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कलाकारों के जीवन की मार्मिक कहानी

नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (National School of Drama) 23 अगस्त से 9 सितंबर 2024 के बीच हीरक जयंती नाट्य समारोह आयोजित कर रहा है। यह समारोह एनएसडी रंगमंडल की स्थापना के साठ वर्ष पूरे होने के अवसर पर किया जा रहा है। समारोह में 9 अलग–अलग नाटकों की कुल 22 प्रस्तुतियाँ होनी हैं। समारोह में 30 और 31 अगस्त को नाटक ‘बाबूजी’ खेला गया। यहाँ प्रस्तुत है नाटक की समीक्षा : 

‘बाबूजी’ नाटक एक तरह से हमारे समाज के हर उस व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करता है, जो ज़िंदगी को अपनी आज़ाद शर्तों के साथ जीना चाहता है। नाटक का नायक बाबूजी एक ऐसा व्यक्ति है, जो अपनी ज़िंदगी में सामाजिक ज़िम्मेदारियों के साथ-साथ अपने अंदर के कलाकार को भी जीवित रखना चाहता है। नौटंकी जैसे लोकनाट्य विधा में उसका मन रमता है, लेकिन नौटंकी के प्रति उसके प्रेम के कारण उसका अपना पारिवारिक जीवन भी बिखर जाता है। पत्नी, बेटा, उसके अपने साथी और समाज के लोग उसका साथ धीरे-धीरे छोड़ देते हैं। उसे अपने ही घर से बाहर कर कर दिया जाता है।

इन सब के बावजूद कला के प्रति उसका समर्पण और प्रेम कम नहीं होता। तबले की थाप और हारमोनियम की गूँज अंतिम सांस तक उसके साथ रहती है। नाटक का प्रत्येक पात्र हमारे समाज के अलग-अलग व्यक्तियों और तबक़े की सोच का प्रतिनिधित्व करते हैं। हमारे समाज में आज भी एक कलाकार को अपने जीवन में बहुत ही संघर्ष और द्वंद्व से गुज़रना पड़ता है। ‘बाबूजी’ नाटक तमाम कलाकारों की तरफ़ से सबके प्रेरणादायक ब. व. कारंत जी को समर्पित है।

कलाकार और समाज एक-दूसरे के धुर विरोधी रहे हैं। समाज ने कलाकारों की स्वछंदता को हमेशा नकारा है, और कलाकारों ने हमेशा इस स्वछंदता की ख़ातिर संपूर्ण समाज का बहिष्कार किया है। हमारे समाज को कला, कलाकार अथवा अन्य किसी चीज़ से दिक़्क़त नहीं है। उन्हें दिक़्क़त है स्वछंदता से... 

एक आज़ाद ख़याल की स्त्री को बद-चलन कहा जाता है। एक आज़ाद ख़याल का पुरुष आवारा कहलाता है। यही हमारी रीत है। लेकिन इसे बदलना होगा। यह बदलाव कब आएगा? यह कोई नहीं जानता, लेकिन जब तक बाबूजी जैसे किरदार ज़िंदा रहेंगे, यह स्वछंद सोच ज़िंदा रहेगी। जिसमें साँस लेती रहेगी बदलाव की कोशिशें...

हमें संगीत चाहिए, लेकिन संगीतकार नहीं! हमें नाटक देखना पसंद है, लेकिन नाटक करने वाले लोगों को हेय की दृष्टि से देखा जाता है। सुंदर पेंटिंग को अपने घर की दीवारों पर देखने की चाह है, लेकिन अपना बच्चा अगर ब्रश और रंगों की डिबिया उठा ले तो उस पर हम कहर बनकर बरस पड़ते हैं। कला की तमाम विधाओं से हम अपने रोज़मर्रा की ज़िंदगी में किसी ना किसी तरह टकराते हैं। लेकिन इन विधाओं की साधना करने वाले, अपनी पूरी ज़िंदगी इसके नाम करने वाले कलाकार हमारे लिए आज भी हँसी-ठिठोली का एक पात्र मात्र हैं। 

क्या हम बिना संगीत के जी सकते हैं? कभी सोचा है आपने? बिना कविताओं और कहानियों वाली दुनिया कैसी होगी? जीवन से एक दिन के लिए कला और साहित्य को निकाल कर बाहर रख दिया जाए, तो हमारा जीवन बिना ख़ुशबू के फूल की तरह हो जाएगा। जो फूल तो रहेगा लेकिन उसमें फूलों-सा एहसास नहीं होगा।

आप यदि अपनी भाग-दौड़ भरी ज़िंदगी में एक पल ठहर कर सोचेंगे तो पाएँगे कि हमारा पूरा जीवन ही कला से घिरा है। हर चीज़ में सुर और ताल है। आप जो सुरक्षित रूप से सड़क पार करते हैं, उसमें भी ताल है। यदि ताल नहीं होगा तो आप दुर्घटना के शिकार हो जाएँगे। 

पंछी, हवाएँ, भौरे और रात को गुनगुनाने वाले सभी जीव-जंतु को कभी ध्यान से सुनिए। आपको सुर सुनाई देगा। जब जीवन का आधार ही कला पर टिका हुआ है तो कलाकार आज भी उचित सम्मान के इंतज़ार में क्यों हैं?

नाटक ‘बाबूजी’ की शुरुआत ही नाटक के नायक ललन सिंह ‘बाबूजी’ की मृत्यु के समाचार से होती है, और उसके बाद उनके बेटे छोटकू से उनके मार्मिक और संगीत के प्रति समर्पित जीवन का हाल मिलता है। 

बाबूजी अल्हड़ आदमी हैं, जिन्हें ख़ूब जीने और ख़ूब गाने के सिवाय और कुछ नहीं आता है। उन्हें अपने संगीत और स्वछंदता से सबसे अधिक प्रेम है। यहाँ तक कि अपनी पत्नी और बच्चे से भी कहीं अधिक प्रेम उन्हें संगीत से है। यह हमें धीरे-धीरे मालूम चलता है। 

कहानी आगे बढ़ती है। समाज ने बहुत पहले ही बाबूजी को नकार दिया है, और बदले में बाबूजी ने भी समाज के नियमों को मानने से इंकार कर दिया है। वह समाज के द्वारा ही अस्वीकृत स्त्री कौशल्या को अकेला दूल्हा और बाराती बनकर ब्याह लाते हैं। लेकिन यह रिश्ता भी उनके और संगीत के बीच में आकर खड़ा हो जाता है, और अंततः टूट जाता है। 

बाबूजी बने राजेश सिंह और सुमन कुमार का अभिनय मंच पर बाबूजी को जीवंत करता है। कौशल्या बनी शिल्पा भारती और पूजा गुप्ता अपने किरदार में सटीक लग रही थीं। बड़कऊ और छोटकू बने मजिबुर रहमान और विवेक कनौजिया, सत्येंद्र मालिक और अंकुर सिंह कहानी को आगे बढ़ाने में काफ़ी सहयोग करते हैं।

जीवन के झंझावातों में इतनी ताक़त कहाँ ही है कि एक कलाकार और उसकी कला के बीच वे बहुत देर तलक़ खड़े रह पाएँ। चाहे ज़िंदगी कितनी ही उथल-पुथल वाली रहे। बाबूजी के हारमोनियम और तबले में ऐसा जादू था कि एक सुर और एक थाप से उनकी सारी चिंताएँ छूमंतर हो जाती थी। 

सबकुछ छिन जाने के बाद भी संगीत हमेशा उनका हमसाया रहा, और इसी के दम पर उन्होंने अपने परिवारवालों के घर से निकाले जाने के बाद एक नौटंकी कंपनी बनाने का निर्णय लिया। उन्हें अपने जैसे ही आज़ाद ख़याल लोग सुरसती, लच्छू, कालीदीन और धनपत मिलते हैं। और यहाँ से शुरू होती है, बाबूजी के जीवन का दूसरा अध्याय जिसमें ख़ूब आनंद है। और इस आनंद की अनुभूति प्रेक्षागृह में बैठा हर दर्शक लेता है। तालियों और सीटियों से पूरा हॉल नाटक के अंत तक गूँजता रहा। केवल यह एक बात—इस बात की पुष्टि करती है कि बाबूजी एंड कंपनी ने दर्शकों का मन पूरी तरह मोह लिया। 

रीता देवी, विक्रम, अनंत शर्मा और शिव प्रसाद गोंड ‘बाबूजी’ नाटक के रीढ़ की हड्डी हैं। जो अलग-अलग किरदारों में आकर कहानी को आगे बढ़ाते हुए दर्शकों की तालियाँ बटोर ले जाते हैं।

दुनिया के तमाम कलाकारों और लोक-कलाकारों को प्रत्यक्ष रूप से हमेशा नकारा गया। और अप्रत्यक्ष रूप से हमेशा चुपके-चुपके उन्हें देखा-सुना जाता रहा है। ‘अमर सिंह चमकीला’ जैसे और कितने ही अनगिनत नाम हैं, जिन्हें समाज ने नहीं स्वीकारा, लेकिन उन्हें सुनते-देखते रहे। 

एक तरफ़ संगीत के लिए बाबूजी को अपनी जन्मभूमि, अपना गाँव-घर छोड़कर जाना पड़ा। तो वहीं उस गाँव के लोग उनकी और उनके कंपनी की बातें करते नहीं थकते। बाबूजी के जीवन से दुखों ने अपना मुँह अभी मोड़ा नहीं था। अभी और कई घाव थे, जिसकी पीड़ा बाबूजी को सहने थे। 

नाचने गाने की वजह से उनसे घर, परिवार, समाज और अपने ही बच्चे का पिता होने तक का हक़ छीन लिया गया। लेकिन ईश्वर की लीला अपरंपार है। अपनी ही बेटी की शादी में, अपने ही गाँव में—अपनी कंपनी के साथ गाने के लिए बुलाए जाते हैं। लेकिन जिस इज़्ज़त और सम्मान के ख़ातिर जीवन भर लड़ते रहे। जिस स्वछंदता के लिए सबकुछ त्याग दिया। फिर वही उसी जगह इन दोनों चीज़ों पर चोट हुई। ये चोट उन्हें अपने सिर पर लाठियों के चोट से कहीं अधिक चोटिल करती है और वह स्वर्ग सिधार जाते हैं। इस तरह बाबूजी के जीवन का अंतिम अध्याय यहीं समाप्त होता है।

लेकिन कहानी अभी समाप्त नहीं हुई है। छोटकू जिसे अपने पिता से हमेशा स्नेह था। जो सबसे नज़र छुपाकर उनके साथ बैठकर संगीत का रियाज़ किया करता था। वह दर्शकों के सामने अपने पिता की बची आधी बोतल शराब लेकर आता है। अपने अंतिम संवाद और गीत के एक बोल से दर्शकों को पैरों पर खड़े होने के लिए मजबूर कर देता है। 

“पागल कहे ला ना हो लोगवा पागल कहे ला ना...” 

कलाकार कभी नहीं मरता है, अपनी कला में वो हमेशा जीवित रहता है। बाबूजी के सुर छोटकू के गले से समस्त संसार में गूँजने लगते हैं।

नाटक के निर्देशक राजेश सिंह ने मंच सज्जा और रूप सज्जा के साथ अपने निर्देशन से मंच को एक नाटक कंपनी के ख़ूबसूरत सेट में तब्दील किया है। अवतार सहनी की प्रकाश परिकल्पना उस सेट को निखारती है और ब. व. कारंत का संगीत नाटक की धड़कन है। जो नाटक के अंत में दर्शकों के दिलों की धड़कन बन जाता है।

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