रविवासरीय : 3.0 : ‘जो पेड़ सड़कों पर हैं, वे कभी भी कट सकते हैं’
अविनाश मिश्र
23 फरवरी 2025

• मैंने Meta AI से पूछा : भगदड़ क्या है?
मुझे उत्तर प्राप्त हुआ :
भगदड़ एक ऐसी स्थिति है, जब एक समूह में लोग अचानक और अनियंत्रित तरीक़े से भागने लगते हैं—अक्सर किसी ख़तरे या डर के कारण। यह अक्सर भीड़ में होता है, जैसे कि सार्वजनिक स्थानों पर; और यह ख़तरनाक हो सकता है, क्योंकि लोग एक दूसरे को कुचल सकते हैं या चोट लग सकती है।
• महाकुंभ की वजह से गए कुछ वक़्त से सब तरफ़ भगदड़ के या भगदड़-से हाल-हालात हैं। जन-समूह अचानक और अनियंत्रित तरीक़े से प्रयागराज और संगम की तरफ़ भाग रहे हैं। मैं इन वाक्यों को अगर और विस्तार दूँगा, तब इस ‘रविवासरीय’ को समाचारीय बनते क्षण-पलक की भी देर नहीं लगेगी।
• मैं गए से गए शनिवार की रात प्रयाग से काशी जाते हुए सड़क पर विचित्र दृश्यों से गुज़रा हूँ। सर्वत्र भीड़—भगदड़ की आशंका से ग्रस्त। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हुई भयानक भगदड़ इस दिवस की ही देन है। महाकुंभ तक पहुँचने के दृश्य सहज ही भय उत्पन्न कर देते हैं। हमारे जन-समूह जैसे मेले की तरफ़ नहीं, मृत्यु की तरफ़ रेंगते-बढ़ते प्रतीत होते हैं। यह सब देखकर कोविड-काल याद आ जाता है। सब तरफ़ संपर्क-साधनहीन जन सब कुछ गँवाए हुए लगते हैं—वे कुंभ से लौट रहे हों या कुंभ की ओर जा रहे हों। उनके चेहरों पर पहुँचने-पाने का उल्लास लापता है। वे रील्स से बाहर छूट गए हैं और राजपुरुषों की चिंताओं से भी।
• मैं एक भगदड़ से बचकर, जैसे ही काशी में प्रवेश करता हूँ; पाता हूँ : सारा नगर बेतरह पस्त है, लेकिन चीज़ें अब तक स्वाद से युक्त हैं।
• इस दृश्य में ‘हिन्दवी’ और अंतर सांस्कृतिक अध्ययन केंद्र, बी.एच.यू., वाराणसी के साझा सहयोग से गत मंगलवार को ‘हिन्दवी कैंपस कविता’ का आयोजन हुआ। ‘हिन्दवी कैंपस कविता’ का यह सोलहवाँ आयोजन था। इस आयोजन की शुरुआत ‘हिन्दवी’ ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय [हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग] के साथ वर्ष 2022 के सितंबर महीने में की थी। इस सिलसिले में आगे—शहीद दुर्गा मल्ल राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय [देहरादून], केंद्रीय विश्वविद्यालय पंजाब [बठिंडा], हैदराबाद विश्वविद्यालय [हैदराबाद], केंद्रीय विश्वविद्यालय हरियाणा [महेंद्रगढ़], बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय [लखनऊ], अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय [अलीगढ़], एनसीईआरटी [भोपाल], राम लखन सिंह यादव कॉलेज [राँची], वी.एस.एस.डी. कॉलेज [कानपुर], देवी अहिल्या विश्वविद्यालय [इंदौर], विश्व-भारती, शांतिनिकेतन [बोलपुर], महादेवी वर्मा सृजन पीठ, कुमाऊँ विश्वविद्यालय [नैनीताल], जामिया मिल्लिया इस्लामिया, [दिल्ली], दिल्ली विश्वविद्यालय [दिल्ली] के साथ मिलकर ‘हिन्दवी’ ने ‘कैंपस कविता’ के पंद्रह सफल आयोजन किए।
बी.एच.यू. में ‘हिन्दवी : कैंपस कविता’-अनुभव अत्यंत स्मरणीय रहा—‘हिन्दवी’ के पूर्व-अनुभवों का सुखद, अर्थपूर्ण और उल्लेखनीय विस्तार। यहाँ इस आयोजन के प्रथम सत्र कविता-प्रतियोगिता के लिए आशा से अधिक प्रविष्टियाँ प्राप्त हुईं। वे रचनात्मक स्तर पर इतनी सशक्त, इतनी बेहतर और इतनी ज़्यादा थीं कि आयोजक-मंडल को अंतिम दस विद्यार्थियों-प्रतिभागियों-कवियों चुनने की अपनी सीमा का उल्लंघन करते हुए सोलह विद्यार्थियों-प्रतिभागियों-कवियों का चयन करना पड़ा। इनके नाम अकारादि-क्रम में कुछ यों हैं : आकाश सिंह, अपूर्वा श्रीवास्तव, अवनीश शुक्ल, आरती तिवारी, जयंत शुक्ल, जागेश्वर सिंह ज़ख़्मी, देव व्रत, निवेदिता पाठक, प्रतिभा कृष्ण, पूजा यादव, प्रियम मिश्र, कुशाग्र अद्वैत, सत्येंद्र सत्य, शिवम् तिवारी, श्वेता मौर्या और विजय यादव।
हिंदी की नई पीढ़ी के इन बिल्कुल युवतम कवियों की कविताएँ एक साथ सुनना बेहद आशामय और समृद्ध करने वाला समय रहा।
इस प्रसंग में ही तीन पीढ़ी के तीन आमंत्रित कवियों—ज्ञानेंद्रपति, व्योमेश शुक्ल और सुधांशु फ़िरदौस—ने जिस मनोयोग से इन सोलह कवियों को सुना, उन पर टिप्पणियाँ कीं और निर्णय दिया... वह काफ़ी उत्साहजनक था। ज्ञानेंद्रपति ने इस अवसर पर कहा कि कविता पर निर्णय सिर्फ़ काल ही दे सकता है। उन्होंने ‘कुंभग्न’ शीर्षक अपनी अब तक की सबसे नई कविता का पाठ किया और कथित रूप से 144 साल बाद हो रहे इस महाकुंभ के सारे तनावों, अव्यवस्थाओं और पाखंड को एक जगह लाकर रख दिया। व्योमेश शुक्ल ने प्रतिभागी-कवियों को यह समझाइश दी कि हमारा काम सिर्फ़ प्रिय को ही लिखना नहीं है; प्रिय के साथ जो अप्रिय है, वह भी हमारी रचना में आना चाहिए। उन्होंने ‘पेड़ होने की आदत’, ‘धंधा अगर चल निकला’ और ‘पोंऽऽऽ‘ शीर्षक कविताओं का नवाचारयुक्त पाठ किया। ‘पेड़ होने की आदत’ में ही वे पंक्तियाँ है, जिनसे इस स्तंभ का शीर्षक निर्मित हुआ है :
जो पेड़ सड़कों पर हैं, वे कभी भी कट सकते हैं। जो सड़क फ़ोर लेन है, वह सिक्स लेन होगी। जो सिक्स लेन है, वह बारह लेन... तो सड़क किनारे के उन वृक्षों को घेरकर किसी ग्रामदेवता का मंदिर बना दीजिए। काम ख़त्म।
सुधांशु फ़िरदौस ने भी प्रेम-अप्रेम की कुछ कविताएँ पढ़ीं और कविता पर निर्णय देने की पुरानी पद्धतियों को प्रश्नांकित किया।
कविता-प्रतियोगिता के चयनित प्रतिभागियों में जयंत शुक्ल [प्रथम पुरस्कार], श्वेता मौर्या [द्वितीय पुरस्कार], अपूर्वा श्रीवास्तव और कुशाग्र अद्वैत [तृतीय पुरस्कार] सम्मानित हुए। इस आयोजन का स्वागत-वक्तव्य प्रो. राजकुमार ने दिया और धन्यवाद-ज्ञापन प्रो. संजय कुमार ने किया। इस आयोजन का बेहद प्रभावी संचालन प्रथम बार संचालन कर रहीं ख़ुशबू ने किया।
• इस काल और अवधि के दरमियान ही हिंदी-संसार में यत्र-तत्र कृष्णा सोबती पर केंद्रित एक दिवसीय, दो दिवसीय, तीन दिवसीय आयोजन-सेमिनार भी संभव होते रहे। इनमें लगभग सभी पीढ़ी के लेखकों-वक्ताओं भीड़-भगदड़ रही।
• हिंदी साहित्य में क़ानूनी कार्रवाई जैसा कुछ नहीं है!
• कृष्णा सोबती के साहित्य पर बात करते हुए उनके Trash पर कभी कहीं कोई बात नहीं होती! उन्हें पूरा पढ़ने वाले एक भी पाठक-शोधार्थी से मेरा सामना आज तक नहीं हुआ है।
• मैंने कृष्णा सोबती को पढ़ते हुए प्राय: यह पाया है कि वह बेहद बोझिल, बेरस, उबाऊ, अपठनीय और हद दर्जे का अझेल लेखन करने में सिद्धहस्त थीं। उनके एक-दो उपन्यासों और एक-दो कहानियों को छोड़ दिया जाए तो उनका सारा लेखन बेताप, आकर्षणरहित और महज़ कागद कारे हैं। लेकिन हिंदी मूलतः अभिजात्य-प्रेरित, आभा-आक्रांत और व्यक्तित्व-विचलित भाषा है। इसमें समकालीन अनपढ़ों और अधकचरों का प्राबल्य और बोलबाला है, कठमुल्लों और सांप्रदायिकों का भी, रचनाकार न बन सके नवट्रोल्स का भी, ख़ुद पर नज़र नहीं मारने वाले कपटियों का भी, जाति-जाति का शोर मचाने वाले कायरों-क्रूरों-अवसरवादियों का भी। यहाँ रचना के स्तर पर उतरकर रचनाकार की जाँच और उस पर बात नदारद है।
• कृष्णा सोबती के कथा-मलबे पर चुप्पी की वजह संभवतः उन्हें मिले पुरस्कार हैं। उन्हें साल 1980 में साहित्य अकादेमी और 2017 में ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ। लेकिन यहाँ यह भी ध्यान देना होगा कि स्वयं कृष्णा सोबती सरीखे लेखक अपने लिए सबसे बड़ा पुरस्कार ‘सर्जक की आँख’ को मानते हैं और उनका सारा संघर्ष इस केंद्रीय लक्ष्य से ही गतिशील रहता है :
‘‘कलाकार की आँख साधना लेखक के परिश्रम का सुफल और इन दोनों में संतुलन द्रष्टा की सामर्थ्य का संयोग, इन भरपूर क्षमताओं से लगभग परे लेखक को मात्र एक शिक्षार्थी की तरह जीवन भर सीखते चले जाना है। कोई भी रचनात्मक टुकड़ा अपने बीज और प्रकृति में, क़िस्म में एक साथ सार, संक्षिप्त, विस्तार और सघनता से प्रस्तुत किया जाए तो लेखक की मानसिक संलग्नता और रचना की सहवर्तिता एक-दूसरे के समानांतर रहते हैं। लेखक लिपिक होकर रचना से डिक्टेशन लेता है। इसी से संवेदनात्मक जोड़, योग और चित्ताकाश पर फैले बहु-संयोग रचना में जज़्ब हो जाते हैं।’’
यहाँ ऊपर उद्धृत कथ्य कृष्णा सोबती के आत्मकथ्य से है और इसे पढ़कर एक साहित्यकर्मी की साधना समझी जा सकती है। एक ऐसा साहित्यकर्मी जिसके पास ऐसी आँख है कि वह ग़लत के सामने समूचे वजूद को इस बात के लिए विवश करती है कि वह प्रतिकार-प्रतिरोध के साथ हो जाए। वह जहाँ उसकी ज़रूरत हो, वहाँ मौजूद रहे। हिंदी में आप प्रतिकार-प्रतिरोध में पक्के-पोढ़े हो जाइए, तब फिर रचनाशीलता इतनी मार्के की चीज़ नहीं रह जाती।
यहाँ ही वह बिंदु नज़र आता है, जहाँ जब हिंदी साहित्य के आधुनिक इतिहास में हिंदी के सबसे सम्मानित और सफल साहित्यकारों का ज़िक्र होगा, तब कृष्णा सोबती इस वजह सबसे अलग नज़र आएँगी कि वे मुद्दे जिनसे देश-दृश्य जूझ रहा होता; उन पर उन्होंने ज़बान हिलाने से कतराने की जगह एक राय, गोशानशीनी के बजाय जनता के बीच जाना और तटस्थता की जगह पहल को बरता। उन्हें विवादों में पड़ना और पाए गए को ठुकरा-लुटा देना आता था।
कृष्णा सोबती की मृत्यु पर जनवादी लेखक संघ की ओर से ज़ारी विज्ञप्ति के वाक्य भी यहाँ याद आते हैं :
‘‘मौजूदा भाजपा निज़ाम की असहिष्णुता के ख़िलाफ़ जब-जब लेखकों-संस्कृतिकर्मियों ने आवाज़ उठाई, कृष्णा सोबती की आवाज़ उसमें सबसे मुखर रही। प्रोफ़ेसर कलबुर्गी की हत्या के बाद शासक दल की क्रूरता और अपनी स्वायत्तता का समर्पण करती साहित्य अकादेमी की चुप्पी का उन्होंने पुरज़ोर विरोध किया और अकादेमी की महत्तर सदस्यता से इस्तीफ़ा दिया। सरकार के ख़िलाफ़ प्रतिरोध के कार्यक्रमों में वह अपनी पहिया-कुर्सी पर बैठकर शामिल भी होती रहीं।’’
• मैं Meta AI से पूछता हूँ : भगदड़ से कैसे बच सकते हैं?
मुझे उत्तर प्राप्त होता है :
भगदड़ की स्थिति में शांत और संयमित रहना महत्त्वपूर्ण है।
भगदड़ की स्थिति में नज़दीकी निकास-द्वार की ओर जाने की कोशिश करें।
भगदड़ की स्थिति में भीड़ के विपरीत दिशा में जाने से बचें।
भगदड़ की स्थिति में नीचे झुककर चलने से चोट लगने की संभावना कम होती है।
भगदड़ की स्थिति में अपने आस-पास के लोगों की मदद करने की कोशिश करें।
भगदड़ की स्थिति में आपातकालीन सेवाओं को बुलाने की कोशिश करें।
भगदड़ की स्थिति में लोगों को शांत करने की कोशिश करें।
भगदड़ की स्थिति में निकास द्वारों को खुला रखने की कोशिश करें।
भगदड़ की स्थिति में लोगों को एक साथ न आने देने की कोशिश करें।
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