‘आपकी अस्वीकृतियों ने अधमरा कर दिया मुझे; इस हंसगद्गदा का प्रेम ही संजीवनी बना हुआ है मेरे लिए। और उसने यह शर्त रख दी है कि अब जब तक मैं उसकी कहानी आपके कथा-मासिक में छपवा नहीं देता हूँ, तब तक वह मेरे साथ प्रेम के झूले में नहीं झूलेगी।’’
‘‘बड़ी कठिन शर्त है।’’
‘‘हाँ, मान्यवर, और सवाल जीवन-मरण का है।’’
‘‘ठीक है, मैं देखूँगा।’’
‘‘आप मुझे वचन दें; मान्यवर, मैं वचन देता हूँ कि अब कभी अपनी कहानी आपके पास नहीं भेजूँगा।’’
‘‘ठीक है, देता हूँ वचन, कहानी छपेगी, ज़रूर छपेगी।’’
लौटकर आने के बाद प्रेमिका के साथ तीसरी मुलाक़ात में प्रेमी ने फिर सुनाया, ‘‘कहानी छपेगी, ज़रूर छपेगी।’’
‘‘अब तुम उसकी चिंता छोड़ दो,’’ प्रेमिका ने कुछ उखड़ी उखड़ी-सी बात की।
प्रेमी ने फिर दिलासा दिलाया, ‘‘तुम उदास मत हो, मैं वचन लेकर आया हूँ। मैं फिर जाऊँगा, सौ बार जाऊँगा और याद दिलाऊँगा उन्हें दिए हुए वचन की।’’
‘‘अब एक बार भी जाने की ज़रूरत नहीं है।’’
‘‘तुम हताश की तरह बातें मत करो। कहानी छपकर रहेगी। अभी तो सिर्फ़ बाएँ हाथ का खेल दिखाया है, कभी दाएँ हाथ का खेल भी देखना। स्वर्ग तक सीढ़ी लगा दूँगा मैं तुम्हारे लिए।’’
‘‘स्वर्ग मुझे मिल गया है, संपादक ने स्वीकृति भेज दी है।’’
‘‘सच!’’ आह्लादित हो उठा प्रेमी, ‘‘मेरा सपना सच हो गया, अब तुम मेरी हो गई।’’
‘‘ऐसा न कहो,’’ प्रेमिका ने सिर झुका लिया, ‘‘अब तुम मेरी ज़िंदगी से दूर हो जाओ।’’
‘‘दूर हो जाऊँ?’’ अकबका गया प्रेमी, ‘‘यह क्या बक रही हो तुम?’’
‘‘इसे पढ़ लो,’’ अंगिया के भीतर से संपादक का पत्र निकालकर प्रेमी को देते हुए प्रेमिका बोली, ‘‘और मेरा पिंड छोड़ दो।’’
प्रेमी ने जल्दी-जल्दी पत्र पढ़ा, ‘‘...कहानी छपेगी, ज़रूर छपेगी, सिर्फ़ यही नहीं, वे सबकी सब जो अभी आप लिख रही होंगी या भविष्य में लिखेंगी। मगर शर्त यह है कि जिस झूले पर अभी आपने किसी ओछे को बिठा रखा है; उस पर अब वह ओछा नहीं बैठेगा, मैं बैठूँगा।’’
प्रेमी के आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा था। उसने ज़ोर से आँखें मीचीं और फिर खोलकर देखा कि संपादक के दस्तख़त जाली तो नहीं हैं। नहीं, दस्तख़त जाली नहीं थे; एक-एक अक्षर को पहचाना उसने, सब असली, ‘‘रा...जे...’’
कुछ शुभेच्छुओं को इस बात पर तरस आ गया कि मैं धुर देहाती था, कि मुझमें गोटी न बिठाने का देहातीपन था।
महानगरों की ख़ाक भी तो उड़ाई थी मैंने; शहरों तक धावा मारता रहा था, पिछले तीस बरसों से किसी देहात में नहीं रह रहा था, शहरातियों से साबिका पड़ता रहा था मेरा, तब भी क्या मैं देहाती ही रह गया, धुर देहाती? शायद, हाँ। न जाने कब तो मैंने अपना वह सफ़र शुरू किया था जिसने मुझे बहुत दूर पहुँचा दिया, शहर से दूर, समय से दूर, एक ऐसी जगह जो धुर देहात है और जहाँ पहुँचने वाला फिर वापस नहीं लौटता किसी शहर की ओर शहराती बनने। कितना अच्छा लगा था उस ठौर पर ठहर जाना जहाँ किसी के आगे सिर झुकाने की ज़रूरत नहीं थी, ईश्वर के आगे भी नहीं!
जिस रचनाकार के पास गोटिया चाल चलने वाले एक-से-एक पात्र मौजूद हों, वही रचनाकार गोटी बिठाने की कला में भोंदू निकल जाए! मैंने अपने कितने ही पात्रों से जब-तब हँसते हुए पूछा था, ‘‘तुम्हें कुछ आता भी है क्या?’’ और तब कितनों ने ही जवाब दिया था, ‘‘ब्योंत बैठाने में कोई क्या बराबरी करेगा मेरी, मगर साहित्य में गोटी बिठाने का गुर कभी सीख नहीं पाया; किससे सीखता, कालिदास से? ...सूरदास से? ...तुलसीदास से?’’ विदा होने से पहले क्या अपने उन पात्रों से कह देना था, ‘‘मुझसे सीख लो कुछ कुछ। गोटी बिठाने का गुर कुछ कुछ तो मैंने सीख ही लिया था कि कभी भारती जी को फँसाया, कभी श्रीपत जी को, हाल-हाल तक राजेंद्र जी को, और अभी तक फँसाकर रखे हुआ हूँ—उन असंख्य पाठकों को जो अभी भी ढूँढ़े जा रहे हैं घेघू के फेंके नकबेसर और अब तक कुँवारी बैठी रनिया को?
जिस कला में निपुण होने का संकेत किया था शुभेच्छुओं ने, उस कला को सीख पाना शायद संभव नहीं था मेरे लिए। कभी श्रीपत जी ने हँसते हुए कहा था, ‘‘कहो तो कोई गोष्ठी करवाऊँ तुम्हारी रचना पर; बस, सौ-दो सौ रुपए का टोटा पड़ेगा।’’ मैं मुस्कुराकर चुप रह गया था। एक क़िस्सा याद आ गया था जिसे कभी शुभेच्छुओं ने ही सुनाया था।
बाँसों उछलता एक कथाकार अपने मित्र के पास पहुँचा और नाचते हुए अपनी ख़ुशी ज़ाहिर की, ‘‘अब तो मेरी गोटी लाल है, मीत।’’
बग़ैर कुछ जाने मीत ने अपनी प्रसन्नता जताई और फिर पूछा, ‘‘हुआ क्या है?’’
‘‘महंत जी ने साहित्य में स्थापित कर दिया मुझे मेरी कहानियों की समीक्षा लिखकर,’’ स्थिर होकर कथाकार बोला।
‘‘सच?’’
‘‘हाँ, मीत, बिल्कुल सच। आज मैं बहुत ख़ुश हूँ, बहुत-बहुत ख़ुश हूँ। मैं तो बुझने जा रहा था, उबार लिया महंत जी ने, क़िस्मत ही पलट दी।’’
‘‘यह सब हुआ कैसे, भाई?’’
‘‘एक साईस को डंडा मारने से।’’
‘‘साईस को?’’
‘‘अब साईस न कहो, साहित्यकार ही कह लो उसे, मगर, जैसा कि महंत जी ने मुझे बताया, बीस बरसों तक वह किसी राजा साहब के घुड़साल में साईस का पद सँभालता रहा था।’’
‘‘उससे महंत जी की दुश्मनी है क्या?’’
‘‘भारी दुश्मनी। साईसी छोड़कर अब वह शख़्स साहित्य में घुस आया है और हमारे महंत जी को ही पछाड़ने की कोशिश कर रहा है। अब देखो कि आज से पंद्रहवें दिन कोई साहित्य सम्मेलन होने जा रहा है। तय था कि महंत जी उसकी अध्यक्षता करेंगे। मगर इस साईस ने कुछ राजनेताओं की पैरवी के बल पर महंत जी का नाम कटवा दिया और अपने लिए आसन पक्का कर लिया। मैंने डंडा जमाकर महंत जी का रास्ता साफ़ कर दिया। अब करे वह साईस अध्यक्षता। तबियत सुधरते महीना लग जाएगा। दो-चार दिनों तक तो कराहता ही रहेगा दर्द से।’’
‘‘तुम्हें महंत जी के इस दुश्मन की ख़बर कैसे मिल गई?’’
‘‘ख़ुद महंत जी ने बताया और, ख़ुदा का लाख़-लाख़ शुक्र, उसे डंडा मारने का काम मुझे सौंपा।’’
‘‘भागवंत हो तुम कि डंडा चलाकर साहित्य में स्थापित हो गए। समीक्षा में क्या-क्या लिखा है उन्होंने?’’
‘‘ख़ाक लिखा उन्होंने! लिखा तो सब कुछ मैंने। उन्होंने तो बस एक नमूना दिया और कहा कि इसे भरकर ले आओ। मैंने भर दिया, इतना तक भर दिया कि अब मैं अग्रणी कथाकार हूँ।’’
‘‘तुम्हारा लिखा उन्होंने पढ़ा?’’
‘‘हाँ, पढ़ा और अपनी एक पत्रिका में छपने को भेज भी दिया।’’
‘‘तब ज़रूर तुम्हारी कहानियों ने महंत जी को प्रभावित किया होगा।’’
‘‘कहानियों में दम तो ज़रूर है, मगर महंत जी ने अभी तक पढ़ी नहीं हैं मेरी कहानियाँ।’’
‘‘नहीं पढ़ी हैं?’’ अचरज से पूछा मित्र ने।
‘‘कहानी-संग्रह की जो प्रति मैं उन्हें दे आया था, वह कहीं इधर-उधर हो गई थी। कहानियाँ पढ़ नहीं पाए वह।’’
‘‘दूसरी प्रति दे आते। माँगी तो होगी उन्होंने?’’
‘‘उन्होंने तो नहीं माँगी। मैं ही बोला कि दूसरी प्रति ले आता हूँ, मगर उन्होंने कहा कि समीक्षा छप जाने दो, कहानियाँ कभी बाद में पढ़ लूँगा।’’
मित्र धीरे-धीरे उदास होने लगा था। कुछ देर की ख़ामोशी के बाद वह बोला, ‘‘मेरा कुछ भला नहीं हो सकता है?’’
‘‘बोलो, क्या चाहते हो?’’
‘‘मैं भी कुछ लिखकर स्थापित होना चाहता हूँ। मैं किसी को भी दोहत्थड़ डंडा लगाने को तैयार हूँ। महंत जी से पूछो एक और दुश्मन का नाम।’’
‘‘तुरंत चाहते हो स्थापित होना?’’
‘‘जितनी जल्दी हो सके। क्या उम्र है महंत जी की?’’
‘‘क्या करोगे जानकर? मानकर यह चलो कि तीसरे-चौथे दिन मर जाएँगे। अब मेरी सुनो, कुछ लिखने के पहले झटपट एक लेख लिखो।’’
‘‘लिख दूँगा, झटपट लिख दूँगा। गाय पर लिखूँ?’’
‘‘गाय पर नहीं, महंत जी पर लिखो। उन्होंने मुझे भी लिखने को कहा है। उनके दुश्मन उन्हें टुच्चा साबित करने की जी-जान से कोशिश कर रहे हैं और अपनी पत्रिकाओं में उनके विरुद्ध लेख लिखवा रहे हैं। इससे उनका जो भी नुक़सान हो, मगर उनका सोचना बिल्कुल सही है कि अधिक नुक़सान उन लेखकों का हो जाएगा जो उनकी छत्रा-छाया में पल-पुस रहे हैं।’’
‘‘महंत जी पर क्या लिखूँ? मैं तो कुछ जानता नहीं।’’
‘‘एक नमूना मैं दे देता हूँ। वल्द, साकिन, मौजा, वग़ैरा-वग़ैरा कल चलकर उनसे पूछ आएँगे।’’
‘‘मैं लिखूँगा। तुम उसे देखकर ठीक कर देना।’’
‘‘देख लेंगे महंत जी भी, नोक-पलक ठीक कर देंगे और अपने क़ब्ज़े की किसी पत्रिका में छपने के लिए भेज भी देंगे। अभी उन्हें बता भर देना है कि तुम क्या कुछ लिख रहे हो या लिखने को सोच रहे हो। फिर तो उन्हें चैन नहीं होगा जब तक तुम्हें साहित्य में स्थापित नहीं कर देते।’’
‘‘ऐसा होगा?’’
‘‘होगा; ज़रूर होगा, ऐसा होता आया है, मीत।’’
मैंने तो कभी ईश्वर से भी प्रार्थना नहीं की कि मुझे वहीं पहुँचा दो जहाँ दौलत की गोटी है, शोहरत की गोटी है। ईश्वर कुछ देते, दे पाते तो क्या, उल्टे विद्रूप भरी हँसी हँस पड़ते, ‘‘कुछ माँगने आए हो? मगर तुम तो ऐसे नहीं थे!’’ मुझे तो लगता है कि मैं वहाँ भी भीड़ से अलग होकर एक किनारे खड़ा हो गया होता, जहाँ पीछे से कोई मौत आ रही होती और सबके सब धक्कमधक्का करते भाग रहे होते। प्राण बचा लूँ, इसके लिए शायद मैं नहीं दौड़ पड़ता; प्राण बचा दो, यह कहने निश्चय ही ईश्वर के पास नहीं गया होता। कुटिल मुस्कान ईश्वर के होंठों पर उतर आती, ‘‘तुम भी आ गए? ख़ूब आए, ख़ूब आए तुम! बात बताई दिल्ली की, पर पूँछ दिखाई बिल्ली की!’’ वह अवश्य ठहाकों में उतर आता। उसने तो सिर्फ़ हँसना ही तो सीखा है।
तो क्या ईश्वर से माँगने के लिए कुछ भी नहीं था मेरे पास? बहुत आत्मतृप्त था मैं, परिपूर्ण? नहीं, ऐसा नहीं था। मैं बहुत व्याकुल था, जीवन भर व्यथित-बेचैन रहा। तुलसीदास की बेचैनी व्याप गई थी मुझमें—
डासत ही गइ बीति निसा सब
कबहुँ न नाथ नींद भरि सोयो।
कब सोया मैं, कब नींद भर सोया?
मगर मेरी पीड़ा उस रचनाकार की पीड़ा नहीं थी जो साहित्य की ज़मीन पर पैर ज़माने के लिए छटपटाता है, जिसे गुम हो जाने का ग़म गलाता है, और जो जल्दी ही कुछ नहीं पाकर इस क़दर अधीर-उदास होता है कि असमय ही कुंठित-कुंद हो जाता है। उसे सुनाने के लिए मेरे पास क़िस्से हैं उन कालिदारों के जिन्हें काल उनके शैशव में ही अपना ग्रास बना लेता है, जिनकी रचनाएँ किसी विपर्यय में विलुप्त हो जाती हैं, जो अपने एकांत में मुस्कुराते हुए बुदबुदा पड़ते हैं, ‘‘संपादक मेरे ठेंगे से! समीक्षक मेरे ठेंगे से!’’ और जो अपनी रचनाओं के रस से अपने को तरबतर रखते हुए ज़िंदगी गुज़ारते हैं और विदा के वक़्त अपनी सारी पोथियाँ समेट अपने साथ लिए चले जाते हैं, ‘‘ऋद्धि मेरे ठेंगे से, सिद्धि मेरे ठेंगे से।’’ मगर वह तो अपना क़िस्सा सुनाने हर किसी का दरवाज़ा खटखटाता है। ऐसा नहीं होता क्या?
संपादक के कार्यालय में घुसते ही व्यथित कथाकार उनके सामने आ टपका और इससे पहले कि कोई और आ धमके और उसका दुखड़ा सुनकर उस पर तरस खाए, उसने झटपट अपना परिचय देते हुए अपनी बात शुरू कर दी, ‘‘मान्यवर, मैं यह जानने आया हूँ कि किसी ने मेरे बारे में आपको कोई ग़लत ख़बर तो नहीं दी है?’’
‘‘कैसी ख़बर?’’
‘‘कि मैं आपके ख़ेमे में न होकर किसी और के ख़ेमे में हूँ?’’
‘‘मेरा तो कोई ख़ेमा नहीं है, और मैं यह नहीं देखता कि मेरी पत्रिका में छपने वाला किस ख़ेमे का है।’’
‘‘तो फिर क्या कारण है कि मेरी हर कहानी अस्वीकृत होकर लौट जाती है?’’
‘‘कारण का आपको नहीं पता?’’
‘‘है, पता है, मगर यह कारण बताना तो नहीं, कुछ लिखकर लौटा देना हुआ।’’
‘‘यह कैसे सोच लिया आपने?’’
‘‘कैसे नहीं सोचूँ? मेरी एक कहानी आपको मोपासाँ की किसी कहानी की भोंड़ी नक़ल-सी लगी, जबकि सच यह है कि मैंने आज तक मोपासाँ की कोई कहानी पढ़ी ही नहीं है।’’
‘‘मुझे लगी थी, भाई।’’
‘‘ठीक है, लगी थी, मगर मेरी एक दूसरी कहानी चेख़व की कहानी की नक़ल कैसे हो गई? मैंने ऐसे लोगों को ढूँढ़-ढूँढ़कर अपनी कहानी सुनाई; जिन्होंने चेख़व को ख़ूब अच्छी तरह पढ़ा था, मगर उनमें से किसी एक ने भी तो ऐसा नहीं कहा।’’
‘‘मुझे तो आपकी कहानी पढ़ते हुए चेख़व की याद आ गई थी।’’
‘‘ऐसा क्यों हो रहा है, मान्यवर, कि मेरी कहानियाँ पढ़ते वक़्त ही आपको ससुरे सब याद आ जाते हैं? मोपासाँ और चेख़व याद आ गए, यह तो ठीक, मगर यह क्या कि कभी कौन तो हाफ़्मन याद आ गया, कभी कहाँ का तो ब्रेट हार्ट, और कभी राम जाने, वह मुआ दीदे कोई है भी या नहीं! उसकी याद आ गई। और की कहानियाँ तो छप ही रही हैं आपकी पत्रिका में। उन्हें पढ़ते हुए आपको किसी की याद नहीं आती! एक अभागा मैं हूँ कि मेरी कहानी किसी-न-किसी की याद दिला देती है। ऐसा तो नहीं, मान्यवर, कि आप जबरन किसी-न-किसी को याद कर बैठते हैं?’’
कुर्सी पर आसन बदलते हुए संपादक ने सामने बैठे कथाकार पर निगाह टिकाकर मंद-मंद मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘क्या आपकी कहानियों की अस्वीकृति के पीछे दूसरे कारण नहीं रहे हैं?’’
‘‘हाँ, रहे हैं,’’ कथाकार बोला, ‘‘जब आपको किसी की याद नहीं आई, तब आपने ख़ुद को याद कर लिया। कभी तो कहानी का आरंभ आपको रास नहीं आया, कभी कहानी के मध्य पर आपने नाक-भौं सिकोड़ी और कभी कहानी के अंत ने, आपकी नज़र में, कहानी का सत्यानाश कर दिया।’’
‘‘मेरे बताए मुताबिक़ आपने अपनी कहानियों को सुधारा, सँवारा?’’
‘‘ख़ाक सुधारूँ! क्या सँवारता? मैंने अपनी कहानियाँ कितनी ही गोष्ठियों में पढ़ीं जिनमें सिर्फ़ श्रोता ही नहीं, ढेर सारे समीक्षक भी थे। हर गोष्ठी में मैंने वाहवाही लूटी थी, मान्यवर।’’
‘‘मगर मैंने तो आह भर ली थी। संपादक मैं हूँ, आप मेरी सुनें, श्रोता और समीक्षक की नहीं।’’
‘‘मैं आपकी सुनूँ, मगर आप किसी की नहीं सुनें, यह क्या उचित है, मान्यवर?’’
‘‘मैं कहानी की समझ रखता हूँ।’’
‘‘मैं मानता हूँ कि आपको अच्छी समझ है कहानी की, मगर आप भी मानिए, मान्यवर, कि कुछ समझ औरों के पास भी है।’’
‘‘मुझे औरों से क्या लेना-देना! मैं अपनी समझ से काम लूँगा। कहानी मुझे पसंद आनी चाहिए।’’
‘‘कैसे आए कोई कहानी पसंद आपको जिसमें आप खोट खोजने लगते हैं?’’
‘‘मैं खोजता नहीं, बंधु, मुझे नज़र आ जाती है।’’
‘‘यह खोट नहीं, आपकी ज़िद है जो खोट बन जाती है।’’
‘‘मुझे तो अपनी ज़िद बहुत प्यारी है, भाई।’’
‘‘नहीं, मान्यवर, ऐसा न कहें। बरज़ोरी से विदा लें; अच्छी चीज़ नहीं है साहित्य में सरज़ोरी। मेरा निवेदन है, आप जिद्दी न हों। आप ज्ञानी हैं, जानते हैं, किसी की ज़िद नहीं चली है।’’
‘‘मेरी तो चलेगी, भैया।’’
‘‘चलेगी?’’ कथाकार ने आँखें फाड़कर संपादक की ओर देखा।
‘‘हाँ, चलेगी,’’ अकड़कर संपादक बोले, ‘‘कुछ सुना भी है इधर? ’’
रोम पोप का; पहले सिर्फ़ मधेपुरा था, अब साहित्य भी गोप का।’’
‘‘साहित्य भी?’’
‘‘हाँ।’’
अकबक रह गया कथाकार, संपादक की मुस्कुराहटों में कुछ ढूँढ़ता हुआ थोड़ी देर तक तो ख़ामोश रहा और फिर बोला, ‘‘मैं आपसे बाहर तो नहीं हूँ, मान्यवर, मगर मैं यह तो जानूँ कि आपकी पसंद क्या है?’’
संपादक ठहाका लगा बैठे, ‘‘आपको मेरी पसंद का नहीं पता, अभी तक नहीं पता? आपको नहीं मालूम कि मुझ पर क्या आरोप लगाए गए हैं, मुझे क्यों गालियाँ दी जा रही हैं?’’
‘‘यह तो मालूम है।’’
‘‘यह मालूम, मगर मेरी पसंद नहीं मालूम?’’
कथाकार के चेहरे पर धीरे-धीरे चमक आने लगी और वह लगभग चिल्ला पड़ा, ‘‘मालूम, मालूम,’’ और फिर वह चहक कर बोला, ‘‘मैं लिख सकता हूँ, आपकी पसंद की कहानियाँ लिख सकता हूँ, कभी भी लिख सकता हूँ, अभी भी लिख सकता हूँ। लिखूँ, अभी, यहीं? आपके कहे मुताबिक़ सुधारता जाऊँगा, सँवारता जाऊँगा।’’
‘‘लिख डालिए।’’
‘‘छप जाएगी?’’
‘‘अवश्य।’’
‘‘अगले ही अंक में?’’
‘‘क्यों नहीं?’’
‘‘तो लिखता हूँ।’’
मैं पीड़ित था, मगर मेरी पीड़ा मेरे पात्रों की पीड़ा थी जिसने मुझे बेचैन कर रखा था, मेरी नींद हर ली थी, और मैंने उनके लिए ईश्वर से प्रार्थनाएँ की थीं, ईश्वर से कुछ माँगा था उनके लिए।
सिमराही के आकाश से गुज़रते हुए शिव ने पार्वती से कहा था, ‘‘इस सिमराही का नकछेदी दास भारी चांडाल है, कभी नहीं आया वरुणेश्वर मुझे जल चढ़ाने।’’
चिथड़िया पीर के बाबा ग़ुस्से में आ गए थे, ‘‘यह नकछेदी कभी नहीं आया, सुख माँगने नहीं आया, संपत्ति माँगने नहीं आया, इतना घमंड कि एक औलाद तक माँगने नहीं आया नकछेदिया।’’ चलंती की वेला में गया था नकछेदी, शिव के पास गया था, पीर के पास गया था, तब उस दुखिया के साथ मैं भी था, मैंने भी उसकी प्रार्थना बुदबुदाई थी, ‘‘प्रभु, कोई राजा कभी पागल न हो।’’
सुन्नरपट्टी की वह बुढ़िया, समपतिया की माँ, जब अपनी लछमिनिया कानी बिल्ली की मौत पर बुक्का फाड़कर रोई, जो रोना न तो वह जवान पति की मौत पर रोई थी और न इकलौते बेटे की मौत पर, तब मैंने ईश्वर को पुकारा था, ‘‘हे ईश्वर! जो भी जुर्म हों बुढ़िया के, अब उसे माफ़ कर दो। ...हे ईश्वर! हालाँकि मेरी माँ हर ख़तरे से दूर है, पर तब भी, तब भी यह प्रार्थना मैं अपने लिए ही कर रहा हूँ।’’
जब संसार का सारा पानी बिशनपुर की ओर बढ़ने लगा था और पानी में डूबे हर कंधे पर बैठा हुआ शिशु ईश्वर को पुकारने लगा था, ‘‘इतनी जल्दी मुझसे क्यों निराश हो गए?’’ जिस कबूतरी ने अपने गोद के बच्चे को सौ डाइन-जोगिनों से बचाकर रखा था, हर नज़र-गुज़र से चुराकर रखा था, उस कबूतरी से जब काला पानी बार-बार कहने लगा, ‘‘इस बच्चे को मेरी गोद में डाल दो, कबूतरी,’’ तब गुहार लगाई थी मैंने, ‘‘हे ईश्वर, इस बच्चे को तुम अपने हाथ में ले लो और इसे पाँच कोस पूरब इसके बाप के पास पहुँचा दो।’’
जयराम बग़ीचा में जब शहीदों के प्रेत उतरते थे और एक दूसरे से बुदबुदाकर पूछते थे, ‘‘यह वह सूरज तो नहीं जो आज़ाद भारत में पहले दिन चमका था? वह कोयल अब क्यों नहीं कूकती जो आज़ाद भारत की अमराई में पहले दिन कूकी थी? कैसा मौसम आया है, न वह वसंत, न वह वर्षा?’’ और फिर काँपती आवाज़ में कलप उठते थे, ‘‘क्या हमने अपना ख़ून नहीं बहाया था, नहीं बहाया था अपना ख़ून?’’ तब मैंने ईश्वर की दुहाई दी थी, ‘‘हे ईश्वर, सुनो; सुनो, हे ईश्वर, इन्होंने अपना ख़ून दिया था, इन्हें इनका वसंत दे दो, इनकी वर्षा दे दो।’’
कहाँ नहीं दौड़ा मैं अपने पात्रों के लिए? किस पत्थर पर सर नहीं पटका मैंने अपना? जीवन तो आकुल प्रार्थनाओं में गुज़र गया। कहाँ मिली मोहलत घड़ी-दो घड़ी की भी! कब सोता मैं? नींद ही कब आई?
अब सोऊँ जब आदमी अंतिम नींद सोता है, गहरी नींद सोता है, कभी न टूटने वाली नींद सोता है? एक अच्छी नींद संसार का सबसे बड़ा सुख होता है। क्या मैं सुखी हूँ? लंबे जागरण के बाद क्या मुझे नींद आ रही है? नहीं कोई सुख नसीब नहीं हुआ मुझे; नींद अभी भी मुझसे कोसों दूर है। मेरी सारी प्रार्थनाएँ बाँझ निकल आईं, संसार के सारे देवता बाँझ साबित हुए। सिमराही के आकाश से गुज़रना तक छोड़ दिया शिव-पार्वती ने। समपतिया की माँ अभी भी जार-बेजार रोए चली जा रही है। काला पानी अपने करतूत से बाज़ नहीं आ रहा, ‘‘कबूतरी, डाल दो मेरी गोद में अपना बच्चा।’’ जयराम बाग़ीचा में कलप रहे प्रेतों की आवाज़ें मेरे कानों से टकरा रही हैं।
यह कैसा ईश्वर है जिसका हर सच घिनौना है, जिससे मुझे कुछ भी देते नहीं बना! वह क्यों नहीं आता मुझसे भी कहने? ‘‘तुमने भी मुझे निराश किया है, चन्द्रकिशोर।’’
आत्मतर्पण? कैसे करूँ मैं अपने को तृप्त? कर पाऊँगा? मेरे सारे सगे तो तड़प रहे हैं! वह दिन आएगा तो, जब मैं नींद भर सोऊँगा!
मैंने अपने चिरंजीव से कह रखा है कि तुम उस परमेश्वर की तलाश करना जो ईश्वरों का भी ईश्वर है और उनसे अपने लिए नहीं, मेरे लिए नहीं, उस ईश्वर के लिए प्रार्थना करना जो हमारा विधाता बना हुआ है, ‘‘हे परमेश्वर, थोड़ी भी बुद्धि हमारे ईश्वर को दो।’’
मैं उस दिन आत्म-तर्पण करूँगा जिस दिन मेरा चिरंजीव चहकता हुआ आएगा मेरे पास और कहेगा, ‘‘मैं लाल क़िले की हर ईंट, हर पत्थर देखकर आ रहा हूँ; पापा; देखकर आया हूँ कि हर एक पर अपने हिंदुस्तान का नाम लिखा हुआ है।’’
जिस दिन चिरंजीव ख़बर करेगा मुझे, ‘‘किस दुखग्राम की बातें करते रहे थे आप? यह तो समपतिया की माँ का सुखवास बना हुआ है। हर बुढ़िया सुख भोग रही है अपने श्रवणकुमार के साथ।’’
जिस दिन चिरंजीव शरमाते-सकुचाते सुनाएगा कि क्या गा रही थी कबूतरी, ‘‘ओ बालम, बरखा ऋतु आई और तुम्हारी ऊँची अटरिया देखकर मैं भींजती चली आई हूँ,’’ कि सुनाएगा कि क्या गा रही थीं उसकी सखियाँ, ‘‘ज़रा अपनी केसरिया साड़ी सँभाल, माथे पर सोह रहे टीके का मोती सँभाल, कानों में झूल रहे झुमके की लड़ियाँ सँभाल, हाथ में कंगन सँभाल, पैरों के पायल के घुँघूरू सँभाल;’’ सुनाएगा कि उसने किसी को कहते नहीं सुना, ‘‘नहीं, लाडो, नहीं, न टीका, न झुमके, न कंगन, न पायल, गोद के नुनु को ठीक से सँभाल, कबूतरी।’’
जिस दिन चिरंजीव दुखिया दास कबीर की ख़ुशियाँ बाँटने आएगा, ‘‘पापा, नकछेदी दास तो ख़ुशी के मारे पागल हुआ जा रहा है। कहाँ से क्या तो मिला है उसे कि अब सिमराही में घर-घर जाकर, खेत-खलिहानों में नाच-नाचकर, हर गाछ-वृक्ष को छू-छूकर, अमराई की कोयलों के साथ कूक-कूककर गीत गा रहा है, ‘अब न कभी पागल होगा कोई राजा, अब न कभी पागल होगा कोई राजा।’’
जिस दिन चिरंजीव अंजली भर-भरकर गंगा का सारा जल ढरकाते हुए जयराम बग़ीचा के प्रेतों का तर्पण करेगा, ‘‘हे पितर! मेरा प्रणाम स्वीकार करें। आपने बहाया था, अपना ख़ून बहाया था। देखिए, हम आज़ाद हैं, आबाद हैं।’’
उस दिन मैं सोऊँगा, नींद भर सोऊँगा।
कभी एक वृत्त का अंत हुआ था—मेरी एक कहानी में, मगर दुनिया में किसी वृत्त का अंत नहीं हुआ करता। तब भी मानसरोवर में एक शोक-सभा अवश्य हुई होगी। और शोक-चर्चा शुरू करते हुए राजेंद्र जी ने कहा होगा, ‘‘उस शख़्स ने कभी मुझे अपनी एक कविता सुनाई थी :
श्मशान में बैठे हुए दो जीव
फ़ैसला कर रहे हैं, झगड़ रहे हैं;
एक कहता है,
‘तुम लाश हो,
मैं गिद्ध हूँ,
मुझे खाने दो।’
पर दूसरा भी
बिल्कुल यही कहता है
‘गिद्ध मैं हूँ,
तुम लाश हो;
मैं खाऊँगा।’ ’’
आज मैं उस कविता को सुधार देना चाहता हूँ उसकी कुछ पंक्तियाँ बदलकर। यह दूसरा बिल्कुल वही नहीं कहता जो पहला कह रहा है। दूसरा कहता है :
‘हाँ, तुम गिद्ध हो,
मैं लाश हूँ;
खा लो मुझे।’
अपने को लाश कहने वाला यह दूसरा स्वयं रचनाकार है, स्वयं चन्द्रकिशोर। मुझे तो लगता है कि किसी असमर्थ की मौत हुई है।
शोक-संतप्त अर्चना जी ने शोकावेग रोक कर कहा होगा, ‘‘मैं तो महसूस कर रही हूँ कि मौत किसी अर्चना की, किसी प्रार्थना की हुई है, और यह मौत किसी असमर्थ की मौत से अधिक दारुण, अधिक भयावह है।’’
भर्राए कंठ से हरिनारायण जी ने कहा होगा, ‘‘यह मौत तब क्यों नहीं हो गई, जब वह हमारे वृत्त में नहीं घुस आया था! कितना अच्छा होता कि वह मेरे इतने क़रीब नहीं आता, कि अपरिचित रह जाता मैं उससे!’’
उस दिन ‘हंस’ के सारे चित्रकारों ने एक-एक चित्र बनाया होगा; भारी संयोग की हर चित्र एक जैसा, हर चित्र में एक भैंसा का पगहा थामे एक यमदूत; अद्भुत संयोग की हर भैंसे पर बस एक मुस्कुराहट बैठी हुई, हर मुस्कुराहट हूबहू एक जैसी! सिर्फ़ चित्रों के शीर्षक भिन्न रहे होंगे और इसे लेकर बहस छिड़ गई होगी... यह तो किसी सुख की मौत है... नहीं-नहीं, यह मौत किसी दुख की है... यह मुस्कुराहट मर गए किसी असमर्थ की तो नहीं?... यह मुस्कुराहट अस्वीकृत प्रार्थना की है; कोई प्रार्थना मरी है... यह मरणाशंसा की हँसी है... बिल्कुल नहीं, यह जिजीविषा की मुस्कुराहट है...
उस दिन यमराज ने अपने दूत को ख़ूब फटकार सुनाई होगी, ‘‘रे मूर्ख! तू किसे उठा लाया? यह तो एक पाठक था। नींद कब उसके पास फटकी कि वह कुछ लिखने को सोचता!’’
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