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जीवन को धुआँ-धुआँ करतीं रील्स

मैं बहुत लंबे समय से इस बात पर चिंतन कर रहा हूँ और यह कितना सही और ग़लत है—यह तो खोजना होगा; पर मैं मान कर चल रहा हूँ कि रोमांस मर चुका है। उसके साथ ही मर चुका है साहित्य। कला दम तोड़ रही है। अगर यह कुछ हद तक सच भी है तो इसके कितने ही कारण गिनाए जा सकते हैं, लेकिन सबसे गंभीर कारण जिसे मैं मानता हूँ यह है कि अभिव्यक्ति मर चुकी है। केवल शब्द बचे हैं। शब्दों के एक विशाल बवंडर में हम सब के सब फँसे हुए हैं। या फिर शब्दों का विशाल मलबा है और हम, हमारी पीढ़ी अपनी समस्त भावनाओं के साथ उसके नीचे दबी हुई है। साथ ही उससे बाहर निकलना जैसे असंभव ही हो गया है।

हर रोज कंटेंट के नाम पर मलबा बढ़ता चला जा रहा है। चारों ओर आँखे चौंधिया देने वाली तेज़ी है। सोचने की गुंजाइश जैसे लगातार हमसे छीनी जा रही है। मैं कहता हूँ कि टिकटॉक अस्ल में रक्तबीज था। रक्तबीज की कथा, आशा है आपने सुनी होगी। एक दानव था, जैसे ही उसके रक्त का एक कण भूमि को स्पर्श करता था—वहाँ एक और रक्तबीज खड़ा हो जाता था; तो टिकटॉक वही रक्तबीज था। जैसे ही वह धराशायी हुआ। उसकी जगह बचे सारे एप्लिकेशन टिकटॉक में तब्दील हो गए। इंस्टाग्राम, फ़ेसबुक, एक्स (ट्विटर)।

स्नैपचैट की उम्र निकल गई मेरी, लेकिन आशा है कि वहाँ भी ऐसा ही कुछ ज़रूर होगा। आप जल्द ही देखना व्हाट्सएप पर भी ऐसा ही मानकीकरण हो जाएगा। भयानक सामान्यीकरण।

यूट्यूब शॉर्ट्स या इंस्टा रील्स की सबसे बड़ी दिक़्क़त है कि यह हमारी प्रतिक्रिया देने की क्षमता को भौंडा करते जा रहे हैं। मैं बातें करते हुए अक्सर फ़िल्मों और भोजन के विषय में बात करता हूँ। फ़िल्मों का उल्लेख करते हुए मैं यह टोकता जाता हूँ कि मैं तुम्हें फ़िल्मों के विषय में बताता तो जा रहा हूँ पर तुम देखोगे नहीं। बदले में सब हँस जाते। मैं भी नहीं देख पाता और फ़िल्में टलती ही रहती हैं। फिर मैंने जब इस पर चिंतन किया तो पाया कि अस्ल में हमारी प्रतिबद्धता (कमिटमेंट) की क्षमता ही ख़त्म हो गई है। हम दो घंटे तक रील्स तो ऊपर नीचे कर सकते हैं लेकिन डेढ़ घंटे की फ़िल्म नहीं देख पा रहे हैं। क्योंकि हम दो घंटे तक एक ही कथानक, एक ही कथावस्तु में ख़ुद को समर्पित नहीं कर पा रहे हैं। हमारा धैर्य विलुप्तप्राय है। मैं तो कई बार 15 मिनट से अधिक की यूट्यूब वीडियो तक देखने में आनाकानी करने लगता हूँ। बाद में ख़ुद ध्यान देता हूँ कि क्या दुर्दशा की ओर बढ़ रहा हूँ। 

दूसरी ओर एक बात और ग़ौरतलब है कि ये रील्स-शॉर्ट्स हमारी भावनाओं और उसी के जैसी प्रतिक्रिया देने की क्षमता को धीरे-धीरे नष्ट कर रही है। पहले के लोगों का जीवन एक आयामी (मोनोटोनस) और नीरस था। मनोरंजन के साधन कम थे। इसीलिए पर्व, त्योहार आदि उत्साह, उल्लास और उत्सव के पर्याय थे। लोग जीवन में रस के लिए पुस्तकें उठाते थे। कथावार्ता करते थे। पुस्तक के साथ ये है कि आप पहले वाक्य पढ़ेंगे। वाक्य आहिस्ता आपके दिमाग़ तक जाएगा। अंकित शब्द आपके मस्तिष्क में जाकर उनका अर्थ प्रकट करेंगे। कोई भी घटना एकदम से आपके सामने नहीं आएगी। एक भूमिका होगी। आप पूरा समय लेंगे। तब कहीं जाकर उस पूरे घटनाक्रम के कारण आपके हृदय में उपस्थित भावनाओं में विक्षोभ उत्पन्न होगा और आप फिर कहीं जाकर उस भावना के अनुसार भंगिमाएँ बनाएँगे। अब दिक़्क़त यह है कि एक मिनट में दस-दस सेकेंड की छह रील्स देखने को मिल जाएँ और सभी-की-सभी पूर्णतया अप्रत्याशित। आपका मस्तिष्क पहले से उस भाव को लेकर तैयार नहीं है। एकदम हमला-सा होता है और सभी-की-सभी एक दूसरे से नितांत भिन्न। यदि एक हास्यास्पद तो दूसरी जोशवर्धक। तीसरी धार्मिक है तो चौथी केवल वासना की आग बढ़ाने के उद्देश्य से परोसी हुई। पाँचवी में कोई पैसा कमाना सिखा रहा है तो छठवीं में कोई अपनी टूटी टाँग के लिए पैसे माँग रहा है। 

कुल मिलाकर जब तक हम एक भावना को अनुभव कर पाते हैं, उसके पहले ही कोई नई भावना का उद्दीपन (स्टिमुलस) हमारे सामने हो जाता है। हमारी प्रतिक्रिया देने की क्षमता नष्ट होती जा रही है और डर है कि आने वाली पीढ़ियों में कहीं यह विकसित ही नहीं हो पाएगी। 

मुझे दुख और उससे कहीं अधिक भय है लेकिन सच है कि आगे आने वाली पीढ़ी भावनात्मक रूप से खोखली आने वाली है—ट्रेंड ऑफ़ देयर इमोशंस। उन्हें विनम्रता नहीं मालूम होगी। हास्य की गंभीरता ख़त्म हो जाएगी। लोग किसी की क्षति पर स्वयं को उत्कृष्ट मसख़रा सिद्ध करने में इस तरह से लगे हुए हैं कि कुछ समय में सुहानुभूति शब्द संग्रहालयों में मिलेगा। यह सब बहुत दुखद जान पड़ता है। लेकिन कुछ भी अप्रत्याशित नहीं है। लोग जब किसी एक भावना को ठीक ढंग से अनुभूत ही नहीं कर पा रहे हैं तो उससे परिचय ही कैसे हो? भावनाओं के बेलौस कचरे में डूबे हुए लोग पूँजीवाद के दानव के स्वादिष्ट व्यंजन बने हुए हैं। बड़ी-बड़ी कंपनियाँ इन्हें खाए जा रही हैं। लोग स्वयं से अपरिचित हैं। अपनी भावनाओं से अपरिचित हैं। तंबाकू या मद्य खाने-पीने वाले लोग यह सब इसीलिए करते हैं ताकि कनस्तर जैसे दिमाग़ को सुन्न कर सकें। वही हाल इन सब चीज़ों से भी होता है और मैं भी इन्हीं लोगों की फ़ेहरिस्त में शामिल हूँ।

जैसा मैंने पहले कहा कि रोमांस, साहित्य, कला आदि मर चुके हैं या मरणासन्न हैं, वह इसी सब के कारण कहा। देखा जाए तो जिस दिन अस्ल समय (रियल टाइम) में संदेश भेज सकने की सुविधा का विकास हो गया, उसी दिन भाषा की गुणवत्ता मर गई। विश्व का सर्वोत्कृष्ट साहित्य पत्रों में लिखा गया है। त्वरित संदेश में व्यक्ति भावनाओं के उद्गार में होता है। उसके बात करने के लहज़े में कोई धैर्य या स्पष्टता नहीं होती। दूसरी ओर पत्र लिखते समय मौक़ा होता है कि आदमी अपने मन की सारी ऊहापोह आसानी से शब्दों में उतार दे। फिर प्रतीक्षा करे कि उत्तर आएगा। आराम से आएगा। देरी से आएगा। लेकिन सुगठित आएगा।

मैं कोई बहुत बड़ा क्रांतिकारी नहीं हूँ, फिर भी मुझे लगता है कि पत्राचार बचाना ज़रूरी है। शायद साहित्य इससे बच जाए। भाषा इससे बच जाए। भावनाएँ इससे बच जाए।

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