उम्मीद का चक्र जब पूरा होता है, तब ज़िंदगी कहाँ होती है!
शशांक मिश्र
23 जनवरी 2025
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सुंदरता की अपने तहें होती हैं। बहुत मुलायम और क्रूर भी। मन हमेशा इतना ही अनजान रहता है कि वह परतों के इस जमावड़े को भूल जाए। कहाँ ध्यान रहता है कि सुख के किस क्षण ने हाल में फूटे दुखों के ज्वालामुखी को पाटा। अवकाशहीनता ने यह सच भी धुँधला कर दिया है कि जीवन इन्हीं सब से मिलकर बना है।
‘You can’t escape your fate’ : ‘नियति से भागकर जाने का कोई रास्ता नहीं है’
सिनेमाघरों में नई फ़िल्म लगी है। नाम है—All We Imagine As Light, 3 नर्सों की कहानी। जीविका की तलाश में मुंबई प्रवास। भाव, संघर्ष, इच्छाएँ, उम्मीदों के साथ जीवनचर्या का बहीखाता। तीनों महिलाओं के आय-वर्ग अलग हैं। यही जीवन-यात्रा का बिंब भी है।
आपको बोगनवेलिया अच्छा लगता है, किसी के लिए समंदर सुकून है। आपको यक़ीन नहीं होगा, लेकिन कोई राइस कुकर को देखकर भी बहुत ख़ुश हो सकता है। पसंद के इस पायदान के पीछे कई अदृश्य सीढ़ियाँ हैं। कितना कुछ जुड़ा होता है जो मालूम ही नहीं चलता।
फ़िल्म में एक सीन है—नर्स प्रभा के घर पर पार्सल आया है। अंदर एक राइस कुकर निकलता है। पहले-पहल ख़बर नहीं कि कहाँ से आया या किसने भेजा होगा? फिर अटकलें और ‘मेड इन जर्मनी’ पढ़कर अतीत का कौंधना। दरअस्ल, प्रभा के पति जर्मनी में रहते हैं। शादी के तुरंत बाद चले गए थे। फिर साल में एक बार बात का सिलसिला और अब बहुत दिनों से सिर्फ़ गहरा अकेलापन। जब पुरानी याद की थपेड़ लगती है तो प्रभा उस राइस कुकर को भींचकर गले लगाती है। यह दृश्य इतना मांसल है कि शांति में भी चीखता-सा लगता है।
यह फ़िल्म तीन ज़िंदगियों का समुच्चय है। तीनों समानांतर चल रही हैं। एक-दूसरी से जुड़ी होकर भी बिल्कुल अलहदा। फ़िल्म आपके ‘देख लेने’ की क्षमता का भी विस्तार करती है। सवाल वही कि आप जिन रुढ़ियों को बीते वक़्त का बता रहे हैं, अगर उससे औचक सामना हो जाए तो आप क्या करेंगे?
फ़िल्म में एक संवेदनशील सीन और है—तीनों में सबसे बड़ी नर्स पार्वती की ज़िंदगी मझधार में है। ‘अपने घर’ को बचाने की लड़ाई। बिल्डर पुरानी इमारत तोड़कर आसमान चूमती नई इमारत खड़ी करना चाहता है। पार्वती के पति के नाम पर घर के काग़ज़ थे जो उनकी मौत के बाद से गुम है। बिल्डर से गुहार, तीखी तकरारें और फिर जैसा अमूमन होता है—बिल्डर के ख़िलाफ़ गुटबाज़ी और नारेबाज़ी। परिणाम सिफ़र। नतीजतन पार्वती का ग़ुस्सा—बेबसी और झुँझलाहट में बदल जाता है।
वह बदले में बिल्डर के होर्डिंग पर पत्थर उछालती है लेकिन उस पर उतने ही पत्थर शब्दों में लिखा होता है—‘Class is a privilege reserved for the privileged’
कहानी का निचोड़ ‘उम्मीद’ भी है। नियमित नहीं, बस दूरस्थ आस। रोज़मर्रा के सहारे का अदृश्य वृत्त। दैनिक-चक्र में मरीज़ों की देखभाल कर तीमारदारों को उम्मीद देना। अनु के लिए प्रेम से उम्मीद, प्रभा के लिए पति के लौट आने या उनसे बात करने की उम्मीद। पार्वती के लिए अपने घर को फिर से पाने की उम्मीद।
‘ख़ैर’ कहने से अंदर फेफड़ों में भरी सारी साँस इच्छाओं सहित बाहर आ जाती है। यही जीवन की सबसे यक़ीनी सचाई भी है। संवाद जब ‘ख़ैर’ पर पहुँचता तब भी कितना कुछ बाक़ी होता है। भाव जड़वत। जीवन जड़वत। उदासी जड़वत। दोस्तोयेवस्की ने ‘Crime & Punishment’ में पूछा था—“Do you understand what it means when you have absolutely nowhere to turn?” प्रभा, अनु और पार्वती—इन तीनों नर्सों की ज़िंदगी सिर्फ़ इसी धुरी के इर्द-गिर्द घूर्णन में गुज़रती है।
मुश्किल है अंधकार में रोशनी की कल्पना। एक समय के बाद आप ख़ुद के लिए प्रकाश-स्तंभ बन जाते हैं। उजाला किसी और शक्ल में आता है। कहीं अंदर से। स्वीकार्यता का बोध और बोझ से राहत।
ऐसा सिनेमा बनना चाहिए और देखा भी जाना चाहिए।
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