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महाभारत : वीरता के आवरण में

उपनिवेशित समाजों पर अपनी क़ब्ज़ेदारी को न्यायोचित ठहराने के लिए उपनिवेशकों ने यह बहाना गढ़ा था कि इन समाजों में वैयक्तिक उत्कर्ष की लालसा नहीं है। न ही वे एक समुदाय के रूप में ख़ुद को गठित कर पाने में सक्षम हैं। औपनिवेशिक शासकों ने यह दलील भी तैयार की थी कि इन समाजों में नैतिकता, ईमानदारी और वीरता के उच्चतर मानवीय मूल्य अनुपस्थित हैं। इसलिए उपनिवेशित करके उन पर उपकार किया जा रहा है।

रामायण और महाभारत में इन औपनिवेशिक तर्कों का प्रत्याख्यान रचने की प्रचुर सामग्री है। इनकी एक गहन पढ़ंत वि-उपनिवेशीकरण की भारतीय परियोजना को आगे बढ़ा सकती है। एक साभ्यतिक मनोभावना के रूप में रामायण और महाभारत भारतीय उपमहाद्वीप में सहस्राब्दियों से मौजूद हैं। लिखित और मौखिक पाठों में उन्हें जीवन मिलता रहा है और इस प्रक्रिया में उनके सैकड़ों पाठभेद भी अस्तित्व में आए हैं। यहाँ हम अपने आपको महाभारत तक सीमित रखेंगे। 

भारत के उपनिवेशीकरण के बाद इस महाकाव्य के ‘टेक्स्ट’ के मानकीकरण की विभिन्न परियोजनाएँ आरंभ हुईं। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली परियोजना पुणे स्थित भंडारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट की थी। बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में जब महाभारत के ‘क्रिटिकल एडिशन’ को मुद्रित रूप में लाने का प्रयास आरंभ हुआ, तो इस प्रक्रिया में भारतीय उपमहाद्वीप के सांस्कृतिक दायरों से विभिन्न लिपियों में इसकी पांडुलिपियों की एक बड़ी शृंखला प्रकाश में आई। इससे स्पष्ट हो गया कि एक पाठ के रूप में महाभारत भारतीय उपमहाद्वीप के प्रत्येक हिस्से में मौजूद है। 

‘क्रिटिकल एडिशन’ का शुरुआती काम ही कम-से-कम दस पांडुलिपियों की मदद से तैयार होना आरंभ हुआ। उसमें महाभारत की जो प्राचीनतम पांडुलिपि शामिल थी, नेपाल से मिली थी। इसका लेखनकाल 1511 ईस्वी सन् माना जाता है। शारदा, नेवारी, मैथिली, तेलुगु और मलयाली लिपि में लिखी गई महाभारत की यह पांडुलिपियाँ उसके विस्तार और संरक्षण की तरफ़ इशारा करती हैं।

जैसाकि वी.एस. सुकथंकर ने रेखांकित किया है कि महाभारत के जग-प्रसिद्ध टीकाकार नीलकंठ ने सत्रहवीं शताब्दी के बनारस में रहकर पच्चीस वर्ष लगाकर जब महाभारत की टीका लिखी तो उनके पास भारत के विभिन्न भागों से एकत्र की गई पांडुलिपियाँ थीं।

इसी के साथ महाभारत की पुनर्सर्जना भी हुई। भारत की विभिन्न भाषाओं में महाभारत रचा गया। प्रत्येक भाषा ने इस महाकाव्य को एक स्वतंत्र सांस्कृतिक पहचान दी। इस प्रक्रिया में यह महाकाव्य भारत के विविध सांस्कृतिक क्षेत्रों में एक ‘साहित्यशाला’ की भूमिका में आ गया। ज़ाहिर है कि महाभारत कवियों की रचना है। उसमें व्यास से लेकर असंख्य सूत, मागध और कुशीलव समुदायों का योगदान है। 

सी.आर. देशपांडे ने ध्यान दिलाया है कि महाभारत में समाहित सैकड़ों आख्यान, विमर्श और संहिताएँ पहले से ही एक तरल रूप में प्रवाहमान थीं। उनकी भारतीय समाज में मौजूदगी थी, जिसे बाद में विभिन्न पाठों में पिरो दिया गया। वास्तव में एक जीवंत पाठ के रूप में महाभारत समाज में पहले से ही व्याप्त था। महाभारत की एक केंद्रीय विषयवस्तु होने के बावजूद इसके साथ विभिन्न भाषाओं के रचनाकारों ने पर्याप्त रचनात्मक एवं सांस्कृतिक छूट ली। 

कालाहांडी में महाभारत का रूप छत्तीसगढ़ में प्रचलित महाभारत के विभिन्न रूपों से अलग है, जहाँ पाठ, अभिनय और प्रदर्शन के लिहाज से वैशिष्ट्य लक्षित किया जा सकता है। स्वामी स्वरूपदास देथा कृत ‘पांडव यशेंदुचंद्रिका’ और भगवानदास पटेल द्वारा संकलित ‘भीलों का भारत’ अलग-अलग भावभूमियों पर स्थित हैं। यहाँ तक कि डांग और बस्तर के महाभारत एक जैसे नहीं है। निकट अतीत में हिंदी में भी ‘महाभारत दर्पण’ जैसी रचनाओं का प्रणयन हुआ। यह पृष्ठभूमि महाभारत की क्षेत्रीय परंपराओं पर भी व्यापक विचार-विमर्श करने की आवश्यकता रेखांकित करती है।

वास्तव में, जीवन और विश्वबोध के साथ-साथ महाकाव्यों में परिवार, विवाह, उत्तराधिकार और नैतिकता के प्रतिमान भारतीय जीवनदृश्य का व्यापक संसार प्रस्तुत करते हैं। व्यक्ति, परिवार और समाज में अपनी भूमिका तलाश रहे स्त्री-पुरुष अपनी बात कहने के लिए महाकाव्य का सहारा लेते हैं। इसको पढ़ते हुए कोई भी पाठक इस बात को लक्षित कर सकता है कि एक विस्तृत कथासंकुल के भीतर भारतीय उपमहाद्वीप की नैतिक कल्पनाशीलता, मानवीय संकट और द्वंद्व की पहचान, सच और झूठ, धर्म-अधर्म, लोभ और त्याग, मानवीय देह की लिप्सा और संन्यास, पाप-पुण्य और हिंसा-अहिंसा की शाश्वत गुत्थियों को यह महाकाव्य विभिन्न दिशाओं से खोलने का काम करता है। 

विभिन्न भाषाओं, खासकर संस्कृत में लिखित महाभारत मानवीय जीवन के इतना अधिक निकट है कि लोग इसे पढ़ने से घबराते हैं। कहते हैं कि इसका कारण महाभारत का आकार है, उसमें युद्ध की अधिकता है लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि इसका कारण महाभारत की वेधकता है। महाभारत मनुष्य को आईना दिखा देता है और कहता है कि देखो, यही तुम्हारा चेहरा है।
 
एक

एक हज़ार ईस्वी बाद के भारतवर्ष में अलग-अलग इलाक़ों और भाषाओं पर हम यदि एक सरसरी नज़र दौडाएँ तो पाते हैं कि यहाँ की अधिकांश भाषाई संस्कृतियों में महाभारत के विभिन्न पात्रों, उनकी जीवन दशाओं, संकटों और निष्पत्ति पर न केवल स्वतंत्र कथाओं, कविताओं, गीतों और नाट्य रूपों का सृजन किया गया है, बल्कि उन संस्कृतियों ने महाभारत को अपनी नैतिक और दार्शनिक व्यवस्थाओं में ढाल लिया है। इस प्रकार महाभारत प्रत्येक संस्कृति और भाषा में नवीकृत होता रहा है। 

महाभारत के एक यशस्वी संपादक श्रीपाद दामोदर सातवलेकर ने कहा भी था कि महाभारत केवल इतिहास होता, तो कभी का पुराना पड़ जाता। परंतु यह ‘ऐतिहासिक काव्य’ है अथवा ‘काव्यमय इतिहास’ है, इसलिए यह पुराना होता हुआ भी सदा नवीन रहता है। इसलिए हर एक समय में इस ग्रंथ से महत्त्वपूर्ण बोध प्राप्त हो सकते हैं।

वास्तव में महाभारत केवल पांडवों और कौरवों के बीच जमीन के लिए लड़ा गया, युद्ध भर नहीं है, बल्कि एक समाज के रूप में भारत के विकास की सतत कहानी भी है। इसलिए विभिन्न भाषाओं ने उसका साहित्यिक आभ्यंतरीकरण किया है। अलग-अलग समूहों, स्त्री-पुरुष और वैकल्पिक लैंगिकता के मनुष्यों ने महाभारत में अपनी आत्मछवियाँ और संकटों के समाधान देखे हैं। 

यद्यपि महाकाव्य इस महादेश के जीवन में एक सांस्कृतिक संसक्ति की भूमिका निभाते रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद उन्हें एक ‘कल्पित अतीत’ के नाम पर सार्वजनिक बहसों की मद्धिम रोशनी में धकेल दिया जाता है। एक सभ्यता और उसके वाहक के रूप में हमें इससे बचना चाहिए। वास्तव में ‘इतिहास की एक औपनिवेशिक समझ’ हमें हर उस चीज़ को ‘इतिहास की कसौटी’ पर कसने को मजबूर करती है, जिसे शताब्दियों की लंबी अवधि में भारतीयों ने अर्जित किया है। इस प्रक्रिया में जब हम महाभारत को उपनिवेश की कसौटी पर ‘इतिहास’ नहीं घोषित कर पाते, तो उससे पिंड छुड़ाकर भाग लेते हैं अथवा उसके प्रति एक ‘पैथोलॉजिकल रवैया’ अपना लेते हैं। इसी के साथ विद्वानों का एक ऐसा वर्ग भी है जो महाभारत को ‘हिस्ट्री’ का ग्रंथ घोषित करता रहता है। 

वास्तव में, महाभारत में ‘इतिहास’, पुराण’,‘गाथा’ और ‘नाराशंसी’ की परंपरा के बारे में पर्याप्त विवरण मिलते हैं, लेकिन उसमें वह आधुनिक यूरोपीय ‘मेथड’ नहीं है जिसके आधार पर किसी लिखित या मौखिक सामग्री को ‘इतिहास’ कहा जा सके। महाभारत में, स्वयं संजय को धृतराष्ट्र ने ‘सूत’ कहा है जो महाभारत में घट रही घटनाओं को सुना रहे हैं। इस प्रकार संजय महाभारत की कथा के संरक्षक के रूप में उभरते हैं। सूत, मागध या कुशीलव यही काम करते थे।

दो

महाभारत की शुरुआत में इस ग्रंथ की तुलना एक वृक्ष से की गई है और उस प्रसंग में ‘स्त्री पर्व’ को इस वृक्ष की छाया कहा गया है। महाभारत में स्त्रियाँ अपनी आकांक्षाओं को प्रकट करती हुई प्रेम, शाप और संताप के बीच राह बनाती हुई देखी जा सकती हैं। वे अपने प्रेम से ऋषियों, चक्रवर्ती राजाओं, योद्धाओं और मृत्यु तक को जीत लेती हैं। गंगा, उर्वशी, देवयानी, शर्मिष्ठा, सत्यवती, हिडिंबा, उत्तरा, सुवर्चला, माधवी, अम्बा, अम्बालिका, कुंती, माद्री, गंधारी, सावित्री, दमयंती और सबसे बढ़ कर द्रौपदी का चरित्र इस महाकाव्य को एक स्त्री परिप्रेक्ष्य देता है। 

लेकिन ध्यान दीजिए कि मध्य भारत के भीलों की द्रौपदी उस द्रौपदी से अलग है, जो संस्कृत या बांग्ला भाषा में सृजित की गई। लेकिन इन सभी में द्रौपदी का चरित्र सशक्त और हस्तक्षेपकारी है। भीलों की द्रौपदी अपनी आकांक्षाओं को संस्कृत में लिखित महाभारत की द्रौपदी की अपेक्षा कहीं स्पष्ट तरीके से प्रस्तुत करती है। 

इसी प्रकार राजपूत, मुसलमान और दलित समुदायों में द्रौपदी का चरित्र एक नई उठान ग्रहण करता है। यहाँ पर सुदीप्त कविराज को उद्धृत करना समीचीन होगा। वे कहते हैं कि महाभारत के केंद्रीय पात्र होने का गौरव निस्संदेह द्रौपदी के पक्ष में जाएगा। संदेहास्पद अथवा अस्पष्ट कुलनामधारी नायकों के बरक्स, जिन्हें विभिन्न देवताओं का वंशज होने के नाते अति-मानवीय गुणों से मण्डित कर दिया जाता है, द्रौपदी मनुष्य के विरल गुणों की एक प्रतिमूर्ति के अलावा और कुछ दिखाई नहीं देती, और यह तब है जबकि उसे प्रतिशोध की अग्नि से उत्पन्न बताया गया है। वह आख्यान में आनेवाली विपत्तियों का मुक़ाबला अपनी निपट मानवीय वेध्यता और साहस के बल पर करती है।  

महाभारत में मनुष्य की उस दशा को मार्मिक तरीक़े से चित्रित किया गया है, जब वह मजबूत दिखने के बावजूद किसी हथियार, शाप या वरदान के वशीभूत होकर बींध दिया जाता है। कर्ण और बर्बरीक इसके उदाहरण हैं। महाभारत के युद्ध क्षेत्र में अर्जुन का संशय, युद्ध के बाद युधिष्ठिर की अस्थिरचित्तता एवं भीष्म द्वारा उसका समाधान के प्रसंग ऐसे हैं, जिनसे मनुष्यता हमेशा जूझती रहती है। महाभारत पढ़ते हुए (या सुनते हुए) कोई व्यक्ति यह लक्षित कर सकता है कि यह ग्रंथ एक नैतिक व्यवस्था का सृजन करना तो चाहता है, लेकिन जब-तब उसके अंदर लोगों का जीवन पर्याप्त हिचकोले खाते हुए दिखता है। 

अभिमन्यु और द्रोण वध के प्रसंग बताते हैं कि ‘घोषित युद्धनीति’ के बावजूद छ्ल-क्षद्म योद्धाओं की नियति बन जाता है और रणभूमि में वीरता एक आवरण बनकर रह जाती है। अंतत: महाभारतकार के समक्ष ही यह संकट आ खड़ा होता है कि वह कैसे बताए कि किसने ज़्यादा नैतिकता का उल्लंघन किया है। नैतिकता-अनैतिकता का यह प्रश्न बाद में एक और छोटी पारिवारिक मारकाट में तब्दील हो जाता है, जिसमें कृष्ण कुछ समय तक दर्शक रहने के बाद भागीदार हो जाते हैं। योगेश्वर कृष्ण का यह आपा खोना महाभारत के पाठक को सदमा पहुँचाता है कि यह वही कृष्ण हैं जिन्होंने संशयग्रस्त अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था। 

ऐसा ही एक अवसर विद्वान विश्वामित्र के जीवन में आता है जब बारह वर्षों के भीषण अकाल के समय भूख से विचलित ऋषि के सामने संकट आता है। विवशतावश चांडालों की बस्ती में जाकर कुत्ते के शरीर का पिछला हिस्सा चुराने की नौबत आ जाती है। इस अवसर पर नामहीन चांडाल और जग-प्रसिद्ध ऋषि के बीच भूख और धर्म पर एक लंबा संवाद होता है। अंतत: विश्वामित्र कुत्ते की टाँग लेकर चले जाते हैं। विश्वामित्र का संकट उस समय भले ही सुलझ गया हो, लेकिन आज भी पेट की आग और बौद्धिक प्राथमिकताओं के बीच संघर्ष चलता रहता है।

तीन

महाभारत मनुष्यों की गाथा के साथ पशुओं की भी कहानी है। यक्ष, किन्नर और गंधर्व भी महाभारत के अविभाज्य हिस्से हैं। कुछ स्थलों पर तो वे कथा को नियंत्रित करने वाले कारक हैं। महाभारत का वन पर्व बहुत ही घटनासंकुल है। इसके आजगर पर्व में भीम की दुर्गति बनाने वाला अजगर भले ही पूर्व जन्म का नहुष है, लेकिन एक समय के लिए उसके सवालों का जवाब देना युधिष्ठिर के लिए मुश्किल हो जाता है। बिना जवाब दिए मुक्ति नहीं है। 

महाभारत के पात्रों के बारे में जितना महाभारतकार बताता है, उससे ज़्यादा वह उनको ख़ुद मौक़ा देता है कि वे अपना परिचय पेश कर सकें। इस प्रक्रिया में महाभारत एक संवाद प्रधान रचना में बदल जाता है। वह अपनी संवादपरकता में यक्षों, किरातों और सर्पों को यह मौक़ा देता है कि वे अपनी बात रख सकें। महाकाव्य की कथा जब टूटने लगती है तो उसे जोड़ने का काम ग़ैर-मानवीय तत्त्व करने लगते हैं। अभी तक महाभारत को ‘मनुष्यों की दृष्टि’ से पढ़ा जाता रहा है। उसे ‘पशुओं की दृष्टि’ से भी देखा जाना चाहिए। 

आधुनिक युग में मनुष्य ने महान होने का नशा कर लिया है। इसके कारण वह वनों, पर्वतों, नदियों और वन्य जीवों को रौंदता हुआ आगे बढ़ता जा रहा है। महाभारत के वन पर्व में एक प्रसंग आता है, जब पांडव द्वैतवन में रहते हैं। वहाँ के पशु युधिष्ठिर को स्वप्न में दिखाई देते हैं। थर-थर काँपते हुए उन्होंने युधिष्ठिर से प्रार्थना की कि द्वैतवन के पशुओं को आपने मार डाला है और अब हमारी इतनी ही संख्या बची है। इससे पहले कि हमारा सर्वथा संहार ही न हो जाए, आप अपना निवास स्थान बदल लीजिए ( वनपर्व, 258, 2-12)। आज पूरी पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ वनों और वन्य जीवों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं, वहाँ पर पशुओं की यह करुण पुकार सुनी जा सकती है। महाभारत की अधिकतर घटनाएँ महल से बाहर वनों, मैदानों, चरागाहों और नदियों के किनारे घटती हैं।

देखा जाए तो पांडवों के जीवन का वास्तविक रंगमंच वन में ही सजता है। वे बार-बार नगर में लौटना चाहते हैं और धृतराष्ट्र और दुर्योधन उन्हें वन में धकेलते रहते हैं। इस प्रकार महाभारत में वन और नगर के बीच एक संघर्ष है, जहाँ विवेक और न्याय वन के पक्ष में खड़ा है। 

यदि भारत में राजशासन पद्धति के ग्रंथों को ध्यान से देखें, तो वहाँ भी वन और नगर की जगह ‘समाज और महल के बीच’ एक द्वंद्व दिखाई पड़ता है। राजा की सत्ता कहाँ तक होगी, समाज के किस हिस्से पर राज्य का कितना नियंत्रण होगा- इस पर विपुल सामग्री उपलब्ध है। महाभारत राजा के कर्तव्य निर्धारित करते समय उसमें प्रजा के हित को हमेशा आगे रखता है। महाभारत का शांति पर्व राज्य और समाज के बीच आने वाले प्रत्येक विषय का विवेचन करता है और एक समय पर वह राजा को काल का कारण कहने लगता है (शांति पर्व, 70, 79)। 

महाभारत में एक तरफ़ राजा की सत्ता बनाए रखते हुए वर्ण व्यवस्था की पकड़ भी मज़बूत दिखती है, लेकिन उसके दूसरे प्रसंग दिखाते हैं कि वास्तविकता में ऐसा संभव नहीं हो पा रहा था। महाभारत दिखाता है कि राजा और कोई टेक्स्ट इतना शक्तिशाली नहीं हुआ कि वह समय अथवा समाज की लगाम को पूरी तरह अपने वश में कर ले। समाज में अपनी दिशा तय करने की ताक़त बची रही है। इस दृष्टि से भी भारत के अतीत पर विचार किया जाना चाहिए।

उपरोक्त पृष्ठभूमि में, हम एक ऐसी विचार गोष्ठी कर रहे हैं जो ‘पाठ’ और ‘स्मृति’ के रूप में महाभारत पर एक संवेदनशील निगाह डाल सके। इस विचार गोष्ठी के बहाने हम इस बात पर भी चर्चा करना चाहते हैं कि अपनी इयत्ता के साथ दूसरों का सम्मान करते हुए हम कैसे एक संवादधर्मी समाज का निर्माण कर सकते हैं। हमें अपनी सभ्यतामूलक स्मृतियों से एक रचनात्मक संवाद कायम करना होगा। 

महाभारत हमें यह अवसर उपलब्ध कराता है कि हम यह देख सकें एक ही विचार अलग-अलग मानवीय दायरों में किस प्रकार अंकुरित होता है। इसका एक गहन पाठ, हमारे भीतर, हमारे आसपास और बृहत्तर समाज में चल रही खदबदाहट को सुनने में हमारी सहायता कर सकता है। हमारी ख़ास क़िस्म की विचारप्रवणताओं ने हमें दूसरे विचारों के प्रति थोड़ा कम उदार कर दिया है। इसके कारण हम ‘सहमतियों की तलाश में’ ज़्यादा-से-ज़्यादा रहने लगे हैं, जबकि महाभारत असहमति को अलग-अलग कोणों से दर्शक/श्रोता/पाठक के समक्ष रख देता है।

यहाँ प्रस्तुत इस बीज-पत्र के आधार पर इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (नई दिल्ली) में एक दो दिवसीय विचार गोष्ठी—‘महाभारत और औपनिवेशकता का प्रत्याख्यान’—संपन्न हुई। इसे अम्बेडकर विश्वविद्यालय (दिल्ली) के देशिक अभिलेख-अनुसंधान केंद्र (सीआरए-आईआईएलकेएस) ने 18-19 सितंबर 2024 को आयोजित किया।

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