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साहित्य का फूल अपने ही वृंत पर

sahitya ka phool apne hi vrint par

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

साहित्य का फूल अपने ही वृंत पर

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

और अधिकसूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

    कला निष्कलुष है। दुनिया में वह अपना सानी नहीं रखती। साहित्यकार के लिए उसके अपर अंगों के ज्ञान से पहले बोध आवश्यक है। जैसे बीजमंत्र, उसका अर्थ, पश्चात् अनिंद्द सुंदर रूप उसी के फूल की तरह उसके अर्थ के। डेंटल पर खिला हुआ। नया जन्म जिस तरह, एक युग की संचित अनुभूतियाँ अपने भीतर से रूप और भाव पैदा करती हैं; यही युगांतर की कला है—साहित्य में रस और रूप के प्रवर्तन का दिव्य स्रोत। सूक्ष्मतम विवेचन सनातन को जिस तरह नित्य स्थिति देता है, उसी तरह कला भी नित्य रहस्य में दाख़िल है—अपरिवर्तनीय; पर नए कोंपल, नए फूल, नई शरत्, नई आँखें, नई शशि-स्निग्ध दृष्टि और नई रोशनी अपने समय के नक़ाब के भीतर से चंचल देखती हुई लोगों की नज़र बाँध ही लेती हैं। इसीलिए नित्य-नवीन, चापल्यतल्प, अप्रसंग काम्य, साहित्य की एक ही कल्पलता है। जिसे पुरानापन कहते हैं, वह जैसे एक युग तक एक ख़ासतौर की कला पर नज़र फेरते हुए अभ्यास के जंग की ही मलिनता हो; फिर जैसे सुबह के सूरज की किरनों से निखरा, शबनम का धुला हुआ नया फूल अकल डाल पर उत्कीर्ण कला का एक नैसर्गिक चुंबन बन रहा हो। साहित्य की ज़मीन खिल उठती है।

    कला का आकरण-भेद वैसा ही है, जैसा व्याकरण का; जल जड़ हुआ, जड़ जल; ऐसा ही दर्शन-शास्त्र में। महत्त्व सिर्फ़ सामयिक है। समय का प्रभाव ही एक ख़ास जल को तीर्थ-जड़ और जंगम वेतन बना देता है, जैसे कैलास को अर्धेदु-शिखरा कला गंगा को महत्त्व देती, कृष्ण की अखिल ‘तत्त्वमसि’ कला यमुना को, महाकालेश्वर की पल-त्वरित-पद-ताल चित्रा को अनसूयाजी की पयःस्राविनी तपस्या पयस्विनी को। कला उसी तरह समय के स्वर्ण-घट में प्राण प्राप्त कर पूजक साहित्यिकों की दिव्य दृष्टि बन जाती है, जिससे साहित्य का सामयिक जड़ पिघलकर जल बनकर बह चलता है।

    जैसे संगीत में किसी एक रागिनी की प्रधानता नहीं, बंगाली, पूरबी, मुलतानी, ग़ज़ल, कनाडी, तिलंगी, बैरारी, लखनऊ की ठुमरी आदि ऐकदेशिक तथा मिली हुई रागिनियों के सार्वभौम प्रचार के साथ-साथ छहों राग तथा रागिनियाँ सर्वत्र गाई जाती हैं, और अब देश के प्राणों के साथ बिल्कुल परिचित की तरह मिल गई हैं, वैसे ही कला के अपने सामयिक लिबास से पहले-पहल आने पर थोड़े ही से लोग वह रंग रूप पहचान सकते हैं; क्योंकि अपने समय की वस्तु का आविष्कार, पूर्व-सूचन, परिचय और समर्थन आदि विज्ञानवेत्ता ही करते हैं। हर रागिनी की जान की तरह सामयिक साहित्यकला की भी एक जान है। जान रागिनी की सच्ची पहचान है, और साहित्य कला की पहचान उसकी व्यापक महत्ता, एक असर जो दिल को खिलाता और हिलाता है, मौसम की तरह, एक ख़िज़ाँ, दूसरा बहार। दोनों में अलग-अलग स्वर बज रहे हैं।

    हर देश की एक ख़ुसूसियत कहलाती है, जो उसकी आबोहवा से मिली होती है। हिंदोस्तान की जितनी बातें प्राणों से मिली हुई आत्मा बन गई हैं, वे इस समय उसकी अपनी चीज़ें कहलाती हैं। अपनी संस्कृति पर हम इसे ही पहले की संस्कृति और अभ्यास में बदली हुई परिणति कहते हैं; यह आत्मा होकर भी आत्मा नहीं, जीर्णता है, भले ही सनातन हो। हम नवीनता को ही यहाँ सनातन कहेंगे। आत्मा पुरानी नहीं होती, चोला पुराना होता है। इस तरह, पकड़ रखने की कोई चीज़, कोई संस्कृति नहीं हो सकती, और चोला पकड़ रखने पर भी पकड़ा नहीं रहता। आब और हवा पकड़े नहीं जा सकते। इसलिए देश की आबोहवा या ख़ुसूसियत कोई चीज़ नहीं हो सकती। स्वामी विवेकानंदजी इसीलिए हिंदोस्तानियों की कोई नस्ल नहीं निकालते—“शून्य भीत पर चित्र रंग बहु, तन बिन लिखा चितेरे”—यही यहाँ की नस्ल है।

    आब और हवा हर वक़्त नए हैं, यहाँ तक कि कूप-मंडूक को भी कुएँ के अतल सोते से नया ही नया जल मिलता जाता है। हवा रोज़ ताज़ी चलती, आसमान हर वक़्त नए रंग बदलता है। फिर भी लोग संस्कारों के अनुसार की हुई सोची हुई बातें ही लिखते, चली हुई राहें ही चलते हैं। हम साधारण जन इसे ही अपने साहित्य की, जो कुछ लिए हुए हैं, उसकी रचना कल्पनाएँ किया करते हैं। यही हमारा सनातन-धर्म है। इसी किए और सोचे हुए में डूबकर चमत्कृति को हम लोगों ने संस्कृति बना लिया है। पर यहाँ जैसे वस्त्रों के बारे में प्रतिलिपि है, चित्र हैं कि बौद्ध-काल तक यहाँ सिले हुए कपड़े नहीं बन सकते थे, यह मुसलमानों को दी हुई विभूति है, यद्यपि सूचि-व्यूह से सुई और नौ-विद्या से Navigation का होना साहित्य-संभव है, अस्तु, उसी तरह यह भी कहा जा सकता है कि कुर्ता, वास्कट, मिर्ज़ई आदि की सुहावनी प्राचीनता इस देश की आबोहवा के लिए संभव होती हुई भी अब संभाव्यता को बहुत बुरी तरह जकड़े हुए है, जैसे श्रीरामजी मिर्ज़ई पहनकर दरबार में जाते रहे हों! कम-से-कम वैदिक साहित्य के ज्ञाता हमारे आर्य समाजी भाई तो ऐसा ही कहेंगे।

    हम दोनों प्रकार की कला को साहित्य में सन्निविष्ट करते हैं। जिस वृंत पर वह कृति की कलिका खिलती है, वह है भाषा। भाषा भी समयानुसार अपना रूप बदलती रहती है। कला के विकास के साथ-साथ साहित्य में नई भाषा भी विकसित होती है। हरा कैंड़ेदार मज़बूत डंटल ही कृशांगी नवीन कला को चाहिए। कोमल और कठोर, आत्मा और प्राणों का ऐसा ही संबंध रहा है। ब्रज-भाषा पूर्ण भाषा है, खड़ी बोली हिंदी के हृदय की अश्रांत आशा, सार्वदेशिक प्रसार से लिपटी हुई, जड़ और चेतन के विश्व-संसर्ग से बंधन-हीन, चित्रा और विचित्रा। यह घर बड़े ही मर्मज्ञ कलावंत का है। वह ब्रज साहित्य अपने भावना प्रसार को कर्मकांड तथा ज्ञानकांड के भीतर से शेर के संकोच को झपट में देखना चाहता है। तमाम विश्व, नहीं, तमाम सौरमंडल को क्रिया तथा ज्ञान के भीतर डाल लेना चाहता है; महावीर विजयी सिकंदर एक नंगे संन्यासी का शौर्य निर्भय तंत्र में प्रदर्शित करता है, इसीलिए यह कला दिग्वसना श्यामा सुंदरी है—ज्ञानांबुधि की अगणित ऊर्मिमयी महासीमा। वह प्राचीन वसंत आज अनंत-किसलय-मृदुल पुष्प संकुल स्निग्ध-वायु-कंपित मर्मर ध्वनि करता, अभ्यास-जीर्णता उढ़ाता हुआ पुनः प्रतिष्ठित होना चाहता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रबंध-पद्म (चुने हुए साहित्यिक निबंध) (पृष्ठ 169)
    • रचनाकार : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
    • प्रकाशन : गंगा फ़ाइन आर्ट प्रेस
    • संस्करण : 1934

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