समीक्षा : मृत्यु अंत है, लेकिन आश्वस्ति भी
जावेद आलम ख़ान
02 सितम्बर 2025

मृत्यु ऐसी स्थिति है, जिसका प्रामाणिक अनुभव कभी कोई लिख ही नहीं सकता; लेकिन इस कष्टदायी अमूर्तता के स्वरूप, दृश्य और प्रभाव को वरिष्ठ कवि अरुण देव ने पूरी सफलता के साथ काव्य शैली में ढाल दिया है। ‘मृत्यु : कविताएँ’ इस मायने में अनूठा संग्रह है कि हिंदी-साहित्य में मृत्यु-संबंधी कविताओं की यह इकलौती पूरी किताब है। कवि ने मृत्यु का एक पूरा दर्शन रच दिया है। यह संग्रह मृत्यु की बनी-बनाई अवधारणा के विपरीत नई दृष्टि प्रदान करता है। नदी तीरे मसान में जलती चिताओं के दृश्य हों या मृत्यु की महत्ता के पक्ष में दिए कवि के तर्क; अरुण देव हर स्थिति को रखने और उद्दीप्त करने में महारत रखते हैं।
शब्दों की कमख़र्ची से भावों का पूरा कोश उड़ेल देने की कला में निपुण कुछ चुनिंदा कवियों में शामिल हैं अरुण देव। कविताएँ आकार में छोटी हैं लेकिन विषयवस्तु और प्रभाव में बहुत बड़ी। दर्शन और रस का अद्भुत मिलाप है इस संग्रह में। मृत्यु के बहाने कवि दरअस्ल जीवन को जीवंतता देने की बात करता है। उसकी कला जीवन की हिमायती है।
इन कविताओं पर गीता और वेदों का प्रभाव है लेकिन कवि ने अपने चिंतन और अंदाज़-ए-बयाँ से इसे ताज़गी दी है। इन कविताओं में मृत्यु डराती नहीं है; माँ की थपकी देती प्रतीत होती है। कवि लिखते हैं—“जब पुतलियों के उठने की इच्छा भी मर जाती है/ उन्हें ढक देती है/ अपनी करुणा से वह।”
मृत्यु अंत है लेकिन आश्वस्ति भी। यहाँ कवि फूल, रंग और फल के टपक जाने के बाद बीज के रह जाने का उदाहरण देकर नवजीवन के लिए मृत्यु की अनिवार्यता को स्वीकार करता है। मूल रूप से यह कविताएँ दर्शन की कविताएँ लगती हैं। अधिकांश कविताओं में अलग-अलग उदाहरणों से पंचमहाभूतों के अपनी-अपनी जगह पहुँच जाने, शारीरिक कष्टों से मुक्ति तथा प्रकृति और विकृति के संबंधों को दर्शाया है, लेकिन इन्हीं कविताओं में प्रतिरोध के स्वर भी हैं। मृत्यु को सहज भाव से स्वीकार करना ही दरअस्ल निर्भय हो जाना है। इसी पुस्तक की भूमिका में राधावल्लभ त्रिपाठी ने तफ़्सील से इस पर रौशनी डाली है। दसवीं कविता में मृत्यु के भय के बहाने कवि कितना सटीक प्रहार करता है, देखिए—“मृत्यु से पहले/ मृत्यु के डर से/ मर जाते हैं लोग/ मरे हुए लोगों के पास नहीं जाती वह”
इकसठवीं कविता मन-मस्तिष्क में अटक गई है। साम्राज्यवादी दैत्य का युद्ध में मासूमों को निगलते जाना, रोते बिलखते परिजन, जख़्मी बच्चे का दूसरे रोते बच्चे को चुप कराना और उससे भी छोटे को बिलखते देख पहले वाले बच्चे का चुप हो जाना... उफ़्फ! पूरा फिलस्तीन इस एक कविता में कवि ने उतार दिया और इसका निचोड़ है यह अंतिम पंक्ति—“मलबे से निकल रहे हैं फूल जैसे बच्चे”
बचपन में सुपर कमांडो ध्रुव की एक कॉमिक्स पढ़ी थी—‘मुझे मौत चाहिए’। इसमें एक बूढ़े को अमरता का वरदान प्राप्त था, लेकिन वह अपने जीवन से परेशान था और मृत्यु के लिए लगातार प्रयास करता रहता था। इस संग्रह की चौबीसवीं कविता की अंतिम पंक्ति है—“देह बिलखती है मृत्यु के लिए”, उस बूढ़े की पीड़ा को इस पंक्ति में महसूस कर पा रहा हूँ।
मृत्यु के बाद के दृश्य रचने में कवि की विशिष्ट प्रतिभा के दर्शन होते हैं। पुस्तक में अलग-अलग स्थितियों में इन दृश्यों की बहुतायत है। इनसे गुज़रते हुए महसूस होता है कि रचनाकार ने गद्य की रेखाचित्र विधा को पद्य में उतार दिया है।
मृत्यु, जीवन, संसार आदि के लिए कवि ने जिन बिंबों और उपमाओं का प्रयोग किया है, उनमें नवीनता है। कहन भी प्रभावित करता है। कुछ उदाहरण देखिए—“इस कुएँ से रस्सी के सहारे/ बाहर निकला/ जिसे लटका रखा था मृत्यु ने।”
“पत्ते पर रखी काँपती रौशनी
विसर्जित होती है अब लहरों पर”
“फूल की कब्र पर हरे पत्तों के ज़ख्म है”
इन कविताओं में एक ख़ास बात यह है कि जीवन से निवृत्ति की नहीं, प्रवृत्ति की कविताएँ हैं। इनमें पलायनवादी दृष्टिकोण का स्पष्ट नकार है। मृत्यु से निर्भय रहने की बात इसलिए है कि जीवन को जीवन की तरह जिया जाए। जो दूसरों के सुख-दुख में हँसते-रोते नहीं और हमेशा क्रोध और घृणा से भरे रहते हैं, ऐसे लोगों को कवि प्रेत की तरह भटकता हुआ मानता है।
कवि का दुख है कि अन्याय, हिंसा, हत्या, कट्टरता और तानाशाही की मृत्यु क्यों नहीं होती। बुरे दिनों का अंतिम दिन कब होगा पूछकर कवि विश्वव्यापी चिंता को स्वर देता है।
संग्रह की कुछ कविताएँ सीधे-सीधे धर्म, सत्ता और पूँजी के गठजोड़ वाली व्यवस्था पर चोट करती हैं। इस व्यवस्था में शृंगार से कुरूपता, तुरही की आवाज़ से अन्याय और चमकते दृश्यों से निराश्रित लोग ढक दिए जाते हैं। जो दिखता है वह केवल भ्रम होता है। कवि इस व्यवस्था से सवाल पूछता है—“यह दीए किसकी अगवानी में जले हैं”
कविता ‘संख्या नवासी’ बेहद मारक कविता है, जहाँ कवि धर्म के पाखंड पर प्रहार करता है। इस पाखंड और संकीर्णता ने धर्म को भी हिंसक बना दिया है। कवि कहता है—“मैं भागता रहता हूँ अनुसरण से/ आस्था का एक छुरा है मेरे नाम का।”
यक़ीनी तौर पर कह सकता हूँ कि पिछले कुछ वर्षों में आए सबसे बेहतरीन चुनिंदा कविता-संग्रहों में से एक है ‘मृत्यु : कविताएँ’।
'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए
कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें
आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद
हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे
बेला पॉपुलर
सबसे ज़्यादा पढ़े और पसंद किए गए पोस्ट
23 सितम्बर 2025
विनोद कुमार शुक्ल : 30 लाख क्या चीज़ है!
जनवरी, 2024 में मैंने भोपाल छोड़ दिया था। यानी मैंने अपना कमरा छोड़ दिया था। फिर आतंरिक परीक्षा और सेमेस्टर की परीक्षाओं के लिए जाना भी होता तो कुछ दोस्तों के घर रुकता। मैं उनके यहाँ जब पहुँचा तो पाया
05 सितम्बर 2025
अपने माट्साब को पीटने का सपना!
इस महादेश में हर दिन एक दिवस आता रहता है। मेरी मातृभाषा में ‘दिन’ का अर्थ ख़र्च से भी लिया जाता रहा है। मसलन आज फ़लाँ का दिन है। मतलब उसका बारहवाँ। एक दफ़े हमारे एक साथी ने प्रभात-वेला में पिता को जाकर
10 सितम्बर 2025
ज़ेन ज़ी का पॉलिटिकल एडवेंचर : नागरिक होने का स्वाद
जय हो! जग में चले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को। जिस नर में भी बसे हमारा नाम, तेज को, बल को। —दिनकर, रश्मिरथी | प्रथम सर्ग ज़ेन ज़ी, यानी 13-28 साल की वह पीढ़ी, जो अब तक मीम, चुटकुलों और रीलों में
13 सितम्बर 2025
त्याग नहीं, प्रेम को स्पर्श चाहिए
‘लगी तुमसे मन की लगन’— यह गीत 2003 में आई फ़िल्म ‘पाप’ से है। इस गीत के बोल, संगीत और गायन तो हृदयस्पर्शी है ही, इन सबसे अधिक प्रभावी है इसका फ़िल्मांकन—जो अपने आप में एक पूरी कहानी है। इस गीत का वीड
12 सितम्बर 2025
विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय : एक अद्वितीय साहित्यकार
बांग्ला साहित्य में प्रकृति, सौंदर्य, निसर्ग और ग्रामीण जीवन को यदि किसी ने सबसे पूर्ण रूप से उभारा है, तो वह विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय (1894-1950) हैं। चरित्र-चित्रण, अतुलनीय गद्य-शैली, दैनिक जीवन को