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संवेदना न बची, इच्छा न बची, तो मनुष्य बचकर क्या करेगा?

24 जुलाई 2024

भतृहरि ने भी क्या ख़ूब कहा है—
सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति।। 

अर्थात् : जिसके पास धन है, वही गुणी है; या यह भी कि सभी गुणों के लिए धन का ही आसरा है। 

बताइए, क्या यह आज भी सच नहीं है? जिसके पास पद है, पैसा है, पावर है, वही सर्वगुणसंपन्न नहीं माना जाता, आज भी? वही सुंदर है, वही विद्वान है, वही महान् है! क्या नहीं?

बताइए भला, बिना धन के क्या उखाड़ लेंगे आप? धन न हो तो दीन-धरम का निबाह भी मुश्किल है मुंशी जी! अब तो ज्ञान पाने के लिए भी धन चाहिए। बग़ैर धन कुछ भी संभव नहीं है रे बाबा!

8 जुलाई 2024

नंगा सच कभी शालीन नहीं होता। लोग अमूमन धोए-पोंछे झूठ को ही सच समझते हैं। दरअसल, सच सब समझते हैं; लोग जानते हैं कि सच क्या है, पर उसके सार्वजनिक स्वीकार व अभिव्यक्ति से बचते हैं। सच के सामने आने पर लोग सच को सामने लाने वाले के पीछे लामबंद होने लगते हैं। पता नहीं सच ‘परदा-प्रथा’ से कब मुक्त होगा। अभी तो हम सच को झूठ की सेज पर शहीद होते ही देख रहे हैं! सच को सब प्यार करते हैं, मगर घने अंधकार में!

16 अप्रैल 2024

हाथ में मोबाइल न होने पर ऐसा लगता है, जैसे महाभारत युद्ध में उतरे हों और तीर-धनुष तो लिया ही नहीं।

12 फ़रवरी 2024

7 फ़रवरी की मनहूस सुबह पिता को छीनकर ले गई। पिता का होना जीवन में एक आश्वस्ति की तरह होता है। वह आश्वस्ति अब रद्द हो गई। पिता का होना भले कभी-कभार न महसूस होता हो, पर उनका नहीं होना—हमेशा एक रिक्ति की तरह, एक न समाप्त होने वाली पीड़ा की तरह सतत साथ बना रहेगा। जब-जब उनकी याद आएगी, जीवन के हर पल में उनकी यादों से छूटना भला कहाँ संभव हो पाएगा! इतने जीवन प्रसंग जुड़े हैं उनके साथ, आँखें बार-बार नम होती रहेंगी। छाती में कचोट उठती रहेगी। 

वह मेरे शिक्षक भी थे। उनसे मुझे बहुत शिकायतें थीं, पर कभी कह न पाया। अब तो और भी शिकायतें हैं और अब कोशिश करके भी कह नहीं पाऊँगा। वह सुन नहीं पाएँगे। इससे बड़ी शिकायत क्या होगी कि जिस असार संसार में अपने भरोसे वह मुझे लाए, वहाँ मुझे अकेला छोड़ चुपचाप निकल गए। ...काल इतना निर्मम क्यों है!

15 सितंबर 2023

कुछ लोगों में सफल लोगों की बेवजह चापलूसी का रोग होता है। हालाँकि हमें यह बेवजह लगता हो, पर कुछ आतंरिक सूत्र-संकेत होते होंगे। और सफलता का पैमाना है, येन-केन-प्रकारेण अकूत धन कमा लेना या कोई ‘बड़ा’ पद प्राप्त कर लेना! यह भी मानी हुई बात है कि चापलूस लोग न तो भरोसेमंद होते हैं, न उनमें किसी रिश्ते की क़द्र होती है। मौक़े पर रंग बदलना तो कोई उनसे सीखे!

13 सितंबर 2023

हालात यह है कि जो सबसे अधिक आत्ममुग्ध है, वही आत्मुग्धता के ख़िलाफ़ लड़ाई को लीड कर रहा है। जो ख़ुद अपने चरित्र में फ़ाशीवादी है, वही फ़ाशीवाद के लिए सबसे कठोर वक्तव्य लिख रहा है। जो सामंती है, वही सामंतवाद को बुरा कह रहा है। जो आत्मप्रचार में आपादमस्तक डूबा है, वही आत्मप्रचार को कोस रहा है। 

ग़ज़ब है—नक़ली और खोखले विद्रोही को जनता सिर पर लेकर घूम रही है। यह इस दौर का सबसे बड़ा संकट है! भयानक ‘सेटिंग-गेटिंग’ है! बाक़ी तो जो है, हइये है।

5 सितंबर 2023

गुरु से बड़ा कौन है! पर गुरु कोई एक नहीं है। हम हर रोज़ सीखते हैं! यहाँ तक कि हम जिसे पसंद नहीं करते, जो हमें पसंद नहीं करता, जिसे हम अयोग्य समझते हैं, जो हमें अयोग्य समझता है—सबसे हम कुछ-न-कुछ सीखते हैं। सीखने का काम साँस लेने की तरह अनवरत चलता रहता है। 

बड़ों से कुछ सीखते हैं, तो छोटों भी कुछ नया सिखा जाते हैं। जीवन का काम कक्षाओं में सीखे ज्ञान या धार्मिक उपदेशों से नहीं चलता। जीवन में अवसर के अनुसार कभी किसी सज्जन का दिया ज्ञान उपयोगी होता है, तो कभी (अक्सर) किसी दुर्जन के द्वारा ‘पढ़ाया गया पाठ’ बहुत उपयोगी हो जाता है। गुरु अनेक हैं। यह कोई व्यंग्योक्ति या उलटबाँसी नहीं है, हक़ीक़त यही है।

2 सितंबर 2023

लेखक को ख़ुद से भी लड़ना पड़ता है! उसे हर तरह से करेक्ट होने के चक्कर में पड़ना नहीं चाहिए। उसे अलोकप्रिय सत्य का साथ देना चाहिए। उसे ख़ारिज होने के लिए तत्पर होना चाहिए। सर्वस्वीकृत होना मूर्ति हो जाना है,  ज़िंदादिली के खाते में बदनामी तो स्वभावत: दर्ज है।

2 सितंबर 2023

अगर मनुष्य की सारी पीड़ाएँ मिटा दी जाएँ, सारे अभावों से उसे मुक्त कर दिया जाए, कहीं कोई यातना या प्रतिस्पर्धा न रहे, हर स्तर पर बराबरी और हर तरह की समृद्धि से उसे भर दिया जाए—तो क्या होगा? 

हालाँकि ऐसा संभव नहीं है, पर अगर ऐसा संभव हुआ तो क्या वह आदर्श स्थिति होगी? मुझे लगता है, ऐसे में सबसे पहले मनुष्य की संवेदनाएँ मरेंगी, जीवन का रोमांच मरेगा। परम संतुष्टि जैसी कोई चीज़ होती नहीं है, पर अगर हुई तो वह एक ख़तरनाक चीज़ है। वह सपनों का अंत कर देगी। इच्छाओं का अंत कर देगी। मनुष्य की बेचैनियों का अंत कर देगी। राग-द्वेष का अंत कर देगी। 

मनुष्य अपने संघर्षों से मनुष्य है। अपनी बुराइयों से भी मनुष्य अपने जीवन में रोमांच भरता है। जीवन का आनंद समग्रता में ही है। एकरसता संवेदना की शत्रु है। संवेदना न बची,  इच्छा न बची, तो मनुष्य बचकर क्या करेगा?

1 सितंबर 2023

अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से जनतांत्रिक, समतामूलक और न्यायपसंद होना आपको जोखिम में डालता है। आपके अपने ही लोग इसके कारण आपको पसंद नहीं करते। आपको अलग-थलग कर देते हैं और कमज़ोर समझते हैं। आप जिनके लिए लड़ते हैं, वे भी समय देखकर आपसे पल्ला झाड़ लेते हैं। 

इस दुनिया में लोग उसी को महत्त्व देते हैं—जो दमन करता है, हावी हो जाता है, अपनी ताक़त का बार-बार एहसास दिलाता है। समर्थ होना एक बात है, समर्थ होने का एहसास कराते रहना, उसका लुत्फ़ लेना, उसकी बदौलत चुनौती देते रहना, उसके दम पर लोगों को कुचलना, यह अलग चीज़ है। लेकिन इसी चीज़ की क़द्र इस दुनिया में ज़्यादा है। क्या नहीं?

9 अगस्त 2023

मैं ‘शक्तिमान’ नहीं हूँ। अदना-सा लेखक हूँ, बल्कि बहुतों को तो पता भी नहीं है कि मैं लेखक भी हूँ। मैं ऐसा ही लेखक होना चाहता हूँ। चुप्पा और छुपा हुआ। अत: मुझसे कोई अपेक्षा नहीं करें। मैं किसी की अपेक्षा पर खरा उतरने के लिए नहीं लिखता। 

लेखन में कछुआ हूँ। कछुए जितनी भी गति नहीं मुझमें। मुझे इग्नोर करते चलें। मैं न आपके रसरंजन में हूँ, न आपके साहित्यिक धमाल में। साहित्यिक कार्यक्रमों में जाना अरसे से बंद किया हुआ है। बहुत सुनिश्चित-सुनियोजित रूप में। वहाँ आप जिस ‘इगो’ के बोझ को लेकर आते हैं, दया आती है। वहाँ मिलता कम है, खोना बहुत पड़ता है। 

मैं अपनी ज़मीन पर हूँ, अलेखकों, अमहत्त्वाकांक्षी साहित्य रसिकों और ज़मीनी संघर्षों से जुड़े लोगों से घिरा। वे मेरे विषय भी हैं और मेरे स्रोत भी। हर तरह की मदद वही दे रहे हैं। मुझे मरने दीजिए, आप अपनी मौज़ लीजिए। मंडला जाइए, दिल्ली जाइए, राँची जाइए, भाड़ में जाइए! मुझे क्या?

7 अगस्त 2023

बाज़ारवाद में यह चीज़ बहुत बुरी है कि उसमें हर चीज़ की क़ीमत तय हो जाती है! नैसर्गिक चीज़ों की भी, रिश्ते-नातों की भी, आचार-विचार की भी, व्यवहार की भी। मगर हर चीज़ इतनी ख़ूबसूरत पैकेजिंग में आने लगती है कि उसके आकर्षण से मुक्त होना दुर्निवार होता है। पूँजीपतियों ने मनुष्य के इस स्वभावगत लालच को पहचान लिया है। ख़ासकर मध्यवर्गीय मनुष्य के लालच के क्या कहने! अब कुछ नहीं हो सकता, एक वज्र क़ैद में है दुनिया!

बाज़ार की सर्वग्रासी चपेट में हैं हम सब। इससे लड़ना तो दूर छिटकना भी एक भयानक संघर्ष की माँग करता है। हम सबने ‘त्याग’ के आचरण का त्याग तो बाज़ारवाद के प्रारंभिक चरणों में ही कर दिया है। वही एक आयुध था, जिससे इस बाज़ारवाद से लड़ा जा सकता था। गांधी जी ने पवित्र साध्य के लिए साधन की पवित्रता पर ज़ोर दिया था। पर हमने इस सिद्धांत को व्यावहारिक नहीं समझा। 

मनुष्य में भेड़ों वाली प्रवृति भी प्राकृतिक है। एक सफल व्यक्ति जिधर मुड़ा, उधर लाइन लग जाती है। हो सकता है कि मेरा सोचना ग़लत हो। अगर ग़लत हो तो मुझे ख़ुशी ही होगी।

18 जून 2023

अभिव्यक्ति के ख़तरे बहुत कम लेखक उठाते हैं। जो यह साहस करते हैं; उन्हें उपेक्षा, अपमान, अलगाव और बहिष्कार-तिरस्कार के कोड़ों से पीटा जाता है। पर यही है लेखकीय सार्थकता। झुंड में भेड़ बन मुख्यधारा में चलते हुए मील पत्थर पार करते रहना सफलता हो सकती है, सार्थकता नहीं। सार्थकता अल्पमत में आ जाना है। बहुमत के अत्याचार से पीड़ित होना ही सार्थकता है।

23 अप्रैल 2023

संस्करण-दर-संस्करण निकलने से कोई किताब न तो महत्त्वपूर्ण हो जाती है, न चहेती कहे जाने के क़ाबिल! ‘दुर्लभ’ किताबें तो अपने हर संस्करण के लिए तरसती हैं, और उनको चाहने वाले भी उनके हर संस्करण के लिए तरसते हैं! हीरे बाज़ार में कम ही बिकते हैं, मगर फिर भी वे ‘हीरे’ ही कहे जाते हैं!

26 मार्च 2023

वक़्त का क्या है, वह तो बदलता रहता है। दोस्तों को नहीं बदलना चाहिए वक़्त की तरह।

21 मार्च 2023

प्रिय साथी की याद...

मैं अपनी तरफ़ से शायद ही कभी किसी लेखक को फ़ोन करता हूँ। किसी का फ़ोन आ जाता है, तो बात कर लेता हूँ। अक्सर नहीं भी करता। हाँ-हूँ करके फोन काट देता हूँ। कथाकार शशिभूषण द्विवेदी को अक्सर फ़ोन कर लेता था। जब तक बैटरी चुक न जाए फोन चलता रहता था। वह तो कभी-कभी इतनी रात गए फ़ोन करता था कि शायद ही कोई उस समय कॉल अटेंड करे, लेकिन मुझे अटेंड करना पड़ता था। और तब तक बात करनी पड़ती थी, जब तक बात करते-करते वह सो न जाए।

10 मार्च 2023

साहित्यकार कोरोना का पेशेंट नहीं होता कि हर पास आने वाले व्यक्ति को संक्रमित कर दे! साहित्य की सुगंध दूरगामी होती है। दो ग़ज की दूरी पर तो वायरस अटैक करता है।

7 मार्च 2023

असल चीज़ है—‘मार्केट वैल्यू’! कोई तत्त्व महत्त्वपूर्ण नहीं है, कोई वस्तु अपने आप में गुणवान नहीं है। मान लीजिए कल को कोयले की मार्केट वैल्यू हीरे से अधिक हो जाए तो क्या जौहरी की दुकान के शो-केश में कोयला नहीं सजने लगेगा और सुंदरियाँ उस पर ही न्यौछावर नहीं होंगी?

बाज़ारवाद के इस दौर में तो यही सत्य है, बाक़ी का नहीं पता। आज साहित्य भी बाज़ारवाद की चपेट में है। बताते चलें कि हिंदी साहित्य में कोयले की मार्केट वैल्यू हीरे से अधिक हो गई है! अब कोयले को आग, ताप और श्रम से न जोड़ने लगना। हीरे की लूट और कोयले पर छापा!

26 फ़रवरी 2023

न वर्ल्ड बुक फ़ेयर में गए, न लिट फ़ेस्ट में गए! न रसरंजन में मिले, न प्रतिरोध के अभिनय में मिले! न किसी हस्ताक्षर अभियान में तुम्हारा हस्ताक्षर माँगा गया! न तुम दिल्ली गए, न भोपाल गए! न किसी स्कैंडल में फँसे, न सैंडल ढोए। न चैनल पर दिखे, न किसी ड्रामे में दिखे। तुम्हारा इंटरव्यू भी नहीं आया—‘संगत’ में। तुम्हारा ज़िक्र न किया कभी रंजन साहिब ने। न पुरस्कार पाए, न बहिष्कार कर पाए! 

तुम तो बेकार लेखक हो! तुम लेखक ही नहीं हो महाराज! तुम पर लानत है! तुम न फ़िजी लायक़ हो, न पेरिस लायक़! न मॉरीशस लायक़! न तुम जलेस लायक़ हो, न जसम लायक़। न तुम प्रलेस लायक़ हो। संघ लायक़ तो तुम हो ही नहीं सकते! तुम नालायक़ हो हरे प्रकाश! तुम पर लानत है! 

अब पड़े रहो कोने में, जो नहीं पड़े चोन्हे में! तुमसे नाराज़ है अवा, तुमसे नाराज़ है राजो! फलनवा! ढिमकवा! चिलनवा! तेरी उपेक्षा से आहत है—शहर का मशहूर लेखक टुनटुनवा।

9 फ़रवरी 2023

चेले-चपाटे न हों, तो अब हिंदी-साहित्य में सर्वाइव करना मुश्किल है।

5 फ़रवरी 2023

फ़ेसबुक द्वारा जन्मदिन बताने से एक सुविधा रहती है कि कुछ अवांछित ‘मित्र’ स्वयं ही निकल लेते हैं। हालाँकि मित्र के साथ ‘अवांछित’ विशेषण असंगत-सा लगता है, पर फ़ेसबुक इसे भी संभव बनाता है। फ़ेसबुक ही क्यों, फ़ेसबुक के बाहर भी तो ‘अवांछित मित्र’ होते ही हैं, भले यह कितना ही असंगत शब्द-युग्म हो पर यह सच होता है।

19 जनवरी 2023

लोगों को यह शिकायत रहती है कि मैं किसी की प्रशंसा नहीं करता। इस साल इसी चुनौती से जूझना है मुझे। जनवरी-फ़रवरी तो गए, फिर भी।

12 जनवरी 2023

अपना वही है जो अपने जैसा है। 
बाक़ी भ्रम है, छाया है, भूत है।

9 जनवरी 2023

हिंदी में अतिसक्रियता और संपर्कशीलता भी आपको महत्त्वपूर्ण लेखक बना देती है। दरअसल, यहाँ ‘दिखना’ लोगों को इतना आतंकित करता है कि जो हर जगह दिखता है, लोग उसे पूजने लगते हैं। प्रतिभा हो न हो, लेखन चाहे जितना बासी-बोदा हो, पर लगातार लोगों से संपर्क बनाना, लल्लो-चप्पो करना, यहाँ-वहाँ ही-ही करते फिरना, लेखन के नाम पर ‘नित्यकर्म’ करते रहना, संपादकों को साधना और कुछ भी छपवाते रहना आपको केंद्र में ला देता है। 

दो-चार मैगज़ीन में आपकी रचना (कूड़ा कहिए) दिखते ही, लोग आपसे आतंकित होना शुरू कर देते हैं। अब हर एडिटर बग़ैर पढ़े आपको छापना शुरू कर देता है। बड़े-बड़े लोगों के साथ आप उठना-बैठना शुरू कर देते हैं और अपने एकांत को त्याग कर सोशलाइट बन जाते हैं। 

रोज़ कुछ लोगों से मिलने की चाह और निरंतर वाह-वाह की आकांक्षा, चर्चा में बने रहने की जुगत आपकी रही-सही प्रतिभा का भी गला घोंट देती है। मगर आप निरंतर डिमांड पर जो हगकर फैलाते हैं, उसे ही तमाम सूअर निष्ठा से सूँघते हैं और लेकर चीकरते रहते हैं। आपको लगता है,  हो गए लेखक। 

काश कि आप अपने लिखे के प्रति आलोचनात्मक हो पाते, कुछ ठहरकर सोच पाते, अपने एकांत को तलाशते, अपनी उद्विग्नता में धँसते पर आपको क्या मतलब इनसे! भेड़ों के बीच होना और उनका भेंभियाना आपको कुछ सोचने दे तब न! ऐसे मतिभ्रम कुलेखकों की बाढ़ है—हिंदी में। हर शहर में बजबजा रहा है माहौल।

17 मार्च 2022

जब तक भीड़ में नहीं चलूँगा, भेड़ कैसे कहलाऊँगा!

26 अगस्त 2021

अगर आप लेखक पर प्यार लुटाते, उसकी किताबें ख़रीदकर पढ़ते और किताबों की लोकप्रियता इतनी होती कि हर मुहल्ले में कम से कम एक किताब की दुकान होती तो यक़ीन मानिए—लेखक को कभी किसी शोधार्थी से पैसे माँगने की ज़रूरत नहीं होती। जबकि ऐसा नहीं है तो लेखक कहीं से भी पैसे माँग ही सकता है, जहाँ से कुछ गुंजाइश हो। 

वैसे नैतिकता एक ऐसा पाठ है, जिसे हमारे दौर में हर कोई एक-दूसरे को पढ़ाना चाहता है। हर कोई ईमानदार है अपनी नज़र में और हर कोई बेईमान है, ग़ैर की नज़र में। भई, साक्षात्कार देना कोई नागरिक दायित्व या संवैधानिक कर्त्तव्य नहीं है, कि आप इसके लिए किसी लेखक को कटघरे में खड़ा करेंगे। उसे पैसे की ज़रूरत है और आपको साक्षात्कार की, तो मिल-बैठकर आपसी बातचीत से ही रास्ता निकलता है, जो कि निकलता ही है। 

किसी से आप किसी सिलसिले में बात करें, उससे बिना पूछे उसके फ़ोन को टेप करें और अन्यथा उसका इस्तेमाल कर लें; यह भी एक प्रसंग है। यही पूरे प्रसंग में सबसे ग़लत लगता है। बाक़ी ग़लत को ग़लत कहना एक जोखिम है। अतएव क्षमायाचना भी।

8 अप्रैल 2021

किसी पत्रिका का बंद होना निश्चित ही दुखद है, लेकिन ‘पहल’ के बंद होने से हिंदी-साहित्य की कथित मुख्यधारा को गहरी चोट लगी है। वही दलित-आदिवासी-अल्पसंख्यक वर्ग के लेखकों पर इसका ज़रा भी असर नहीं पड़ा है। मैंने इन वर्गों के लेखकों की प्रतिक्रिया नहीं देखी—‘पहल’ के बंद होने पर। 

अब ‘पहल’ नहीं है और जब ‘पहल’ थी, तब भी मेरे मन में यह सवाल आता रहा कि आख़िर कितने दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और भारत के दूर-दराज़ के क़स्बों में रहने वाले संघर्षशील लेखक ‘पहल’ में छपे, जिनका हिंदी-साहित्य के शक्ति-केंद्रों से कोई कनेक्शन नहीं रहा। कितने ऐसे लेखकों के अवदान या कृतियों की समीक्षाएँ को ‘पहल’ ने प्रकाशित किया? 

मुझे नहीं लगता कि ‘पहल’ ने हिंदी साहित्य के सामाजिक दायरे और लोकतांत्रिकता के विकास में कोई ख़ास योगदान दिया है। मुझे पता है कि हिंदी-साहित्य के मुख्यधारा-लेखकों को मेरी यह बात अच्छी नहीं लगेगी और वे रचनात्मक श्रेष्ठता के तर्क के साथ मन ही मन मुझे कोसेंगे। वे इन पंक्तियों पर आकर अपनी बात नहीं कहेंगे। यह उनकी ‘कुलीनता’ का तक़ाज़ा है, पर मेरे जैसे अलेखकों पर भी उनके ‘शाप’ का क्या असर पड़ना है...

1 अप्रैल 2021

दोस्त थोड़े से ही होते हैं, थोड़े क्या बिल्कुल थोड़े होते हैं। सभी परिचित दोस्त नहीं होते हैं। हाँ, परिचितों के साथ संभावना होती है कि वे दोस्त बन जाएँ, जैसे कि दोस्तों के साथ आशंका रहती है कि वे दोस्ती में भी न ‘खेल’ जाएँ।

7 जनवरी 2020

इसमें दो राय नहीं कि देश में हालात बहुत अच्छे नहीं हैं। हुक्मरान आम आदमी के लिए अमन-चैन, नौजवानों के लिए रोज़ी-रोज़गार और बेहतर शिक्षा के हालात लाने की जगह किसी और ही सनक से भर गए हैं। देश की प्रमुख यूनिवर्सिटिज में जिस तरह के हालात बनाए जा रहे हैं, वह घोर निंदनीय है। इससे आम जन के मन में सरकार की कोई अच्छी छवि नहीं बन रही है। 

किसी भी सरकार के लिए यह आत्मघाती है कि वह अपने ही होनहार बच्चों को अपना विरोधी और विपक्ष समझ बैठे। और अगर सरकार के इशारे पर यह सब नहीं हो रहा है, तो समय है कि वह इस बात को साबित करे। देश बुरी तरह महँगाई,  बेरोज़गारी और आर्थिक बदहाली के चपेट में है। किसान, छोटे-मोटे काम-धंधे करने वाले लोग काफ़ी परेशान हैं।

निजीकरण और अधिकांश निजी कंपनियों के खस्ता हालात के कारण नौजवानों की लगी हुई नौकरियाँ भी छिन रही हैं। सरकारें लगातार नौकरियाँ कम करती गई हैं। देश के शैक्षणिक हालात वैसे भी बहुत अच्छे नहीं। ऐसे में लोगों को भावनात्मक मुद्दों में उलझाने की राजनीति निश्चित तौर पर घटिया राजनीति है। 

देश कोई अमूर्त चीज़ नहीं है, देश की जनता ही देश है। देश में रहने वाले नागरिकों के लिए ख़ुशहाली की हर संभव कोशिश करना ही राष्ट्रभक्ति या देशभक्ति है। इस देश में अनेक विचारों, पंथों, भावनाओं और विश्वासों को मानने वाले लोग हैं, और वे युगों से परस्पर सहयोग और विश्वास से जीवन और देश की गाड़ी खींचते रहे हैं। उस भरोसे और अपनत्व को ख़तरे में डाल देने से देश को क्या मिलेगा, सिवाय तबाही के? 

अगर आज देश में यह हालात बने हैं कि पुरानी कविताएँ और नज़्में भी उस हालात को चुनौती देने लगी हैं, तो उन कविताओं और नज़्मों को मिटा देने की कोशिश की जगह, यह कोशिश ही सार्थक होगी कि उन हालातों को बदला जाए। कविताओं, नज़्मों, नारों को कभी मिटाया नहीं जा सकता। आप किताबों को हटाएँगे, तो वे ज़ुबानों पर चढ़कर ललकारने लगेंगी। 

सो, बेहतर है कि हालात बदल दिए जाएँ, पर क्या संख्या-बल पर इतरा रही कोई सत्ता इस बात को समझेगी? काश, समझती।

18 दिसंबर 2019

फ़ेसबुक आभासी माध्यम है। फ़ेसबुक फ़्रेंड्स भी ज़्यादातर आभासी ही हैं। ऐसे लोग, जिनसे हम कभी नहीं मिले। ऐसे लोग जिनके बैकग्राउंड का हमें कुछ भी नहीं पता, वे सभी दोस्त हैं। यहाँ हम उनसे बातचीत करते हैं। हम परस्पर एक-दूसरे के विचारों और अनुभवों पर प्रतिक्रिया देते हैं। इनमें बहुत सारे लोगों से बहुत घनिष्ठता भी बन जाती हैं। बहुत प्यार और स्नेह भी महसूस होता है। क्या हुआ अगर हम कभी नहीं मिले। ज़रूरी तो नहीं कि मिलकर ही भावनाएँ और लगाव प्रकट किए जाएँ। हम बग़ैर मिले भी एक-दूसरे के काम आ जाते हैं। 

फ़ेसबुक के बारे में सोचते हुए, मुझे अक्सर वे बेहतरीन उपन्यास याद आते हैं—जिनके सारे पात्र काल्पनिक होते हैं, सारी कहानी काल्पनिक होती है, सारी घटनाएँ काल्पनिक होती हैं, मगर उनसे गुज़रते हुए हम उनसे जुड़ जाते हैं। वे लंबे समय तक हमारा पीछा करते हैं। हम उनके बारे में पढ़ते हुए कहीं-कहीं रोने तक लगते हैं, कहीं मुस्कुरा देते हैं। 

हम उपन्यास के उन चरित्रों से कभी नहीं मिलते, पर वे हमें वास्तविक लगते हैं, बल्कि हम अपने पड़ोस के लोगों, परिवार के लोगों से भी अधिक चिंता उन चरित्रों की करने लगते हैं। भावनाओं का खेल बड़ा अजीब है। हम जिन्हें प्यार करते हैं, जिनकी चिंता करते हैं, हो सकता है वे काल्पनिक हों, काल्पनिक न भी हों तो फ़ेसबुक फ़्रेंड्स आभासी तो हैं ही। लेकिन हमारा लगाव, हमारा प्यार काल्पनिक या आभासी नहीं हो सकता। 

हमें जो लाइक और लव के इमोजी मिलते हैं, उनके पीछे की भावना काल्पनिक नहीं हो सकती। हमारे अनुभवों पर, विचारों पर क्यों कोई लव या लाइक के इमोजी बनाता है! जबकि वह हमें जानता तक नहीं...

निश्चित तौर पर कोई न कोई लगाव तो है... कोई क्यों फ़ॉलो करता है हमें और करता चला जाता है... कोई क्यों हमें अपनी प्रतिक्रियाओं से कुछ लिखने को, अपने विचारों, सुख-दुख को बताने के लिए उकसाता है... कोई क्यों उसे लाइक करता चला जाता है... 

कोई आख़िर क्यों हमसे नाराज़ होकर अन्फ़्रेंड या ब्लॉक कर देता है। कोई न कोई अपेक्षा या लगाव उसे भी तो होता ही होगा... फ़ेसबुकिया शब्द को लोगों ने न जाने कैसे नकारात्मक बना दिया है। पर फ़ेसबुकिया आज वास्तविक से ज़्यादा अहम रोल निभा रहा है—हमारी दुनिया में। मैं अपने सभी फ़ेसबुकिया दोस्तों को बार-बार सलाम करता हूँ। कम से कम हम किसी न किसी बहाने संवाद कर रहे हैं, एक दूसरे से जुड़ रहे हैं, अपने भावनाओं को बचाए हुए हैं, जो हमें मनुष्य बनाती हैं। यह निरंतर सिंथेटिक होती दुनिया में अद्भुत बात है।

3 दिसंबर 2019

हमारी सभ्यता से अनौपचारिक पत्रों की विदाई लगभग हो चुकी है। अगला ख़तरा जो मनुष्य की सभ्यता पर मँडरा रहा है, वह है लोगों के आपस में मिलने-जुलने की संस्कृति का नाश। धीरे-धीरे मनुष्य इतना ज़्यादा वर्चुअल होता जा रहा है, जैसे लगता है कि वास्तविक दुनिया में अब शायद उसकी दिलचस्पी रह ही नहीं गई है। इसी क्रम में रिश्तों के क्षरण की रफ़्तार भी बढ़ती जाएगी। देह से दूरी नहीं, मन की दूरी। वह मन जो मनुष्य को मनुष्य बनाता है।

2 दिसंबर 2019

कभी-कभी पीछे मुड़कर देखने पर अपना ही जीवन कितना पराया और कहानी सरीखा लगता है, और उस पर लाड़ भी बहुत उमड़ता है। मन भावुकता से भर जाता है। अतीत में छूट गई चीज़ें, खो गए दोस्त, रिश्ते—जब याद आते हैं, तो अज़ीब-सा विकल हो जाता है मन। उसे शब्दों में बाँधना कितना मुश्किल!

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17 अगस्त 2024

जुमई ख़ाँ ‘आज़ाद’ : बिना काटे भिटवा गड़हिया न पटिहैं

कवि जुमई ख़ाँ ‘आज़ाद’ (1930-2013) अवधी भाषा के अत्यंत लोकप्रिय कवि हैं। उनकी जन्मतिथि के अवसर पर जन संस्कृति मंच, गिरिडीह और ‘परिवर्तन’ पत्रिका के साझे प्रयत्न से जुमई ख़ाँ ‘आज़ाद’ स्मृति संवाद कार्य

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