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ऋषिकेश : नदी के नगर का नागरिक होना

शहर हम में उतने ही होते हैं, जितने हम शहर में होते हैं। ऋषिकेश मेरे लिए वक़्त का एक हिस्सा है। इसकी सड़कों, गलियों, घाटों और मंदिरों को थोड़ा जिया है। जीते हुए जो महसूस होता है, वही तो जीवन का अनुभव है। पहली बार जो देखा था, उसमें बचपन की धुंधली स्मृतियों का हिस्सा है। रामझूले का कंपन अभी भी ज़ेहन में ताज़ा है। फिर बार-बार आना हुआ लेकिन लौटते हुए बस के शीशे से चेहरा बाहर निकालकर मोह के साथ शहर को  पलटकर देखा है। जाना—एक दिन लौट आना है। रोज़ी-रोटी के सिलसिले ने यहाँ रहना संभव बनाया, इसीलिए हमेशा लगता रहा जगहों को खुला होना चाहिए। कोई भी स्थिति यदि लोगों की गति और जीने को बाधित करती है, तो वह वरेण्य नहीं।

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योग नगरी बेशक आज का मुहावरा है, मगर इस शहर में पहले कुछ ज़्यादा योग था और विलास थोड़ा न्यून। आज जिसे ‘बीटल्स आश्रम’ कहा जाता है, ‘बीटल्स’ के आने से पहले महर्षि योगी का यहाँ बड़ा ध्यान केंद्र था। एक चुंबकीय आकर्षण था महर्षि में, जिससे दुनिया भर के लोग उनके आश्रमों का रुख़ करते थे। महर्षि महेश योगी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के विज्ञान स्नातक थे। उन्होंने ध्यान की अपनी विधि विकसित की, जिसे ट्रांसडेंटल मेडिटेशन तकनीक (टी.एम.टी) कहा गया—ध्यान की गहरी विधि। महर्षि योगी इलाहाबाद से ऋषिकेश आए और अपने गुरु ब्रह्मानंद सरस्वती का सान्निध्य पाया। उत्तरकाशी के हिमालय पर मौन और एकांत की साधना को आत्मसात किया। अपने गुरु के स्वर्गवास के बाद, उन्होंने देश का विचरण किया। महर्षि महेश योगी ने लगभग पूरे यूरोप और अमेरिका के सांस्कृतिक-आध्यात्मिक भ्रमण के पश्चात, कुछ समय के लिए ऋषिकेश को अपने आध्यात्मिक प्रयोगों का केंद्र बनाया। 

1968 में दुनिया में रॉक बैंड की धूम थी, महर्षि योगी से वह (बीटल्स) ब्रिटेन में मिले थे। फिर महर्षि द्वारा प्रणीत ध्यान विधियों से प्रभावित होकर, वह इस शहर का रुख़ करते हैं। तब महर्षि योगी का आश्रम दुनिया के मानचित्र पर आ जाता है, रॉक बैंड ‘बीटल्स’ के वाद-विवाद और आरोप-प्रत्यारोप के बाद यूरोप लौटने की कहानी अलग है।

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इस शहर को लेकर लोग प्राय: रोमांटिक भावना से भरे रहते हैं। इस शहर के पर्यटन स्थल मंदिर, राम झूला, लक्ष्मण झूला और कुछ आश्रम लोगों के ज़ेहन में घूमते हैं। मगर यह शहर वह ना रहा जो कभी पहले हुआ करता था। ख़ैर इस बात को ऐसे भी कहा जा सकता है कि कोई भी शहर वह ना रहा जो पहले हुआ करता था। गांधी अपनी आत्मकथा में हरिद्वार की भीड़-भाड़ और गंदगी को लेकर थोड़ा हताश नज़र आते हैं, मगर ऋषिकेश उन्हें लुभाता है। झूला-पुलों में उन्हें कोई आकर्षण नहीं दिखाई देता।

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इस शहर की गलियाँ और उनके मोड़ों के कोण तक से एक गहरा नाता महसूस होता है। लगभग सोलह वर्षों का वक़्त कम नहीं होता, किसी शहर को महसूस करने के लिए। जब तक आपके जूतों पर किसी शहर की धूल गहरे तक जम न जाए, और इतनी ज़्यादा कि उसे इरेज़ करने वाली कोई भी क्रीम उस धूल के धूसरपन को धूसरित न कर सके; तब मानिए आपका उस शहर में रहना ज़ाया नहीं है। 

ऋषिकेश का अर्थ होता है—इंद्रियों पर संयम का शहर। कहते हैं एक दौर में ऋषिकेश में आबादी बहुत कम थी, जंगल बहुत ज़्यादा। हरिद्वार तक लोगों की आवाजाही ज़्यादा थी, ऋषिकेश तक थोड़ा कम लोग ही आ पाते थे। यायावर, संत, फ़कीरों को जल की तरह प्रवाहमान रहने की आदत रही है। कहते भी हैं ‘ठहरे हुए जल और ठहरे हुए साधु में विकार आ जाता है’। इस विचार ने लोगों को एक निश्चित जगह पर ठहरने से अधिक चलने के लिए प्रेरित किया। ऋषिकेश के आंतरिक भूगोल और समाज को देश के तमाम हिस्सों से आए इन साधों ने हिंदुस्तानी मिज़ाज से युक्त किया। इस शहर में आपको देश के हर हिस्से का नागरिक मिल जाएगा, उत्तर से लेकर सुदूर दक्षिण तक और यह बात यहाँ के आश्रम और उनके महंत-साधुओं पर भी लागू होती है। उनका कनेक्शन बंगाल, हरियाणा, राजस्थान, तमिलनाडु, उड़ीसा से मिलेगा। यहाँ के आश्रमों ने देश-देशांतर में भारतीय दर्शन और विचार को प्रसारित किया। शिवानंद आश्रम यहाँ के पुराने आश्रमों में से है। दक्षिण के प्रांत तमिलनाडु में जन्मे स्वामी शिवानंद वेदांत के उद्भट विद्वान होने के साथ चिकित्सक रहे। एक बड़ी आध्यात्मिक विरासत का उन्होंने निर्माण किया। परमार्थ निकेतन महज़ गंगा आरती के लिए ही नहीं, बल्कि एलीट शैली के लिए भी चर्चा के केंद्र में रहता है। योग को ऋषिकेश से निकाल योग के आचार्यों ने योगा बनाया। गहरा संगीत, धीमी कमेंट्री, सुमधुर आवाज़ के गहरे मिक्सचर ने एक अलहदा कल्चर को जन्म दिया।

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निदा फ़ाज़ली ने कभी कहा था ‘हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी/ जिस को भी देखना हो कई बार देखना’। इस शहर का एक हिस्सा आश्रमों का हिस्सा है—स्वर्ग आश्रम, परमार्थ निकेतन से लेकर गीता भवन, जहाँ देशी से ज़्यादा विदेशी घुमंतू मिलेंगे। यह अपने साथ डॉलर लेकर आते हैं, इसलिए इनकी चाँदी है और यह लोकल के लिए सोना हैं। इनको कोई नाराज़ क्यों करना चाहेगा, इनको फ़ील-गुड कराने के लिए लोकल भी इनका लबों-लहज़ा सीखता है, उधार लेता है। कुछ लोगों में पश्चिम के प्रति यहाँ इतनी ललक मिलेगी जिसे आप नज़दीक से ही जान पाएँगे, अरे यह तो इंडियन है। इस आत्मसातीकरण का एक बड़ा कारण पश्चिम से आने वाले पर्यटक हैं, जो स्थानीय जन की रोज़ी-रोटी का माध्यम हैं। कई बार स्थानीय लोगों के लिए पश्चिम का रास्ता भी खुल जाता है। योग जबसे ‘योगा’ हुआ तबसे यह प्रवृत्ति तीव्र हुई और यह एक अच्छा संकेत ही है।

इस बीच की कई सारी हिंदी फ़िल्में ऋषिकेश को चित्रित करती हैं, जैसे ‘दम लगा के हाईसा’, इरफ़ान की ‘क़रीब-करीब सिंगल’। ‘दम लगा के हाईसा’ ने ऋषिकेश में राम झूला और लक्ष्मण झूला को पोट्रेट करने के साथ स्थानीय समुदाय की उपस्थिति को भी दर्ज किया, इसमें जो परिवार हैं उसकी जड़े बृज संस्कृति में प्रतीत होती हैं। लेकिन स्थानीय दृश्य और उन्हें बरतने का सलीक़ा इस फ़िल्म का विशेष है। फ़िल्में समाज के मनोविज्ञान का बड़ा हिस्सा है। ‘क़रीब-करीब सिंगल’ में नायक और नायिका ज़िंदगी की उलझन में है, जो ज़िंदगी की बटिया है, वो इतनी उलझी है उस पर चलना मुश्किल। खोए हुए रास्तों को तलाशने ही तो लोग यहाँ आते हैं। दौड़ती-भागती ज़िंदगी में एक त्वरा तो है, मगर सुकून लापता। ऐसे में भीड़ में डूबे और भीड़ से ऊबे लोग इस शहर की ओर रुख़ करते हैं।

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गंगा पतित पावनी है। ऋषिकेश अथवा हरिद्वार के पंडे अथवा किसी भी पूजा-अर्चना करने वाले से अर्ज़ कीजिए राख और पूजा सामग्री गंगा में प्रवाहित मत कीजिए, पहले तो वह आपकी बात का लोड ही नहीं लेगा, ग़र आप अपने शब्दों की आवृति करते हैं तो निंदा के पात्र होंगे, भीड़ के सामने। यह अलग बात है गंगा समिति द्वारा हर जगह बोर्ड पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा गया है, गंगा में पूजा सामग्री न डालें, मगर लोग हैं साल भर की अपनी लाल पोटली खोल ही देते हैं। खंडित मूर्तियाँ, पूजा सामग्री आदि। गंगा स्वच्छता अभियान, नमामि गंगे और भी काफ़ी सारे प्रोजेक्ट संचालित हुए, मगर कुछ ही फेरबदल हो पाता है। जल शोधन संयंत्र त्रिवेणी घाट के पीछे की ओर लगाया गया है। इस शोधन संयंत्र का गंगा जल के मानक पर सकारात्मक असर पड़ने की शर्त यह ही है इस शहर से बाहर भी संयत्र  लगे, शहर से आने वाले नालों का पानी बिना शोधित किए बिल्कुल ना डाला जाए और सहायक नदियों की भी स्वच्छता बरकरार रहे क्योंकि वह गंगा की लाइफ़ लाइन है। किसी भी नदी किनारे के शहरों की तरह ऋषिकेश की आभा भी उसके घाट हैं। ऋषिकेश के घाटों का सौंदर्य, वहाँ लगातार बहती हुई ज़िंदगी में है। एक और गंगा की आरती में शामिल श्रद्धालु, दूसरी और त्रिवेणी घाट पर नदी में चीते की गति से तैरते बच्चे, जिनके लिए गंगा नदी सिर्फ़ पाप प्रक्षालन का माध्यम नहीं है, बल्कि उनके लिए वह गंगा मैय्या है—माँ, जो उनकी पेट की भूख भी मिटाती है और अपने अंदर उतरने का साहस भी देती है। ऋषिकेश में कई घाट हैं, मगर जहाँ पर्यटकों की सबसे ज़्यादा भीड़ रहती है, वह है त्रिवेणी घाट और परमार्थ निकेतन के सामने वाले घाट।

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ऋषिकेश में एक दौर में किताबों की कई दुकानें होती थी। धीरे-धीरे चीज़ें अपना रूप बदल रही हैं। एक दुकान परमार्थ निकेतन के आस-पास गंगा के किनारे होती थी, 2020 के आस-पास तक अब वह दुकान नदारद है। अब वहाँ रेडिमेड गारमेंट्स की दुकान है। एक बार मैंने पूछा ‘आपने किताबों की दुकान कैसे बंद कर दी!” उनका कहना था, “साहब किताबें ख़रीदता कौन है, कपड़े तो फिर भी बिक जाते हैं”। मेरा अपना अनुभव है, यह अँग्रेज़ी की किताबों के साथ लागू नहीं होता है। उनका एक निश्चित पाठक वर्ग है। वह किताब ख़रीदता है और किताब ख़रीदने और घर में रखने को एक स्टेटस सिंबल से भी जोड़कर देखा जाता है। ऐसे में किताबें भी बची रहती हैं और उनका बाज़ार भी। ऋषिकेश में विदेशी पर्यटकों के आने से विश्व साहित्य का एक बाज़ार हमेशा बना रहता है। कुछ बुक स्टोर पर घूमते हुए विदेशी पर्यटक आपको हमेशा मिल जाएँगे। ऋषिकेश के मुख्य बाज़ार में किताबों की कुछ पुरानी दुकानें हैं, वहाँ साहित्य का भी छोटा-सा संसार है। गंगा नदी के किनारे गीताप्रेस गोरखपुर का भी बड़ा बुक स्टॉल है, धार्मिक पुस्तकों का बड़ा केंद्र। गीताप्रेस का समाज में एक अलग स्पेस रहा है, महत्त्वपूर्ण पत्रकार अक्षय मुकुल इस पर तफ़्सील से बातचीत कर चुके हैं। ऋषिकेश में गीताप्रेस गोरखपुर संस्थान अपनी धार्मिक किताबों के प्रसार के साथ सामाजिक और सांस्कृतिक भूमिका भी निभाता है।

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इस शहर के पास निश्चित ज़मीन है, मगर जनसंख्या देश के अन्य हिस्सों की तरह बढ़ ही रही है। पहाड़ पर एक ही सपना देखा जाता है—ऋषिकेश, देहरादून में मकान और चमचमाती गाड़ी। पहाड़ से पलायन राज्य बनने के पश्चात और तीव्र गति से बढ़ा है। पहाड़ से गाड़ियाँ मैदान की और जाती ज़्यादा हैं, लौटकर बहुत कम आती हैं। पहाड़ ख़ाली हो रहे हैं, ऋषिकेश, देहरादून जनसंख्या के दबाव को महसूस कर रहा है। जंगल तेज़ी से कट रहे हैं, जो हरित पट्टी के लिए ऋषिकेश जाना जाता था, अब हरियाली की जगह कंक्रीट का जंगल उभर रहा है। यह एक सवाल है क्योंकि उत्तराखंड हरित आंदोलनों की भूमि रही है। ऋषिकेश के आस-पास कई बस्तियाँ बस गई हैं। सीमित संसाधनों पर नियंत्रण को लेकर कई तरह के विमर्श हवा में तैरने लगते हैं। लोग ज़्यादा हैं, ज़रूरतें थोड़ी और ज़्यादा। मगर संसाधन निश्चित हैं। यह संसाधनों का खिंचाव मानवीय संबंधों को कई तरह से प्रभावित करता है। वैश्वीकरण के पश्चात सोशल मीडिया ने कई किस्म के अंतर्विरोधों को उभारा है। गोलबंदी करना पहले के मुकाबले ज़्यादा आसान है। क्षेत्रीय अस्मिताएँ अब दुनिया में अधिक धारदार हैं। यह स्थिति हर शहर के साथ है।

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देहरादून और ऋषिकेश की एक विशेषता यह है यहाँ ‘वाला ’बहुत हैं। आप ऋषिकेश में प्रवेश करते हैं, तब आप आगे चल कर ढालवाला से होकर अंतरराज्य बस अड्डा की और जाते हैं गुमानीवाला, जो पहाड़ से विस्थापन का परिणाम है। यह गढ़वाल के सुदूर पहाड़ की कहानी कहता है, गर सुविधाएँ उन तक ना पहुँची तो लोग सुविधाओं तक पहुँच जाएँगे। यह  ही कहानी ऋषिकेश के अन्य लोकल भट्टों वाला की है। उत्तराखंड के अत्यंत लोकप्रिय लोक गायक का व्यंग्य,‘पहाड़ी-पहाड़ी मत बोलो, देहरादून वाला हूँ’ यह गीत उखड़े हुए पांवों की कहानी कम शब्दों में ही कह देता है।

ऋषिकेश की आबोहवा में स्त्री-मुक्ति की गंध है। ‘स्कूटी’ इस शहर की महिलाओं और लड़कियों की उम्मीद को पंख लगाती है। किसी भी शहर का बेहतर होना इस बात पर निर्भर करता है, वहाँ सड़क पर निकलते हुए महिलाएं कितना सुकून महसूस करती हैं। इस लिहाज़ से यह शहर जादू है। आपको शहर के किसी भी हिस्से में दुकानों को सँभालते हुए महिलाएँ मिल जाएँगी। महिला शक्ति के बिना पृथक राज्य आंदोलन की कल्पना की ही नहीं जा सकती थी। वैसे उत्तराखंड में महिला शक्ति और आंदोलन का इतिहास बहुत पुराना है। कई बार यह चेतना आपको शहर के अंदर दिखाई पड़ जाएगी।

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यदि ऋषिकेश के खान-पान के ठिकानों की बात न की जाए तो बात अधूरी है। यह   घुमक्कड़ी का एक वैश्विक स्थान है। खान-पान की विविधता ऋषिकेश की विशेषता है।  किसी भी शहर का खान-पान उसकी आबादी से तय होता है। इस शहर की मिली-जुली आबादी है, उत्तराखंड का यह गढ़वाल परिक्षेत्र है, तो गढ़वाल का भोजन तो यहाँ विशेष मिलेगा ही, विशेष रूप से गढ़वाली अरसा, चावल और गुड से बना विशेष व्यंजन। उसके साथ ही देश भर की तरह यहाँ भी पंजाबी खान-पान मिलेगा। आज़ादी के पश्चात देश विभाजन ने कई शहरों की आबोहवा बदली थी, ऋषिकेश के रहवासी पंजाबी समुदाय की के साथ भी यही है। व्यापार वर्ग में विभाजन के पश्चात बसी आबादी की संख्या काफ़ी है और उनकी इस शहर को रचने में बड़ी भूमिका है। पंजाबी दाल तड़का, मक्के दी रोटी, चने-सरसों दा साग अब सिर्फ़ भोजन नहीं बल्कि एक मुहावरा है। राजस्थानी खान-पान को लेकर यहाँ एक विशेष रेस्टोरेंट है ही—राजस्थानी भोजनालय। यहाँ की दाल बाटी का स्वाद जैसलमेर के बंजारों की छवियाँ का स्मरण कराता है। फिर देश-दुनिया के पर्यटक यहाँ आते हैं तो यहाँ कुछ ऐसे रेस्टोरेंट हैं, जिनका मेन्यू ग्लोबल है—चाइनीज, यूरोपियन आदि। कुछ अच्छी बेकरी की दुकानें फिरंगियों के स्वाद रस को पुख्ता करती हैं। योग नगरी होने के नाते कुछ कच्ची सब्ज़ी आर्गेनिक के नाम पर अपने पेट में ठेलते लोग यहाँ मिल जाएँगे। कई बार लगता है यहाँ की ज़ुबान ग्लोबल चटोरी है, वह देश-दुनिया के स्वाद की रसिया। हम शहर के अंदर अपना शहर तलाशने और बसाने के लिए हम भटकते रहते हैं और भटकना एक सतत यात्रा है। अपनी भटकन सबको नसीब हो और अपने ठहराव भी।

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