मलूकदास के दोहे
जो तेरे घट प्रेम है, तो कहि-कहि न सुनाव।
अंतरजामी जानि है, अंतरगत का भाव॥
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उहां न कबहूँ जाइए, जहाँ न हरि का नाम।
दिगंबर के गाँव में, धोबी का क्या काम॥
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दया धर्म हिरदे बसै, बोलै अमृत बैन।
तेई ऊँचे जानिए, जिन के नीचे नैन॥
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राम-राम के नाम को, जहाँ नहीं लवलेस।
पानी तहाँ न पीजिए, परिहरिए सो देस॥
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किरतिम देव न पूजिए, ठेस लगे फुटि जाय।
कहैं मलूक सुभ आत्मा, चारों जुग ठहराय॥
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सब कोउ साहेब बंदते, हिंदू मुसलमान।
साहेब तिनको बंदता, जिसका ठौर इमान॥
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हरी डारि न तोड़िए, लागै छुरा बान।
दास मलूका यों कहें, अपना सा जिब जान॥
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जहाँ-जहाँ बच्छा फिरै, तहाँ-तहाँ फिरे गाय।
कहैं मलूक जहाँ संत जन, तहाँ रमैया जाय॥
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हम जानत तीरथ बड़े, तीरथ हरि की आस।
जिनके हिरदे हरि बसै, कोटि तिरथ तिन पास॥
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भेष फ़क़ीरी जे करै, मन नहिं आवै हाथ।
दिल फ़क़ीर जे हो रहे, साहेब तिनके साथ॥
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देवल पुजे कि देवता, की पूजे पहाड़।
पूजन को जाता भला, जो पीस खाय संसार॥
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साधो दुनिया बावरी, पत्थर पूजन जाय।
मलूक पूजै आत्मा, कछु माँगै कछु खाय॥
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माला जपों न कर जपों, जिभ्या कहूँ न राम।
सुमिरन मेरा हरि करे, मैं पाया बिसराम॥
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मलुका सोइ पीर है, जो जाने पर पीर।
जो पर पीर न जानहीं, सो फ़क़ीर बेपीर॥
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सुंदर देही पाय के, मत कोइ करैं गुमान।
काल दरेरा खाएगा, क्या बूढ़ा क्या ज्वान॥
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गर्व भुलाने देह के, रचि-रचि बाँधे पाग।
सो देही नित देखि के, चोंच सँवारे काग॥
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सुंदर देही देखि के, उपजत है अनुराग।
मढी न होती चाम की, तो जीबत खाते काग॥
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इस जीने का गर्व क्या, कहाँ देह की प्रीत।
बात कहते ढह जात है, बारू की सी भीत॥
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कठिन पियाला प्रेम का, पिए जो हरि के हाथ।
चारों जुग माता रहे, उतरै जिय के साथ॥
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जेती देखे आत्मा, तेते सालिगराम।
बोलनहारा पूजिये, पत्थर से क्या काम॥
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आतम राम न चीन्हहों, पूजत फिरै पाषान।
कैसहु मुक्ति न होयगी, कोटिक सुनो पुरान॥
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करें भक्ति भगवंत की, कबहुं करै नहिं चूक।
हरि रस में राचो रहै, साँची भक्ति मलूक॥
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कह मलूक हम जबहिं ते, लीन्हों हरि को ओट।
सोवत है सुख नींद भरि, हरि भरम की पोट॥
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जागो रे अब जागो भैया, सिर पर जम की धार।
ना जानूँ कौने घरी, केहि ले जैहै मार॥
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कुंजर चींटी पशू नरे, सब में साहेब एक।
काटे गला खोदाय का, करै सूरमा लेख॥
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गुप्त प्रगट जेती करी, मेरे मन की खूम।
अंतरजामी रामजी, सब तुमको मालूम॥
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रात न आवै नींदड़ी, थर-थर कांपे जीव।
न जानू क्या करैगा, जालिम मेरा पीव॥
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भ्रम भागा गुरु बचन सुनि, मोह रहा नहिं लेस।
तब माया छल हित किया, महा मोहनी भेस॥
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जीवहुँ ते प्यारे अधिक, लागैं मोहीं राम।
बिन हरि नाम नहीं मुझे, और किसी से काम॥
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सुखद पंथ गुरुदेव यह, दीन्हों मोहिं बताय।
ऐसो ऊपट पाथ अब, जग मग चलै बलाय॥
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बिना अमल आता रहै, बिन लस्कर बलवंत।
बिना बिलायत साहेबी, अन्त माँहिं वे अंत॥
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आदर मान महत्व सत, बालापन को नेह।
यह चारो तबहीं गए, जबहिं कहा कछु देह॥
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हरि रस में नाहीं रचा, किया काँच व्योहार।
कह मलूक वोही पचा, प्रभुता को संसार॥
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जे दुखिया संसार में, खोवो तिनका दुक्ख।
दलिद्धर सौंप मलूक को, लोगन दीजै सुक्ख॥
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जेते सुख संसार के, इकट्ठे किए बटोर।
कन थोरे कांकर घने, देखा फटक पछोर॥
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प्रेम नेम जिन ना कियो, जीतो नाहीं मैन।
अलख पुरुष जिन न लख्यो, छार परो तेहि नैन॥
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जीती बाजी गुर प्रताप तें, माया मोह निवार।
कहें मलूक गुरु कृपा ते, उतरा भवजल पार॥
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ताको आवत देखि कै, कही बात समुझाय।
अब मैं आया हरि सरन, तेरी कछु न बसाय॥
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere