अफ़सर बनते ही आदमी सुहागन बन जाता है
ललन चतुर्वेदी 10 अक्तूबर 2024
अफ़सर बनते ही आदमी सुहागन बन जाता है। कल तक फ़ाइलों में डूबा आदमी, आज बाढ़ के दिनों की मछलियों की तरह सतह पर छलछलाते हुए दिखने लगा है। विभिन्न सरकारी काज-प्रयोजनों में प्रायः जिसका प्रवेश-निषिद्ध था, उसे अब सारे ऑफ़िसियल कार्यों में सादर आमंत्रित किया जाने लगा है। वह अचानक योग्य घोषित कर दिया गया है।
प्यारेलाल सही कहा करते हैं—“कोई महान् नहीं होता, महान् बनाए जाते हैं।”
31 दिसंबर तक लगभग संन्यासी-सा जीवन व्यतीत करने वाला कर्मचारी एक जनवरी को अधिकारी के रूप में पदोन्नत हुआ है। कभी-न-कभी सब के दिन फिरते हैं। आज उसके भी फिरे हैं। लग रहा है कि कोई तेजस्वी राजकुमार गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर रहा है। सबकी नज़रें उस पर लगी हुई हैं और नज़ारा भी देखने लायक़ है। उसे सुहागन की तरह शृंगार के सारे साजो-सामान तत्काल उपलब्ध करा दिए गए हैं। हॉल से उठाकर उसे चेंबर में बैठा दिया गया है, मानिए मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा कर दी गई हो।
कल तक वह चुप रहा करता था, सिर्फ़ सुनता था। अब वह बोलेगा और सब सुनेंगे। उसकी बातों में वज़्न होगा। अब, सब लोग उसकी सुविधा का ख़याल करने लगे हैं। बानगी के तौर पर, पहली सुविधा के तौर पर उसके टेबल में इलेक्ट्रॉनिक बेल फ़िट कर दी गई है। चक्करदार कुर्सी पर बांबे डाइंग का श्वेत-शुभ्र टॉवेल बिछा दिया गया है।
गोपनीयता बरक़रार रखने के लिए मुख्य द्वार पर क़ीमती गझिन परदे डाल दिए गए हैं। कोने की स्टूल पर यूनिफ़ार्म में चपरासी संतरी की तरह बैठा है। मालूम नहीं, चपरासियों को बैठने के लिए कुर्सियाँ क्यों नहीं दी जाती हैं। शायद अँग्रेज़ों ने सोचा होगा कि कुर्सी पर बैठने से नींद आने की प्रबल संभावना बनी रहती है, इसीलिए उन्हें स्टूल दिया जाता हैं। उनके ज़माने वाली व्यवस्था आज भी जारी है। अँग्रेज़ बड़े दिमाग़दार थे। कई क्षेत्रों में आज भी उनके दिमाग़ का हम बख़ूबी उपयोग कर रहे हैं। ख़ैर, स्टूल के मामले को तूल देना मूल विषय से भटकना होगा।
इस बीच साहब के चेंबर में रेड कार्पेट भी बिछ गया है। साहब भी अब अन्य साहबों की तरह गुरु-गंभीर दिखने लगे हैं।
आज पहला दिन है। शुभ मुहूर्त में साहब ने कुर्सी सँभाल ली है। कुर्सी पर बैठा हुआ आदमी अच्छा लगता है। यदि कुर्सी थोड़ी ऊँची हो तो उसमें तमाम तरह की अच्छाइयाँ भी आ जाती हैं। कुर्सी पर बैठा आदमी अच्छे के साथ भला भी हो, इसकी गारंटी नहीं दी जा सकती, केवल उम्मीद की जा सकती है।
आराम-कुर्सी पर बैठने का पहला अवसर प्राप्त हुआ है। चपरासी रामभरोसे पूरे घटना-क्रम पर पैनी नज़र बनाए हुए है। बीच-बीच में मधुर मुस्कान के साथ छोटी-छोटी लाइव क्लिपिंग पेश करता रहता है। विस्तार से ख़बरें ब्रेक के बाद के आश्वासन के साथ।
पहली ब्रेकिंग न्यूज़ में यह मिला है कि कुर्सी पर बैठने के थोड़ी ही देर बाद साहब ने अपनी आँखें मूँद ली हैं। संभावना जताई जा रही है कि वह अपने इष्ट देव का ध्यान कर रहे हैं। बड़े पुण्य करने से ऊँची कुर्सी मिलती है। लगता है, साहब कुछ याद कर रहे हैं।
रामभरोसे मन-ही-मन बुदबुदा रहा है—“हे भगवान! इतनी जल्दी ही भूलने लगे। आगे क्या होगा।”
अपनी अनुभवी आँखों से उसने अनेक साहबों को देखा है, तौला है। कभी-कभी कहता भी है कि कुर्सी पर बैठते ही आदमी धीरे-धीरे भूलने लगता है—अपना गाँव, पास-पड़ोस, इष्ट-मित्र आदि-आदि। लेकिन एक बात वह कभी नहीं भूलता कि वह एक अफ़सर है। यदि भूलवश वह भूल भी जाए तो अगल-बग़ल के लोग समय-समय पर उसे याद कराते रहते हैं कि वह एक अफ़सर है।
वह भी लोगों को समय-समय पर महसूस कराता रहता है कि उसे अफ़सर ही समझा जाए। ऐसा करते समय उसका चेहरा मनहूस टाइप का हो जाता है। फिर, धीरे-धीरे उसे अफ़सर बने रहने की आदत हो जाती है। एक प्रकार से वह अफ़सरी का एडिक्ट हो जाता है, हर पल अपनी अफ़सरी के प्रति सतर्क, सचेत।
अफ़सरी मेंटेन करने के लिए समय-समय पर उसे कुछ एक्सट्रा बॉल भी फेंकने पड़ते हैं। जो उसे अफ़सर नहीं समझते उनकी विशेष रूप से खोज-ख़बर लेनी पड़ती है। तब ऑफ़िस का प्रमुख काम गौण हो जाता है। कालांतर में यह रोग का रूप धारण कर लेता है। ऐसी स्थिति में अफ़सर के ‘ऑफ़ सर’ बनने की संभावना बढ़ जाती है। तब मातहत उसे देखते ही ‘उफ़् सर’ बुदबुदाने लगते हैं।
जो भी हो, यह एक संक्रामक रोग है और कहा यह जाता है कि विभिन्न महकमों में कुछेक अपवाद को छोड़कर इस रोग से ग्रस्त अनेक अफ़सर हैं। अधीनस्थ लोग ऐसे अफ़सरों से उचित सामाजिक दूरी बनाकर देश हित में कार्य-निष्पादन कर रहे हैं।
रामभरोसे का मानना है कि नयका साहब ज़मीनी आदमी हैं। वह परदे की ओट से आँखे बचाकर साहब की गतिविधियों पर नज़र रख रहा है। साहब की उँगलियाँ इलेक्ट्रॉनिक बेल पर अनायास चली गई हैं। वह फ़ौरन हाज़िर हो गया है। साहब रामभरोसे को कॉफ़ी लाने का आदेश दे, अँग्रेज़ी अख़बार का हेडलाइन देख रहे हैं। बीच-बीच में विभिन अनुभागों के सहायक बारी-बारी से आकर फ़ाइलें रख जा रहे हैं। लेकिन आज फ़ाइलें देखने का नहीं सेलिब्रेट करने का समय है। सबको सरप्राइज़ देना है। साहब बालसखा को मज़ाकिया लहजे में कह रहे हैं—“राजू, मैं तो साहब बन गया।”
अंत में गंभीरता से सभी को यह अवगत कराना नहीं भूलते कि उन्हें बड़ी ज़िम्मेदारी दी गई है। कल से उसकी व्यस्तता बढ़ जाएगी। ऐसे में वह फ़ोन नहीं उठाएँ तो बुरा मत मानना। रामभरोसे सोच रहा है—साहब सही रास्ते पर जा रहे हैं।
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