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नवंबर में ‘क़यास’ पर कुछ क़यास

मृत्यु वैसे भी रहस्य में लिपटी होती है। इस पर कई बार वह अपने इस रहस्य को कोई ऐसा आकार दे देती है कि वह लगातार गड़ता है। हम बार-बार पीड़ा में लिपटे उस रहस्य की ओर लौटते हैं और हर बार एक अजीब-सी चोट खाकर लौट आते हैं।

हर एक शब्द में हमारे अतीत के अँधेरे छिपे होते हैं। उदयन वाजपेयी के उपन्यास ‘क़यास’ (राजकमल प्रकाशन, संस्करण : 2019) को जब भी मुझे अँधेरों से निकालकर भविष्य की धूप दिखानी होगी तो मैं 'मृत्यु' शब्द का सहारा लूँगा। क़यास मृत्यु से शुरू होकर मृत्यु ही की दहलीज़ पर दम तोड़ता है, लेकिन इस दम तोड़ने की पूरी यात्रा में वह बहुत बदल चुका है। उसने सत्य के थपेड़ों का स्वाद चख लिया है, जिसने उसको पूरी तरह से बदलकर रख दिया है। फिर भी यह क्या कम है कि अंततः मृत्यु ने उसे स्वीकार कर लिया।

एक स्त्री हमेशा ही दोनों कंधों पर भारी-भरकम थैले लेकर प्रवेश करती। उसके पीछे थका हुआ-सा एक आदमी भी आता। वह पहले पास की सीट पर अपने थैले रखती, फिर बैठती। थका हुआ-सा आदमी पास खड़ा उसे देखता रहता।

और आरंभ से पूर्व कुछ पंक्तियों के साथ एकालापों की दुनिया का प्रवेश-द्वार खुलता जाता है। इन पंक्तियों को पढ़कर जब मैंने पन्ना पलटा तो मुझे कुछ छूट जाने का एहसास हुआ, वापस से पंक्तियों को दोहराया—अब इन पंक्तियों में कविता के झौंकों की तेज़ सरसराहट महसूस होने लगी। ये पंक्तियाँ सचमुच झोंकों की तरह ही हैं, जो किसी भी दिशा की ओर बहती चली जाती हैं।

बहुत देर तक पास के खेत में किसान की आवाज़ आती रही। वह कुछ गा रहा था। फिर वह भी शांत हो गई। मुझे लगा कोई मेरे जूते हटा रहा है, मैं घबराई-सी चुप लेट रही। अब मुझे अपने पाँव पर हाथ का स्पर्श महसूस हुआ, फिर दाएँ तलवे पर किसी के होठों का दबाव पड़ने लगा। मैं तेज़ी-से उठकर बैठ गई। वह घबड़ाकर धड़ाम-से पीछे की ओर गिर गया। उठकर जैसे ही भागने को हुआ, मैंने उसका हाथ पकड़ लिया।

इन वाक्यों को पढ़ते हुए मैं लगभग ठिठक गया था। वाक्यों से ऊपर उठकर मैं इसे अपनी आँखों के आगे दृश्य की तरह देखने लगा। भाषा के माध्यम से रचनाकार ने मुझे दृश्यों की दुनिया में पहुँचा दिया। मुझे महसूस होता है कि ऐसा अपनी रचना के प्रति सच्ची ईमानदारी से ही पनप सकता है। इस सब बातों के अलावा इस उपन्यास का कमाल मुझे यह भी लगता है कि इसमें केवल आख्यान काम नहीं कर रहा, बल्कि कोई ऐसी चीज़ भी छिपी हुई है जो हमारी उँगली थामे आगे लिए चली जा रही है।

मैं कैसे बताऊँ मुझे अभी, ठीक अभी अपने सामने वह खड़ा दिखाई दे रहा है, उसने वही धारी वाली कमीज़ पहनी हुई है, वही नीला पैंट है, वही जूते हैं, मुझे बिल्कुल पक्का मालूम है कि ये सुदीप्त नहीं, उसकी छाया भी नहीं, सिर्फ़ जीवन का अपने को मेरे शरीर में किसी भी तरह बचाए रखने का क्रूर प्रयास भर है, पर मैं ख़ुद से कैसे कहूँ कि यह वह नहीं। वही तो है!

इस पूरे उपन्यास में सुदीप्त की अनजाने में हुई हत्या ने वजहों के तमाम रंगों को अपने चेहरे पर मल लिया है। बताता चलूँ कि उपन्यास का मुख्य पात्र सुदीप्त है और कमाल देखिए कि वही पूरे उपन्यास में ग़ायब है। वह कहीं भी नहीं। केवल उसकी हत्या के बाद पैदा हुई वजहें अपने जाले बुन रही हैं। तमाम पात्र उसके मरने का रोना रो रहे हैं।

इस उपन्यास की भाषा उचित ही ऊँचे स्तर की है, इसमें प्रयुक्त उपमाएँ और रूपक ज़रा भी कृत्रिम हुए बिना काव्यात्मक और नैसर्गिक हैं। पूरे उपन्यास में एक भी शब्द फ़िज़ूल नहीं है। मुझे यह पढ़कर संतोष से बहुत अधिक हासिल हुआ।

कृष्ण बलदेव वैद की कही बातों के बाद मुझे नहीं लगता कि मेरे लिए अब उपन्यास पर कुछ और कहने को बचा है। मेरा कुछ भी कहना केवल लकीर के ऊपर लकीर खींचने के बराबर ही होगा—वह भी टेढ़ी-मेढ़ी।

नवंबर का महीना लुढ़कते पत्थर-सा दिल पर आ जाता है; यह तो महीना ही नहीं है, केवल उसका अभिनय कर रहा है। यह आने वाले महीने दिसंबर के आगे हाथ बाँधे खड़ा है। उसका यह ग़ुलाम है।

— ख़ालिद जावेद, समास-25, पृ.सं. 35

महीनों भर से सोए हुए जाड़ों की नींद अब पूरी हो चुकी है। वे बस एक करवट लेकर जागने को हैं। उपन्यास पढ़कर सड़क पर क़दम बढ़ाते सोचता हूँ : नवंबर के इस महीने को—जिसे मैं भी सिरे से कोई महीना नहीं समझता—इस उपन्यास के साथ बिताए क्षणों के धागों को कहाँ बाँधूँ? मेरे हाथों से ये धागे समय और स्मृतियों की बारिश से भीग जाने को हैं।

मुझे इस बात का अच्छे-से ख़याल है कि मैं कम शब्दों का सहारा लेकर अपनी बात कह पाया, इसका कारण यह है कि मैं ख़ुद इस उपन्यास को लेकर क़यास ही लगा पाया हूँ। इससे ज़्यादा कुछ नहीं। आप यूँ समझ लीजिए कि मैं रेलवे स्टेशन की सीढ़ियाँ उतरते अंधे व्यक्ति की तरह हूँ; जो अपना हर एक क़दम बहुत सँभल-सँभलकर आगे बढ़ाता है, जिसके कानों में अभी तक ट्रेन के ज़ोरदार हॉर्न की गूँज बची हुई है।

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