सौ बार मंच पर उतर चुकी एक कविता के बारे में

एक भाषा में कालजयी महत्त्व प्राप्त कर चुकीं साहित्यिक कृतियों के पुनर्पाठ के लिए केवल समालोचना पर निर्भर रहना एक तरह की अकर्मठता और पिछड़ेपन का प्रतीक है। यह निर्भरता तब और भी अनावश्यक है जब आलोचना-पद्धतियाँ संकट से गुज़र रही हों। पुनर्पाठ रचना की प्रासंगिकता के बने रहने के लिए ज़रूरी है। लेकिन प्रामाणिक और मूल्यमय पुनर्पाठ हिंदी में अब कम ही हैं। ऐसे में यह ज़रूरत एक कर्त्तव्य बन जाती है कि अपनी कालजयी और प्रिय रचनाओं के पुनर्पाठ के लिए अन्य विधाओं और कला-माध्यमों की ओर जाया जाए। कवि-आलोचक व्योमेश शुक्ल निर्देशित सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ कृत ‘राम की शक्ति-पूजा’ की नाट्य-प्रस्तुति कुछ इस तरह की ही एक कोशिश है। इसके अब 100 से अधिक मंचन हो चुके हैं। 

38 वर्ष पुरानी संस्था ‘रूपवाणी’ को व्योमेश और उनका रंग-समूह नए विजन और शिल्प के साथ फिर से निर्मित कर रहा है। यह संस्था अब युवतम से युवा हो चुके कलाकारों का एक ग्रुप है। ‘राम की शक्ति-पूजा’ के 75 वर्ष पूरे होने पर इस संस्था ने व्योमेश शुक्ल के निर्देशन में इन कालजयी काव्य-कृतियों को एक रंगमंचीय विन्यास में स्थापित किया। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि किसी विश्वविद्यालय, किसी अकादमी, किसी संस्था ने इन कालजयी कृतियों को इस महत्त्वपूर्ण अवसर पर याद नहीं फरमाया और यह इस दुर्भाग्य पर विजय है कि एक युवा रचनाकार ने अपने प्रयत्नों और अध्यवसाय से इन कृतियों को पुनर्पाठ की अनिवार्यता और रंगमंच की जीवंतता में एक साथ लाने और परखने की कोशिश की और कर रहा है। 

दरअस्ल, यह प्रयत्न अपने पूर्वजों की स्मृति को उनकी कृतियों के माध्यम से प्रासंगिकता, विमर्श और ध्यान की एक संपृक्त त्रयी में स्थापित करने का प्रयत्न है। 

‘राम की शक्ति-पूजा’ पर आधारित नाट्यालेख को मूलत: रंगमंचीय दृष्टि के अनुकूल बनाने के लिए व्योमेश ने इस लंबी कविता की कुछ काव्य-पंक्तियाँ छोड़ दी हैं, कुछ स्थानांतरित कर दी हैं—इस आशय में इस सब कुछ का विन्यास एक रंग-निर्देशक की दृष्टि से रंगमंचीय अनुकूलता के संदर्भ में प्रस्तुत हुआ है। व्योमेश शुक्ल के शब्दों में, ‘‘हम चाहते थे कि ‘राम की शक्ति-पूजा’ के बहुत से पाठ हों, अलग-अलग तर्कों की पठनीयताएँ हों और अभिनव विन्यास। कविता को नया किया जा सके। यों, महाकवि भी कुछ और ताज़ा हो जाएगा।’’ 

हिंदी रंगमंच के प्रसंग में हिंदी कविता को मंचन के दायरे में लाने की कोशिशें प्राय: कम हुई हैं। मंच पर प्रस्तुत कथ्य में वह गाहे-बगाहे प्रकट हो जाती है। लेकिन चंद काव्य नाटकों और खंड काव्य के रूप में प्रकाशित हुई कविता को छोड़ दें तो इसे लेकर कोई विशेष गंभीरता गंभीर रंगमंच में दृश्य नहीं हुई है।

कलाएँ जब अपनी-अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर पारस्परिक अंतर्क्रिया में संलग्न होती हैं, तब वे दृश्यबंध को व्यापक बनाती हैं। कविता को नृत्य, अभिनय, संगीत का आश्रय लेकर रंगमंचीय उपादानों के माध्यम से एक दृश्यात्मक वैभव में स्थापित करना व्योमेश शुक्ल के रंगकर्म की केंद्रीय विशेषता है। इस अर्थ में यह रंगकर्म दायरे के बाहर का रंगकर्म है। यह मुख्यधाराओं के रहमो-करम पर नहीं है, क्योंकि यह सारी सक्रिय कलात्मक धाराओं की गंभीरता, अर्थवत्ता और उनकी पारस्परिक अंतर्क्रियाओं के मूल्य तथा प्रासंगिकता को समझता है। यह इस तरह बने रहने के जोखिम और उस नकार को भी जानता है जो इस तरह के जोखिमों के रास्ते में पड़ता है। अपने रंगकर्म पर एक आलेख में आया व्योमेश का यह स्वीकार भी यहाँ ग़ौरतलब है, ‘‘अपने पूरे कामकाज को हम लोग अभिनय और नृत्य के बीच की जगह में—दिन और रात के बीच के समय में—एक अहर्निश गोधूलि में बसाना चाहते हैं, क्योंकि कविता अपनी अभिव्यक्ति के लिए एक भिन्न क़िस्म की कोरियोग्राफी की माँग करती है। यथार्थवादी अभिनय-रूप उसे पूरी तरह सँभाल नहीं पाते और सबसे कोमल अंतर्ध्वनियाँ गुम हो जाती हैं, जबकि निरा नृत्य उसके विचार-तत्त्व को झीना और पूरी अंतर्वस्तु को ज़रूरत से ज़्यादा तरल बना देता है। लेकिन बीच में रहने का नुक़सान भी हमें हो रहा है। नृत्यवाले तो ख़ैर हमें अपना मानने से रहे, अभिनय की दुनिया भी हमें पूरी तरह से अपना नहीं पाती। हम ‘एक्सक्लूसिवनेस’ यानी छुआ-छूत के ख़िलाफ़ हैं और इसलिए उसके शिकार भी हैं। हमने इस उपेक्षा का, इस गोधूलि का वरण किया है।’’

व्योमेश शुक्ल की रंगधर्मिता का ज़ोर अपने आस्वादकों या दर्शकों के समक्ष पूर्णत: व्यक्त होकर संप्रेषित हो जाने पर है। इसके लिए मूल कथ्य की अंतर्वस्तु से थोड़ी छेड़छाड़ भी व्योमेश के रंग-शिल्प में दृश्य होती है। प्रत्येक प्रस्तुति से पूर्व निर्देशक का सीधे दर्शकों के सम्मुख आकर प्रस्तुति की कथावस्तु को उजागर करना भी इस रंग-प्रक्रिया का एक अंग है। लगभग सवा घंटे की प्रस्तुतियों में इस प्रक्रिया में लगभग प्रारंभिक दस से बारह मिनट ख़र्च हो जाते हैं। इसे अपने दर्शकों पर निर्देशक के अविश्वास के रूप में नहीं, बल्कि अपनी प्रस्तुति के साथ दर्शकों को सहज करने की प्रक्रिया के रूप में ग्रहण किया जाना चाहिए।

एक समय तक व्योमेश की प्रस्तुतियों को परंपरागत मंच कम ही मिले। वह अक्सर अपने रंगकर्म की ज़रूरतों और लक्ष्यों को मौजूद मंच की अनुकूलता के हिसाब से ढालते रहे आए। इस प्रक्रिया में वह अब तक उन स्थलों को भी रंग-स्थलों में बदलते रहे, जिनकी कभी कोई पृष्ठभूमि या भूमिका रंगमंचीय नहीं रही है। इस स्थिति में अपने दर्शकों से निर्देशक का यह आग्रह और भी प्रासंगिक हो उठता है कि ‘‘जहाँ तक हम अपनी चेष्टाओं में नहीं गए हैं, वहाँ तक आप अपनी व्याख्याओं में जाएँगे।’’

‘राम की शक्ति-पूजा’ की कथावस्तु यह है कि राम-रावण का युद्ध चल रहा है। युद्धरत राम निराश हैं और हार का अनुभव कर रहे हैं। उनकी सेना भी खिन्न है। प्रिया सीता की याद अवसाद को और घना बना रही है। वह बीते दिनों के पराक्रम और साहस के स्मरण से उमंगित होना चाहते हैं, लेकिन मनोबल ध्वस्त है। शक्ति भी रावण के साथ है। देवी स्वयं रावण की ओर से लड़ रही हैं—राम ने उन्हें देख लिया है। वह मित्रों से कहते हैं कि विजय असंभव है और शोक में डूब जाते हैं। बुज़ुर्ग जामवंत उन्हें प्रेरित करते हैं, वह राम की आराधन-शक्ति का आह्वान करते हैं—उन्हें सलाह देते हैं कि तुम सिद्ध होकर युद्ध में उतरो। राम ऐसा ही करते हैं। उधर लक्ष्मण, हनुमान आदि के नेतृत्व में घनघोर संग्राम जारी है, इधर राम की साधना चल रही है। उन्होंने देवी को एक सौ आठ नीलकमल अर्पित करने का संकल्प लिया था, लेकिन देवी चुपके से आकर पुष्प चुरा ले जाती हैं। राम विचलित और स्तब्ध हैं। तभी उन्हें याद आता है कि उनकी आँखों को माँ कौशल्या नीलकमल कहा करती थीं। वह अपना नेत्र अर्पित कर डालने के लिए हाथों में तीर उठा लेते हैं। तभी देवी प्रकट होती हैं। वह राम को रोकती हैं, उन्हें आशीष देती हैं, उनकी अभ्यर्थना करती हैं और उनमें अंतर्ध्यान हो जाती हैं।

इस कथावस्तु को व्योमेश ने मंच पर बनारस घराने के शास्त्रीय संगीत और बैले के विन्यास में प्रस्तुत किया है। इस प्रस्तुति के राष्ट्रव्यापी मंचन इसकी सफलता और स्वीकार्यता की आप गवाही हैं। इसे निर्देशक ने रामलीला का बनारसी संस्करण कहा है, क्योंकि बनारस की विश्वप्रसिद्ध रामलीला के तत्त्वों का विनियोग इसमें उपस्थित है। छऊ, कथक और भरतनाट्यम के संश्लेषण को आधुनिक भावबोध में वहन करने वाली देहभाषा के अविष्कार का यहाँ प्रयत्न है। दुर्लभ संगीत और गायन के प्रयोग के मध्य एक वैभवशाली दृश्यालेख को बचा लेने की आकांक्षा भी इस प्रस्तुति में अनुस्यूत है। व्योमेश अपने इन प्रयासों के सिलसिले में यह स्वीकार भी जोड़ते हैं कि इसमें लोकप्रियता का आखेट भले ही हो, धार्मिकता नहीं है।


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