छूटती हुई हर चीज़ मुझे घर मालूम लगती है
कमल सिंह सुल्ताना 27 मई 2024
02 अप्रैल 2024
(सूरतगढ़ से जैसलमेर के बीच कहीं ट्रेन में)
हम सब शापित हैं। अपनी ही चुप्पियों का कोई तय ठिकाना नहीं ढूँढ़ पाने पर।
चलते हुए कहानियाँ बनी—मिलने की, साथ में रोने की और दूर तक जाते हुए देखने की। इन कहानियों में प्रेमचंद का कोई पात्र नहीं था जो कहानी ख़त्म होते ही ग़ायब हो जाएगा। यह लंबे और कभी न ख़त्म होने वाले रास्तों के पथिक थे, जिनको चलते जाना था। साथ चलते हुए लोगों के चेहरे देखते हुए, उनकी असहायता को अपने भीतर भरने और देर तक घुप्प दुनिया के मलिन अँधेरे में झाँकते रहते हुए।
कोई अंतिम सच अंतिम नहीं है। हर एक उधड़ती परत के साथ दुःख का कोई नया दरवाज़ा खुलता है। अवसाद के साथ प्रेम घुल-मिल गया है। भूल सकने की सुखकर बीमारी के साथ जीवन सुंदर लगता है। स्मृतियाँ पत्थर पर लिखी इबारतों से रेत में तब्दील हो रही है। इनका अन्वेषण करने कोई नहीं आएगा। मैं निरीह अकेला ही इन सबसे जूझता रहूँगा।
मृत्यु के सौंदर्य का दर्शन अपने भीतर का संगीत मालूम होता है जो वक़्त-बेवक़्त कोई पुरानी राग छेड़ देता है। लगातार बदलती जगहों के साथ मन पसीज रहा है। सूखे हुए फूलों की गंध भर आई है साँसों में। पुरानी सलाहें याद आ रही हैं।
किसी ने कहा था इस लड़के ने ग़लत ट्रेन पकड़ ली है। मैं तय पतों के साथ समुचित यात्राओं के बोझ से दब गया हूँ। अनियत स्थानों पर जाने का मन बना रहा हूँ। किसी दिन चला जाऊँगा तो समझ सकूँगा कि जीवन की देहरी कितनी सूखी है और कितनी पनियल।
प्रेम अछूत है, इसे छूना भी पाप लगता है। ख़ुद अपने आपको कष्ट देकर भगवान का दिल दुखाने जैसा पाप। लंबी साँसो के साथ आगे बढ़ते हुए रेल का दुलार ले रहा हूँ। जीने के नए ढब सीख रहा हूँ। इक्कीस से बाईस होने का महीना है यह। शेष सब शुभ!
~
फ़रवरी 2024, बाड़मेर
(तारीख़ याद नहीं है लेकिन होती तो ज़रूर लिखता।)
अभी-अभी एक पुराने दोस्त का ब्लॉग देखा। ब्लॉग देखना हमेशा से एक ख़ूबसूरत काम हुआ करता है। अपनी ढब में लगातार चलती दुनिया को ठहरकर देखने के लिए मैं ब्लॉग देखता हूँ। घड़ी दो घड़ी भर के सुख के लिए अक्सर मैं ब्लॉग की तलाश में इंटरनेट पर जाता हूँ, जैसे ग्वाले जाते हैं। ग्वालों को भी ढूँढ़ने से पशुधन मिल ही जाता है और मुझे ब्लॉग।
हमेशा कुछ खोजते रहने के कारण मन अधिक खिन्न हो गया है ऐसा जान पड़ता है। अलग-अलग तरह की मनःस्थितियाँ मुझे घेरती हैं। कुछ दिन रहती है, फिर चली जाती है। ऐसा अनियमित क्रम से चलता रहता है। पश्चिमी राजस्थान के किसान जिस प्रकार पानी की आवक को लेकर चिंतित होते हैं और भविष्य के सपने बनाते-मिटाते हैं, ठीक वैसे ही मैं भी इन सबसे जूझता रहता हूँ।
इस बरस के दो महीने पूरे हो गए हैं। मैंने अलग-अलग कालखंडों में अलग-अलग तरह से डायरी लिखने की हमेशा ठानी है। अपनी व्यस्तताओं, जीर्ण-शीर्ण इच्छाओं और अघोषित संकल्पों के मकड़जाल में बुरी तरह से फँस जाने के बाद कह सकता हूँ कि डायरी जैसा कुछ भी नियमित नहीं हुआ है।
फिर भी मेरी इच्छा है कि ठीक से एक बार ब्लॉग लिखने की। उसे पब्लिश करने और उसे सुंदर सज्जा देने की कला सीख जाऊँगा तो यह नियमित हो जाएगी।
अपने लिखे से कभी बहुत ख़ुश हो जाता हूँ तो कभी उदास होकर सोचता हूँ कि यह कितना ही बेकार लिखा है। कभी लगता है बीते दिनों में लिखने वाला कोई और रहा होगा क्योंकि मुझे ख़ुद में अब कोई भी वैसी हिस्सेदारी अपने भीतर नहीं मालूम होती। लेखन के लिए समय निकाल पाना अतृप्त इच्छाओं के समंदर में गोते लगाने जितना ही मुश्किल मालूम जान पड़ता है।
ठीक-ठाक कुछ नहीं कहा जा सकता जीवन के बारे में। तुम्हारी स्मृतियों और छाया-घर के बीच डोलता हुआ शरीर साथ न छोड़ दे, इस ग्लानि से भरा पैदल रास्ते नापता हूँ। मेरा बस चले तो सारी दुनिया को पैदल चलने पर मज़बूर कर दूँ।
प्रेमियों की अनगिन इच्छाएँ होती हैं जिनमें बहुधा बिना सिर पैर की होती हैं।
~
17 फ़रवरी 2024, बाड़मेर
दिन डूब जाता है, लेकिन रौशनी रह जाती है। हल्की नीम रौशनी और घुप्प अँधेरा कैसा बेमेल जीवन है? दरख़्तों पर बैठी चिड़ियाँ नीरव आसमान में झाँकती है। जंगल से छूटा कोई हिरण भागता हुआ आता है। माँ के आँचल में लिपट जाता है। रोहिड़ा के फूल शाम के साये तले झरते रहते हैं। झड़ चुके फूल और ग़ायब हो चुकी इच्छाओं के पंखों पर बैठकर मैं दुनिया घूमना चाहता हूँ।
अपने रेगिस्तान की कसैली याद के साथ आगे बढ़ते हुए ठोकर खाना कोई नई बात नहीं है। ठीक वैसे जैसे शब्दों का क्रम सजाते हुए बार-बार मिटाना। उड़ती हुई रेत और उड़ती हुई बेसबब यादें सहेजना मुश्किल काम है। अतिरंजनाओं और यंत्रणाओं से भरे इस जीवन में बमुश्किल ठीक से चलना क्रांति करने जितना विशाल है।
~
02 नवंबर 2023, बीकानेर
खुला आसमान सामने पसरा हुआ है। भीतर की दुनिया और जद्दोजहद को नियत उत्तर नहीं देने के बाद छत पर लेटा हूँ। विभिन्न दुनियाओं के नक़्शों से दिमाग़ चकरा रहा है। सामने सीमेंट में रंगी एक दीवार है। सुर्ख़ दीवार पर कूँची से रंग भर देने को जी चाहता है, लेकिन रंग उड़ गए और मौसम बिखर गए।
उम्मीद बोरियत में तब्दील होगी, कभी सोचा न था। आज उसे घटते हुए देखकर अजीब दुःख फैल गया है। काम की अधिकता से मन झल्ला जाना चाहिए, मगर ख़ुशी होती है। एक डर से भर गया हूँ। जब यह प्रोजेक्ट ख़त्म हो जाएगा, दुनिया खुलकर अपने रूप में आएगी। मैं कैसे टूटती हुई दुनिया और किरचे-किरचे होते दर्पण देखूँगा।
बीकानेर हूँ तो ठीक ही है। अधिक जानकार नहीं हैं और अगर कोई यहाँ है भी तो मैं रहस्यमय तरीक़े से यहाँ बैठा हूँ। काम के सिलसिले में ज़रूर कुछ लोगों से मिलता हूँ, बात होती है लेकिन सिर्फ़ काम को लेकर ही।
कुछ पुराने दोस्त विन्सेंट वॉन गॉग की पेंटिंग की तरह बिखरे पड़े हैं। किसी का लिखा पढ़ने को बेताब हो जाता हूँ। दूर रखी पेंसिल सरकाता हूँ, लेकिन किताब हाथ में नहीं लेता। जब से दिमाग़ी हालत ठीक नहीं रह रही, किताबें जोखिम लगने लगी है। कुछ पढ़ लेने के बाद बैचेनी होने लगती है। दिमाग़ सुन्न पड़ जाता है।
कई बार यह आत्मीय रिश्तों के टूटने तक भी गई है। इन सबके बावजूद दुनिया अपने पुराने रंग में रंगी हुई बमुश्किल ही बदलती हुई लगती है। जीवन हर क्षण टूटने का नाम है और फिर इस टूटने से बनने का क्रम ही सतत है। अपनी याद के साथ आश्वस्ति छोड़ना चाहता हूँ मगर दुनिया अफ़सोस के लिए जंगी रूप में बैठी है। सिगरेट पीने से माथा चकरा जा रहा है, फिर भी मैं उसे छोड़ना नहीं चाहता। जगजीत की ग़ज़ल कान में नाउम्मीदी की तान छेड़ रही है।
“ठुकराओ अब कि प्यार करो मैं नशे में हूँ
जो चाहो मेरे यार करो मैं नशे में हूँ”
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26 अक्टूबर 2023, बीकानेर
हम जब कहीं जाने के लिए घर से निकलते हैं तो घर पीछे छूट जाता है। छूटती हुई हर चीज़ मुझे घर मालूम लगती है। घर मेरे लिए छूटने की सबसे अधिक वजहों में से रहा। छूटते हुए ही कहानियाँ बनी और टूटते हुए क़िस्से। आदमी के भीतर भरे ग़ुबार के बीच दुखों का बवंडर भी टहलता रहा।
हम कहीं से छूटे ताकि हम कहीं और जा सके। ऊपर जगमग करता चौदस का चाँद है और यहाँ मेरी दो टिमटिमाती आँखें जिनकी रौशनी कभी बुझती है, तो कभी संसार को देखकर अपने आप बंद हो जाती है। तीन साल का जीवन ठोकरों से भरा रहा। घर-घर की ठोकर और आदमी के ख़ुद्दारी की ठोकर सब कुछ मैंने जिया।
वह सब कुछ जो आदमी के लिए ख़ुश रहने में मददगार हो सकता है या शायद होता होगा, लेकिन मेरे भीतर कुछ भी नहीं घटा। धीरे-धीरे रिसता हुआ ग्लानि का जल, मुझे बहा ले जाएगा। ऐसा कभी नहीं सोचा। हर बार झगड़ने के बाद नए सिरे से नई दुनिया की आमद सँभाली।
सँभलने के इस क्रम में कब मैं धड़ाम से गिरा ठीक-ठाक कुछ कहा नहीं जा सकता। लगातार बदलती जगहों के किनारे बैठ मैंने ख़ुद को टटोला लेकिन भीतर से रुई के पानी की तरह टपकता रहा। दिलासे देता रहा सब कुछ ठीक होने का लेकिन अंतहीन यात्राओं का यह पड़ाव रुका नहीं। ठहराव आ नहीं पाया।
“कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तिरा ख़याल भी
दिल को ख़ुशी के साथ-साथ होता रहा मलाल भी”
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31 दिसंबर 2022, सीकर
दूर आकाश में सूरज को जलता देख रहा हूँ। तपिश मुझे भीतर महसूस हो रही है। सूरज से बिखरती किरणों की तरह अस्त-व्यस्त दुःख बिखरे पड़े हुए हैं। जहाँ मैं बैचेनी महसूस कर रहा हूँ। अब शाम होने को है। शाम हो जाएगी तो अँधेरे से लिपट जाऊँगा। मदहोश चाँदनी में सिगरेट के धुँए से उसकी आकृति बनाऊँगा। दुखों की गिनती करूँगा।
दिसंबर ढल गया है, लेकिन दुख ढलते नहीं। दिसंबर वह जगह है जहाँ बरस भर के दुःख एक साथ हृदय में धधकते हैं, इसमें पीड़ा, प्रेम और वात्सल्य है। शुरू होते बरस की गुदगुदी मैं महसूस कर पा रहा हूँ। मुँडेर पर खड़े साल के साथ ही ठंडी पड़ चुकी बेजान देह भी क़रीब लग रही है।
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