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मृदुला गर्ग

1938 | कोलकाता, पश्चिम बंगाल

समादृत कथाकार। साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित।

समादृत कथाकार। साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित।

मृदुला गर्ग के उद्धरण

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दिन का अंधकार ख़तरनाक होता है। रात का अँधेरा नींद लाता है, दिन का अँधेरा ख़्वाब।

अच्छा काम है लघु उद्योग चलाना। सामाजिक अपराध-बोध से आदमी बचा रहता है। लघु शब्द बड़ा करामाती है। बड़े उद्योग चलाओगे तो शोषक कहलाओगे, लघु उद्योग चलाओगे तो देश सेवक।

चलते हुए आदमी के लिए इंतजार करना आसान है। पर ठहरे हुए आदमी के लिए?

उम्र सिर्फ़ शरीर की बढ़ती है, मन की नहीं।

पगडंडियाँ समांतर रेखाएँ नहीं होतीं। भटक भटककर आगे बढ़ती हैं। अलग-अलग पगडंडियों पर चल रहे दो प्राणी कभी भी आपस में टकरा सकते हैं।

असल बात प्यार करना है, प्यार पाना नहीं।

प्रेम परोपकार नहीं होता। जो प्रेमी बलिदान चाहे, वह प्रेमी नहीं होता। बलिदान के बाद प्रेम, प्रेम नहीं रहता, परोपकार बन जाता है। आदर्श नहीं, घमंडी और बनावटी परोपकार।

चेहरे पर बेशुमार झुर्रियाँ हो, देह कम‌जोरी से लाचार हो तो मन का दर्द कम होने लगता है। इसलिए नहीं कि मन बूढ़ा हो जाता है....शायद इसलिए कि झुर्रीदार बदन बीते हुए दिनों में जीकर सन्तुष्ट हो जाते हैं। वर्तमान से लगाव नहीं रखते। आँखें मूँद लेते हैं और और आज को दूर खदेड़ देते हैं।

बलिदान देने से आत्मा कुंठित हो जाती है। आदमी अपने ऊपर घमंड करने लगता है।

आदमी सभ्य जो हो गया, समाज से विद्रोह करता है तो स्वयं अपने को अपराधी मान, सजा सुना देता है।

कायर को सबसे बड़ा डर यहीं होता है कि कहीं कोई उसे कायर कह दें। जो जितना बड़ा कायर होता है, उतना ही व्यापक होता है उसका अपराध-बोध। उतनी ही भयंकर होती है उसकी वेदना और शर्मनाक उसकी कायरता।

कायर होना एक बात है, कायर होने को स्वीकार करना दूसरी।

सुना है, मृत्यु का अवश्यम्भावी क्षण बहुत भयावह होता है। गिलोटिन के गिरने का दिन निश्चित हो; फाँसी के फंदे पर लटकने का लम्हा तय हो, बच के भाग निकलने की आशा शेष हो तो मनुष्य, मनुष्य नहीं रहता, डर और आशँका से कंपकंपाती नसों का लोथड़ा बन जाता है।

खुदा को मखौल की सख्त जरूरत है। लोगों को चाहिए, दिल खोलकर खुदा का मखौल उड़ाएँ। तभी वह आसमान से उतरकर ज़मीन पर सकता है।

लोगों की मदद करने से बढ़कर ख़तरनाक काम कोई नहीं है। भलाई योजनाबद्ध तरीके से की जाए तो भले के बजाय बुरा होने की पूरी गुंजाइश रहती है।

अगर समाज में रहने वाले हर पति को अपनी पत्नी से प्यार होगा और हर पत्नी को पति से, तो समाज की भला कौन परवाह करेगा? बच्चों की परवरिश बन्द हो जाएगी। व्यापार-व्यवसाय ठप्प हो जाएँगे। राजनीति का भट्टा बैठ जाएगा। बड़े-बूढ़े मर-खप जाएंगे। सभी स्त्री-पुरुष एक-दूसरे में डूबे रहेंगे और देश रसातल को चला जाएगा। प्यार होने पर और कुछ नहीं सूझता, है न? हमारा समाज कितना सूझ-बूझ वाला है, अपनी सुरक्षा का कितना बढ़िया उपाय ढूंढ निकाला है। तयशुदा ब्याह (अरेंज्ड मैरिज)। है न?

आजकल प्रेमी सभ्य हो गए हैं। समाज से भागकर गुफ़ाओं में पनाह नहीं लेते। सामाजिक नियमों का उल्लंघन कर भी जाएँ तो कुछ दिन बाद स्वयं लौट आते हैं, और खुद अपने-आपको ज़िंदा मौत के हवाले कर देते हैं।

हिंदुस्तानी स्त्री मातृत्व की साक्षात् प्रतिमा होती है। हिंदुस्तानी पुरुष की दृष्टि में। वह सोच भी नहीं सकता, वह माँ के अलावा कुछ और बनना चाह सकती है।

कंफेशन कायरता है। अपनी व्यथा को दूसरे के सिर मढ़ देना, कायरता नहीं तो, क्या है? जिसके प्रति अपराध हुआ हो, उसे सब कुछ बतला देना, गौरवान्वित अनुभव करके अपना अपराध कम करने की चाह से पैदा होता है।

अँधेरा अपना निजी होता है, बाहर चाहे कितनी भी रोशनी क्यों हो।

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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