संत शिवदयाल सिंह के दोहे
बैठक स्वामी अद्भुती, राधा निरख निहार।
और न कोई लख सके, शोभा अगम अपार॥
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जीव जले विरह अग्नि में, क्यों कर सीतल होय।
बिन बरषा पिया बचन के, गई तरावत खोय॥
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क्या हिन्दू क्या मुसलमान, क्या ईसाई जैन।
गुरु भक्ती पूरन बिना, कोई न पावे चैन॥
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मैं तड़पी तुम दरस को, जैसे चंद चकोर।
सीप चहे जिमि स्वाति को, मोर चहे घन घोर॥
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गुरु भक्ति दृढ़ के करो, पीछे और उपाय।
बिन गुरु भक्ति मोह जग, कभी न काटा जाय॥
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एक जन्म गुरु भक्ति कर, जन्म दूसरे नाम।
जन्म तीसरे मुक्ति पद, चौथे में निजधाम॥
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मोटे बंधन जगत के, गुरु भक्ति से काट।
झीने बंधन चित्त के, कटें नाम परताप॥
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काल मता वेदांत का, संतन कहा बनाय।
सत्तनाम सतपुरष का, भेद रहा अलगाय॥
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जिन सतगुरु के बचन की, करी नहीं परतीत।
नहि संगत करी संत की, वह रोवें सिर पीट॥
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बिन सत गुरु सतनाम बिन, कोई न बाचे जीव।
सत्त लोक चढ़कर चलो, तजो काल की सीव॥
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गुप्त रूप जहँ धारिया, राधास्वामी नाम।
बिना मेहर नहिं पावई, जहाँ कोई विश्राम॥
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सन्त दिवाली नित करें, सत्तलोक के माहिं।
और मते सब काल के, यों ही धूल उड़ाहिं॥
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राधास्वामी गाय कर, जनम सुफल कर ले।
यही नाम निज नाम है, मन अपने घर ले॥
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राधास्वामी रक्षक जीव के, जीव न जाने भेद।
गुरु चरित्र जाने नहीं, रहे करम के खेद॥
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जिनको कंत मिलाप है, तिनं मुख बरसत नूर।
घट सीतल हिरदा सुखी, बाजे अनहद तूर॥
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संत दिवाली नित करें, सतलोक के माहिं।
और मते सब काल के, योहिं धूल उड़ाहिं॥
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भव सागर धारा अगम, खेवटिया गुरु पूर|
नाव बनाई शब्द की, चढ़ बैठे कोई सूर॥
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अल्लाहू त्रिकुटी लखा, जाय लखा हा सुन्न।
शब्द छनाहू पाइया, भँवरगुफा की धुन्न॥
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मोटे बंधन जगत के, गुरु भक्ति से काट।
झीने बंधन चित्त के, कटें नाम परताप॥
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मोटे जब लग जायं नहिं, झीने कैसे जाय।
ताते सबको चाहिये, नित गुरु भक्ति कमाय॥
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मोटे जब लग जाय नहिं, झीने कैसे जाय।
ता ते सब को चाहिये, नित गुरुभक्ति कमाय॥
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राधास्वामी नाम, जो गावे सोई तरे।
कल कलेश सब नाश, सुख पावे सब दुख हरे॥
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बैठक स्वामी अद्भुती, राधा निरख निहार।
और न कोई लख सके, शोभा अगम अपार॥
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वेद बचन त्रैगुन विषय, तीन लोक की नीत।
चौथे पद के हाल को, वह क्या जाने मीत॥
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संत मता सब से बड़ा, यह निश्चय कर जान।
सूफ़ी और वेदांती, दोनों नीचे मान॥
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संत दया सतगुरु मया, पाया आद अनाद।
गत मत कहते ना बने, सुरत भई विस्माद॥
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लोक वेद में जो पड़े, नाग पाँच डस खाय।
जनम-जनम दुख में रहें, रोवें और चिल्लाय॥
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हक्क़ हक्क़ सतनाम धुन, पाई चढ़ सच खंड।
संत फ़क़र बोली जुगल, पद दोउ एक अखंड॥
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यह करनी का भेद है, नाहीं बुद्धि विचार।
बुद्धि छोड़ करनी करो, तो पाओ कुछ सार॥
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गुप्त रूप जहाँ धारिया, राधास्वामी नाम।
बिनो मेहर नहिं पावई, जहाँ कोई बिसराम॥
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कोटि कोटि करूँ बंदना, अरब खरब दंडौत।
राधास्वामी मिल गये, खुला भक्ति का सोत॥
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सुरत रूप अति अचरजी, वर्णन किया न जाय।
देह रूप मिथ्या तजा, सत्त रूप हो जाय॥
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सुरत रूप अति अचरजी, वर्णन किया न जाय।
देह रूप मिथ्या तजा, सत्तरूप हो जायं॥
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जब आवे सुत देह में, देह रूप ले ठान।
जब चढ़ उलटे सुन्न को, हंस रूप पहिचान॥
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सतगुरु संत दया करी, भेद बताया गूढ़।
अब सुन जीव न चेतई, तौ जानौ अतिमूढ़॥
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere