Font by Mehr Nastaliq Web

धरती पर हज़ार चीज़ें थीं काली और ख़ूबसूरत

इक्कीसवीं सदी की हिंदी कविता की नई पीढ़ी का स्वर बहुआयामी और बहुकेंद्रीय सामाजिक सरोकारों से संबद्ध है। नई पीढ़ी के कवियों ने अपने समय, समाज और राजनीति के क्लीशे को अलग भाष्य दिया है। अनुपम सिंह की कविताएँ उन्हीं स्वरों में एक सजग और संभावनाशील स्वर है। उनकी कविताएँ परिवार, समाज, राष्ट्र आदि की चिंताओं और उनके आपसी संबंधों को एक नए कोण से देखती हैं। 

‘मैंने गढ़ा है अपना पुरुष’ उनका पहला काव्य-संग्रह है। कवि और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में परिचित इनकी कविताएँ अपने परिवेश में स्त्री की उपस्थिति की, उसके अनुभवों की बौद्धिक धरातल पर शिनाख़्त करती हैं। स्त्री-जीवन के विभिन्न पहलुओं के बहाने कवि ने समाज, संस्कृति और राष्ट्र की महीन डोर को छेड़ने की कोशिश की है, जिसने गाहे-बगाहे स्त्री-जीवन को लांक्षित किया है। 

इक्कीसवीं सदी में धर्म, पूँजी और बाज़ार का चरम उद्देश्य स्त्री-देह पर नियंत्रण है। स्त्रीत्व और उसके भीतर के जीवनोत्सव को ख़त्म कर उसे खिलौना बना देने के अनगिनत प्रयत्न चल रहे हैं। कवि इसके ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ को मुखर करती हैं—

सब कुछ नष्ट होने से पहले
दर्ज किया जाना ज़रूरी है
एक औरत का अंत।

स्त्री की पीड़ा और विराग-भाव को अनुपम सिंह की कविताएँ एक ऐसी भाषा देती है, जिसमें उसकी संवेदना भी बची रहे और प्रतिरोध की आँच भी बरक़रार रहे।

विक्षोभ, विखंडन और टूटन के इस भयावह समय में स्त्री की दुनिया ने सभ्यता के गलीच चेहरे को सामने रखा है। धर्मतंत्रमुखी पितृसत्ता ने स्त्री की परिधि को हमेशा बाँधने की कोशिश की है। ध्यान देने की बात है कि संग्रह की अधिकांश कविताएँ स्त्री-केंद्रित हैं। इन कविताओं में बड़ी हो रही लड़की के अनुभव क्षेत्र, उसके सपने, शिक्षा, रोज़गार के साथ ही मनचीते प्रेमी और दोस्त की तलाश झाँकती है। 

स्त्री-देह से जुड़ीं अकथ घटनाएँ, परिवार-समाज के दुश्चरित्र-रिश्तेदार जिनकी फूहड़ता ने दुलार के नाम पर यौनभिचार किया हो आदि प्रसंग, कविता की भावभूमि को जीवंत बनाता है; जाने-अनजाने कविता उन अनुभवों की पोटली बनती जाती है जिसे कथित सभ्य समाज खोलने से भयभीत होता है। उस पोटली में परिवार-समाज के अपराधी हैं, कायर हैं : 

आज फिर दूर वाले फूफाजी आए हैं
उनकी टॉफ़ियाँ इच्छाओं का बिसखोपड़ा हैं
शुभेच्छा एक शातिर अभिनय
पाँव छूती बहनों की पीठ पर
ताउम्र धरा रह गया हाथ उनका
वह डॉक्टरनुमा व्यक्ति!
मेरे गाँव की सभी औरतों का इलाज़ करता है
एक प्रश्न उछालकर रात-भर उन औरतों का हाथ
रखे रहता है अपने शिश्न पर 

इन अनुभवों को शब्द देना, इन प्रताड़नाओं से गुज़रना कितना हृदयविदारक हो सकता है, इसकी कल्पना करना मुश्किल है। हमेशा से स्त्री देह उनके शोषण का प्राइम साइट रही है। ‘औरतें हैं मुखौटे नहीं’, ‘जवान होती लड़कियाँ’, ‘हमारा इतिहास’, ‘कुलवधू’, ‘आसान है मनोरोगी कहना’, ‘एक औरत का अंत’, ‘राष्ट्रीय सूतक’ आदि दर्जनों कविताएँ स्त्री-मन की मुखर होती आवाज़ है। कवि ने एक-एक अनुभव को दस्तावेज़ की तरह कविता के रूपक में उतारा है। इन आत्मिक, दैहिक प्रताड़नाओं के बाद भी वह प्रेम और उम्मीद की आस को नहीं छोड़ती हैं। 

पुरुष सत्ता और पितृसत्ता की वर्चस्ववादी अहंकार के वातावरण में भी वह मनचीते पुरुष का संधान करती हैं, अपना पुरुष गढ़ती है। पुरुष को गढ़ना सत्ता के दोहरे चरित्र को आईना दिखाना है, सभ्यता-संस्कृति की ग़लतियों के दोहराव को रोकना है; पुरुष को अतिपुरुष बनने से रोकना है, उसे प्रेम और करुणा के क़ाबिल बनाना है। उन्हें मनुष्यता के समानांतर ला खड़ा करना है। अपनी कविता ‘शर्तों पर टिका है मेरा प्रेम’ में उनकी उद्घोषणा वे मानक हैं जिन्हें समझना प्रेम के पंथ को स्वीकार करना है—

मुझसे प्रेम करने के लिए
तुम्हें शुरू से शुरू करना होगा
पैदा होना होगा स्त्री की कोख से
उसकी और तुम्हारी धड़कन
धड़कनी होगी एक साथ
मुझसे प्रेम करने के लिए
संभलकर चलना होगा हरी घास पर
उड़ते हुए टिड्डे को पहले उड़ने देना होगा
पेड़ों के पत्ते बहुत ज़रूरत पड़ने पर ही तोड़ने होंगे
कि जैसे आदिवासी लड़के तोड़ते हैं
फूलों को नोच
कभी मत चढ़ाना देवताओं की मूर्तियों पर
मुझसे प्रेम करने के लिए
तोड़ने होंगे नदियों के सारे बाँध
एक्वेरियम की मछलियों को मुक्त कर
मछुवारे के बच्चे से प्रेम करना होगा
...मेरी ही तरह
बिस्तर पर तुम्हें पुरुष नहीं
मेरा प्रेमी होना होगा

ये शर्ते प्रेम की शक्ल में मनुष्य होने की शर्त है, अपने भीतर की संवेदनशीलता को बचाए रखने की शर्त है। इसी तरह प्रेम को जेंडर की सीमाओं से निकालकर उसे नई भाषा, नई उमंग देने का प्रयत्न कवि के अति संवेदनशील मानस की उद्यमशीलता को दर्शाता है। भाषा की यह नई दुनिया उन्हें अपराधी नहीं अपितु सहयात्री बनाती है : 

भाषा की नई दुनिया में
जब स्थाई हो रात
तो हिचक कैसी 
कैसा अपराधबोध 
हाँ! प्रेम में थीं हम दो लड़कियाँ।

प्रेम का यह भाष्य उम्मीद और भरोसे को मजबूत बनाता है।

अनुपम सिंह की कविताएँ ख़ालिस प्रतिरोध दर्ज करके नहीं रह जाती। इन कविताओं की पहुँच उन मनोवेगों, उद्दयम भावनाओं तक है, जहाँ मनुष्य असहाय हो जाता है, स्वयं के प्रति विद्रोह से भर उठता है, दिशाहीनता उसे कचोटती है। इसी निसहायता को ध्वनित करती हैं अनुपम सिंह की कविताएँ। इसमें सामाजिक मान्यताएँ, फूहड़ मान-सम्मान, इतिहास की गुमनामी, अथाह सपनों के पीछे भागने की जिद्द और दुनिया को उलट-पुलटकर जानने-समझने और समझाने का गरज साफ़ सुनाई देता है। 

कवि उस स्त्री विरोधी समाज के सबक को स्त्री के समाजशास्त्र और मनोशास्त्र से जोड़ती है। सामाजिक मान्यताएँ जो स्त्री के वजूद को धूमिल करती हैं, उसकी धज्जियाँ उड़ाती अपने अहम् को स्थापित करती हैं—

झूठे स्वाभिमान 
और स्वार्थों के लिए औरतें 
युद्ध में कभी शामिल नहीं रहीं 
न औरतों के लिए कोई युद्ध 
लड़ा गया इतिहास में

या

अब तक शांति के लिए पूजती रही जिन देवताओं को 
वे युद्ध के पैरोकार निकले।

सांप्रदायिक दंगों और युद्धों ने स्त्रियों के जीवन को बेजार किया है। इतिहास गवाह है कि आज तक कोई भी युद्ध स्त्रियों और बच्चों से पूछ कर नहीं लड़ा गया। लेकिन युद्धों का सबसे अधिक दुष्प्रभाव इन्हीं को ही झेलना पड़ा। ‘हमारा इतिहास’, ‘औरतें मुखौटे नहीं’, ‘तलवे में छुपी औरत’, ‘नींद और जागरण के बीच तिलिस्मी युद्ध’, ‘तुम्हारी कठोर प्रत्यंचा और मेरी हिरणी का दिल’ आदि ऐसी कविताएँ हैं, जहाँ पुरुष सत्ता का धुरखेल परास्त होता दिखता है। इतिहास के अँधेरों में स्त्रियों के त्याग और बलिदान को दफ़्न किया गया। 

अधिकार, संपत्ति और कामुकता की हिंसक भावना ने स्त्री-जीवन को मनोरंजन के निमित बना दिया। इतिहास के झूठे पन्नों और कलाओं ने भी स्त्री-आत्म्न को निर्जीव मूर्तियों में गूँथने का काम किया। कभी ‘जीभ में कील ठोंक कर’ तो कभी ‘गरम सलाखों से दाग़ी गई’ उनकी अभिव्यक्तियाँ आज अपना हक़ और हकूक माँग रही है। 

कवि अनुपम सिंह का कवि-हृदय बड़ी आत्मीयता और सदाशयता से अपने समय को पहचान रहा है। उनमें घृणा, अंधड़ प्रतिरोध नहीं बल्कि घनघोर प्रेम का भाव है। प्रेम और मैत्री-भाव ही उनकी कविता की मूल संरचना है। असह्य पीड़ाओं को सहते स्त्री की मनोभूमियों को वे इसी मैत्री-भाव से स्पर्श करती हैं। इसी भाव से पुंसवादी ताक़तों के सम्मुख अपनी असहमति प्रकट करती है—

एकदम सधी चाल में मुझे 
क्रूर देवताओं की छाया से मार खाए 
तुम्हारे पूर्वज नज़र आते हैं 
तुम मेरे बच्चे 
कभी मत देखना देवताओं की ओर 
कभी मत चलना कोई सधी चाल 

असहमति का साहस और भविष्योन्मुखी विवेक के साथ कवि नई पीढ़ी के लिए नई ज़मीन खोजती है।

परिवार-समाज में रूढ़ हो चुकी प्रेम और सौंदर्य के मानकों पर भी अनुपम सिंह का कवि-हृदय गहरे शंकित दिखता है। कभी वह प्रेम करने के नए तरीक़े अपनाना चाहती हैं तो कभी रंगभेदी दृष्टि को आड़े हाथों लेती हैं। ‘धरती पर हज़ार चीज़ें थीं काली और ख़ूबसूरत’ और ‘रंग जहाँ अपराधी होते हैं’ आदि कविताएँ उन मानसिकताओं को दर्शाता है, जिसने बचपन से काले रंग को अभिशाप की तरह माना है। स्त्री का काला रंग जैसे उनके जीवन का बदरंग पक्ष बनकर रह जाता है—

काला रंग नहीं गाली की तरह लगता
खिसियाहट में गालियाँ देती
मैं ढहा देती अपना ही रचा खेल

इस पीड़ा और वंचना से निकलना आसान नहीं है। इसी के समानांतर कवि स्त्री-जीवन के उन अनुभवों को शब्द-रंग देती हैं जिसे प्रायः रहस्य की खोल में छुपा दिया जाता है। वह चाहे स्त्री का नितांत निजी दुख हो या दैहिक गुत्थियाँ या इन सबके साथ दुनिया जहान के प्रति उनकी चिंताएँ। प्रेम, यौनिकता और समसामयिक मुद्दों की अभिव्यक्ति में कवि ने ऐसी भाषिक सूझबूझ का परिचय दिया है, जिसे पढ़कर संतोष का अनुभव होता है। 

बक़ौल रेखा सेठी—“अनुपम सिंह ने इन कविताओं में एक और वर्जित क्षेत्र में प्रवेश किया है। उन्होंने स्त्री-देह के रहस्यों, उसकी इच्छा-आकांक्षा और यौनिकता के अनुभव को बड़े करीने से काग़ज़ पर उतारा है। ऐसा करने के लिए भाषा को भी नए सिरे से साधना पड़ता है। अनुपम ने यह कठिन काम किया है।”


अपनी देह और मन की कामनाओं को सुंदर कहानियों में बदलने के लिए, आकाश गंगाओं को धरती पर खींच लाना उनकी यात्रा का अहम् हिस्सा है। सांसारिक मोह और जड़-चेतन का आनंद भी इसमें सम्मिलित है। ‘मैंने गढ़ा है अपना पुरुष’ संग्रह की कविताएँ पाठक को स्त्री-संसार के प्रति वयस्क बनाती है। इन कविताओं में जितना पुरुष गढ़ा जा रहा है उतना ही या उससे अधिक एक सचेत स्त्री भी गढ़ी जा रही है। स्त्री जीवन की अलक्षित भाव बिंबों को संवारती ये कविताएँ स्त्री-आकांक्षा की नई दुनिया से रूबरू कराती है।

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

28 नवम्बर 2025

पोस्ट-रेज़र सिविलाइज़ेशन : ‘ज़िलेट-मैन’ से ‘उस्तरा बियर्ड-मैन’

28 नवम्बर 2025

पोस्ट-रेज़र सिविलाइज़ेशन : ‘ज़िलेट-मैन’ से ‘उस्तरा बियर्ड-मैन’

ग़ौर कीजिए, जिन चेहरों पर अब तक चमकदार क्रीम का वादा था, वहीं अब ब्लैक सीरम की विज्ञापन-मुस्कान है। कभी शेविंग-किट का ‘ज़िलेट-मैन’ था, अब है ‘उस्तरा बियर्ड-मैन’। यह बदलाव सिर्फ़ फ़ैशन नहीं, फ़ेस की फि

18 नवम्बर 2025

मार्गरेट एटवुड : मर्द डरते हैं कि औरतें उनका मज़ाक़ उड़ाएँगीं

18 नवम्बर 2025

मार्गरेट एटवुड : मर्द डरते हैं कि औरतें उनका मज़ाक़ उड़ाएँगीं

Men are afraid that women will laugh at them. Women are afraid that men will kill them. मार्गरेट एटवुड का मशहूर जुमला—मर्द डरते हैं कि औरतें उनका मज़ाक़ उड़ाएँगीं; औरतें डरती हैं कि मर्द उन्हें क़त्ल

30 नवम्बर 2025

गर्ल्स हॉस्टल, राजकुमारी और बालकांड!

30 नवम्बर 2025

गर्ल्स हॉस्टल, राजकुमारी और बालकांड!

मुझे ऐसा लगता है कि दुनिया में जितने भी... अजी! रुकिए अगर आप लड़के हैं तो यह पढ़ना स्किप कर सकते हैं, हो सकता है आपको इस लेख में कुछ भी ख़ास न लगे और आप इससे बिल्कुल भी जुड़ाव महसूस न करें। इसलिए आपक

23 नवम्बर 2025

सदी की आख़िरी माँएँ

23 नवम्बर 2025

सदी की आख़िरी माँएँ

मैं ख़ुद को ‘मिलेनियल’ या ‘जनरेशन वाई’ कहने का दंभ भर सकता हूँ। इस हिसाब से हम दो सदियों को जोड़ने वाली वे कड़ियाँ हैं—जिन्होंने पैसेंजर ट्रेन में सफ़र किया है, छत के ऐंटीने से फ़्रीक्वेंसी मिलाई है,

04 नवम्बर 2025

जन्मशती विशेष : युक्ति, तर्क और अयांत्रिक ऋत्विक

04 नवम्बर 2025

जन्मशती विशेष : युक्ति, तर्क और अयांत्रिक ऋत्विक

—किराया, साहब... —मेरे पास सिक्कों की खनक नहीं। एक काम करो, सीधे चल पड़ो 1/1 बिशप लेफ़्राॅय रोड की ओर। वहाँ एक लंबा साया दरवाज़ा खोलेगा। उससे कहना कि ऋत्विक घटक टैक्सी करके रास्तों से लौटा... जेबें

बेला लेटेस्ट