क़व्वाली का ‘हाँ-हाँ दुर्योधन बाँध मुझे’ मोमेंट
शशांक मिश्र
03 मार्च 2025

क़व्वाल उस्ताद फ़रीद अयाज़ और उस्ताद अबू मुहम्मद की एक शाम यूट्यूब पर क़ैद है। दूर शहर। घर की अंतरंग महफ़िल। हारमोनियम, ढोल और शागिर्द।
ख़ुसरो दिल्ली में अपने आँगन में सोए हैं। शब्द शताब्दियों से अब तक तैर रहे हैं। ख़ुसरो के प्रसिद्ध सूफ़ी कलाम ‘छाप तिलक’ को दोहराने की अनगिनत कोशिशें दुनियाभर के तमाम कलाकारों द्वारा आए दिन होती हैं। और तो और तमाम क़व्वालों ने इसे अपने-अपने बेहतरीन तरीक़ों से और भी ऊँचा उठाया है। संभवत: आपने भी यह कलाम ज़रूर कहीं-न-कहीं, कभी-न-कभी सुना भी होगा। लेकिन यहाँ जिसकी बात हो रही है, वह संगत कुछ अलग है और बेहद ख़ास है; वह शाम एक ख़ास शाम है।
संगीत की महिमा में क़व्वाली दुनिया में छिपने के लिए सबसे सुरक्षित ठिकाना है। ऐसा वातावरण जहाँ जीवन-योजना को चकमा दिया जा सकता है। योगाभ्यास के दरमियान लोग शारीरिक गतिविधियाँ भले पुख्ता करें, पर कभी-कभी फेफड़ों में साँस भरने और छोड़ने के बीच सामंजस्य नहीं बना पाते। क़व्वाली इसी सामंजस्य की सबसे नायाब कोशिश है।
क़व्वाली आपको तरने का मौक़ा देती है। क़व्वाली आपको दुनियावी मायाजाल की क़ैद से बख़्श देती है—बशर्ते आप ख़ुद को पूर्ण रूप में न्यौछावर करने को तैयार हों। यह इसपर भी निर्भर करता है कि आप कितने संजीदा श्रोता हैं। आप क़व्वाली सुनते हुए ख़ुद को किस हद तक भूल सकते हैं। क़व्वाली में होते हुए जितना ख़ुद को भूलेंगे, उतना ख़ुद को पा लेंगे।
‘छाप तिलक’ का 47 मिनट का एक वीडियो है। 26 मिनट 40 सेकंड से लेकर अगले एक मिनट इसमें जो होता है, वह मुर्दे को जगा सकता है। क्षणों का यह समुच्चय ख़ुदा से मुख़ातिब है। सफ़ेद कुर्ते की आस्तीनें मोड़े उस्ताद अबू मुहम्मद महफ़िल उठाते हैं। संगत के साथी पुरज़ोर साथ हैं। वह ताल झटकते हैं। ताली के बीच हवा को क़ायदे से साँचे में भरते हैं। बीच में एक झपकी हारमोनियम बजाते हैं—जैसे साँस लेना याद आ गया हो।
अबू मुहम्मद यहाँ वह बच्चा बन जाते हैं जो अपने गुरु को फ़ख़्र से बताता है कि—हाँ उसने गुरु का सिखाया अब सीख लिया है। क़व्वाली में अबू लीन होने की उस सीमा तक पहुँच जाते हैं जो बाँके बिहारी मंदिर में दर्शन के बाद नृत्य करती बुज़ुर्ग ग्रामीण महिला में दिखती है। वह अपनी ही लय में अपरिवर्तनीय निरंतरता के साथ फिरते दिखते हैं। मदमस्त, ख़ुश और लीन। अगर इंटरस्टेलर (Interstellar) फ़िल्म की तरह समय को भौतिक अवधारणा माना जाए तो वह समय भी आपको यहीं इसी महफ़िल में कहीं ठहरा हुआ बैठा मिल जाएगा।
एक मिनट का यह कालखंड रश्मिरथी का ‘हाँ-हाँ दुर्योधन बाँध मुझे’ मोमेंट जैसा महसूस होता है। यह ऊर्जा का अतिरेक है। इस ऊर्जा को महसूस करते हुए, इस क्षण का साक्षी और इसका हिस्सा हो जाना—एक अविस्मरणीय और अद्वितीय अनुभव है। संगीत का यह वेग रोमांच का उरूज है। यकीन मानिए आप उस क्षण होते भी हैं, और नहीं भी। आप कौन हैं, कैसे हैं, कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं और आगे-पीछे कुछ भी महसूस नहीं होता। शायद बंधन ख़त्म होना ऐसा ही होता होगा!
मिनटभर के उत्कर्ष के बाद अबू समाँ के आपातकालीन अवरोहण को नियंत्रित करते हैं और दुनिया में लौट आते हैं—शायद उन्हें भी मालूम है कि अनुनाद की स्थिति में उच्चतम आयाम पर कंपन के बाद पुल धराशायी भी हो सकते हैं।
आप यह क़व्वाली यहाँ देख-सुन सकते हैं : https://youtu.be/wuxSFZV51W8?t=1598
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