इमली, इलाहाबाद, इश्क़
कठफोड़वा
30 अप्रैल 2025

बचपन का इलाहाबाद बहुत खुला-खुला था। उसकी सड़कें खुली और ख़ाली थीं। सड़कों के अगल-बग़ल बाग़, जंगल और पेड़ बहुत थे। एक मुहल्ले से दूसरे मुहल्ले तक की दूरी तब बहुत लंबी और वीरान हुआ करती थी। हमारी तरफ़ से आते हुए प्रयाग स्टेशन पर ही दुकानें मिलतीं, जमघट मिलता, अख़बार मिलते और मिलती चाय...
चाय की दुकानों को हम बचपन से निहारा करते थे। वहाँ बैठे लोगों में ख़ुद को देखा करते और सोचते थे कि कभी हम भी बैठकर यहाँ ज्ञान-दर्शन की बातें कहेंगे और लोग हमारी बातें ग़ौर से सुनेंगे, जैसे अभी उस दुकान पर एक भैया से कई छुटभैए ज्ञान की अगवानी कर रहे हैं।
मेरी पैदाइश भले ही इलाहाबाद की है, पर घर हमारा मूलतः सुल्तानपुर है। दादाजी (बाबा) ने इलाहाबाद रहने की योजना, पिताजी की पढ़ाई पूरी हो जाने के प्रयोजन से बनाई थी। बाबा हमारे रेलवे में कर्मचारी थे, तो आनन-फानन में सलोरी में दूर पड़ी एक ख़ाली ज़मीन में तीं बिस्से का एक गुटका चौदह हज़ार रुपये में ख़रीद लिए थे। पहले-पहल जब पिता इलाहाबाद पढ़ने आए, तब वह कुछ महीने गल्ला बाज़ार में श्रीवास्तव अंकल के यहाँ किराये से रहे थे। श्रीवास्तव अंकल के परिवार से तब से ही हमारा ख़ास रिश्ता जुड़ा, जो अब तक ख़ास बना हुआ है। फिर बाद में दादाजी ने गल्ला बाज़ार से सटे ऊँटख़ाना-चाँदपुर सलोरी में अपने गुटके में दो कमरे बनवाए और हम वहाँ रहने लगे।
जब हम छोटे थे, तब यह इलाक़ा भी अंकुरित हो रहा था... छिटके हुए घर थे, घरों के बीच पेड़ खेत और बाग़ थे। सड़कें कम थीं। चकरोड भी नहीं था। प्रयाग स्टेशन से बस एक सड़क चाँदपुर सलोरी आती थी। शहर जाने का यही एक और एकमात्र ज़रिया था। साइकिल रिक्शा के आलावा कोई साधन नहीं था।
मैं स्कूल जाने लायक़ हुआ, तब तक पिता की नौकरी लग चुकी थी। पिता ने मेरा नाम ब्वाय’ज़ हाई स्कूल में लिखवाया और स्कूल हम जाते साइकिल रिक्शे से।
इस तरह स्कूल जाने और वहाँ से वापस आने में जो शहर भर की यात्रा हुई, उसने मेरे जीवन और मेरी दृश्यात्मक समझ को बहुत भिन्न तरह से प्रभावित किया। लक्ष्मी चौराहे पर जब पाँच सड़कें दिखतीं, तब मन कौतूहल से भर जाता कि मानो ये सड़कें नहीं; जागती आँखों वाले सपने हों, जो कई तरफ़ से होते हुए एक जगह जमा होकर सजीव रूप ले रहे हों। जगह-जगह इमली, जामुन और आम के पेड़... जहाँ पेड़ नहीं, वहाँ ख़ाली खेत। इस दृश्यालेख में मकान कम थे। वे 1994-95 के परिवर्तनकारी वर्ष रहे होंगे।
हमारे स्कूल के रास्ते में कटरा पड़ता था। कटरा तब भी सघन था। हालाँकि दुकानें तब प्रतिष्ठान नहीं बनी थीं। नई दुकानें खुल रही थीं। ठेले-खोमचे वाले भी थे। इतनी साज-सज्जा नहीं थी। चमक-दमक-धमक नहीं थी। बीच कटरा नेतराम से निकलते हुए मनमोहन पार्क से मेयो हॉल चौराहे वाले रास्ते में इमलियों के बहुत सारे पेड़ थे। वे जो कटने से बच गए हैं, अब भी हैं।
इन्हीं खट्टे-मीठे पेड़ों के आस-पास पहली बार मुझे भी लगाव, स्पर्श और सिहरन के संश्लिष्ट भावों का नवोदित एहसास हुआ था। मेरी उम्र तब बारह बरस की रही होगी। हम मदन चाचा के साइकिल रिक्शा से स्कूल जाते थे। ज़्यादातर अँग्रेज़ी स्कूल सिंगल जेंडर हुआ करते थे। हमारा स्कूल लड़कों से भरा था। अपनी उम्र की लड़कियों से हमारी स्मृतियाँ इसी सड़क से गुज़रते हुए रिक्शे पर बनती थीं।
उन दिनों इमली का पेड़ फलों से गझिन रूप से लदा था। सब लड़के लड़कियों के सामने रिक्शे से उतर ढेले से इमली तोड़ने का कौतुक भरा कार्य करके बहुत ख़ुश होते थे। मैं भी लड़कों के झुंड में शामिल था। मनमोहन पार्क के पास जैसे ही रिक्शा पहुँचता, हम इमली के पेड़ की तरफ दौड़ जाते। हुनर-कौशल का प्रदर्शन करने के लिए हमारे पास दस मिनट होते थे। एक दिन जब मैं इमली तोड़कर लौट रहा था, दूसरे रिक्शे पर स्कूल-ड्रेस (सफ़ेद शर्ट और नीली स्कर्ट) पहनी लड़की ने हाथ बढ़ाकर मुझसे इमली माँगी थी। उसके चेहरे पर कुछ ऐसे भाव थे, कुछ ऐसी चमक थी, कुछ ऐसी विनम्रता थी कि मैं ठिठक कर खड़ा रह गया। जेब से इमली निकाल एकदम से उसके हाथों में दे दी। इतनी भर घटना हुई और जैसे ही मैं अपने रिक्शे की तरफ़ लौटा, तो लड़कियों ने उसे ज़ोर से शोर मचाते हुए चिढ़ाया था। हम भी खूब शरमाए थे।
यह तो अब रोज़ का सिलसिला बन गया। दिन इसी इंतिज़ार में कट जाया करता कि सुबह उस ‘सफ़ेद शर्ट और नीली स्कर्ट वाली स्कूल गर्ल’ को इमली देनी है। छुट्टी के दिन मन बहुत बेचैनी में कटता। अगले दिन स्कूल जाने की बेसब्री में वह दिन किसी तरह काट देते। उम्र इतनी कम थी कि उस ‘सफ़ेद शर्ट और नीली स्कर्ट गर्ल’ का नाम भी नहीं पता कर सके। पूरा एक साल इसी रूमान में गुज़ार दिए। इमली गई, आम आया, आम गया तो जामुन। बस सिलसिला टूटने नहीं देना था। बाद में हम कुछ न कुछ घर से ले आया करते थे। इस परस्पर मूक विनिमय में उधर बस उसकी ख़ूबसूरत मुस्कान के दर्शन होते। उसका चमकता चेहरा मेरे सामने होता, और यह महज़ एकाध मिनट का संपूर्ण दृश्य मेरे उस समय स्कूली जीवन को रंगों से भर देता था।
हम कुछ रोज़ बाद बड़ी मुश्किल से उसका नाम जान पाए थे, उससे पूछने की हिम्मत तो नहीं हुई। उसके रिक्शेवान चाचा जी से पूछा। कोई ‘सिद्दीकी’ था—उस ‘सफ़ेद शर्ट और नीली स्कर्ट गर्ल’ का नाम। उस दिन डेढ़ साल में पहली बार उसने मुझे एक कॉफ़ी बाइट थमाई थी और एक चिट दिया जिसमें लिखा था—टुडे इज़ माई बर्थडे... फिर उसके रिक्शेवान ने रूट चेंज कर लिया।
मदन चाचा से पूछा, उन्होंने यूँ ही कहा, ‘‘इस रूट से देर हो जाती रही होगी, इसलिए शायद बालसन की तरफ से रिक्शा ले जाते होंगे।’’ मैं तब इतना छोटा और शर्मीला था कि मैं इससे आगे बढ़ नहीं पाया। पर दिनों तक कुछ भी अच्छा नहीं लगा। बहुत दुःख हुआ। मैंने इमली तोड़ने वाले हुनर से भी तौबा कर ली। मेरे अस्तित्व पर अजीब-सा ख़ालीपन आ गिरा।
रास्ते में जैसे ही वो सड़क आती, मैं सोचता कितनी जल्दी रास्ता कट जाए। थोड़ा बड़ा हुआ तो एकाध बार ‘पतारसी’ करने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहा। आज भी उस सड़क पर इमली के पेड़ हैं। जब भी जाता हूँ, तो सब कुछ जीवित हो उठता है, मेरा बचपन, स्कूल और ‘सफ़ेद शर्ट और नीली स्कर्ट वाली लड़की’ भी।
ख़ैर, अब मैं एक पत्रकार हूँ। जंगल-जंगल टहलता रहता हूँ और जहाँ भी इमली की अच्छी छाँव दिखती है... रुक जाता हूँ और सोचता हूँ :
प्रेम में इमलियों में कितना हिस्सा होगा?
~~~
अगली बेला में जारी...
'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए
कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें
आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद
हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे
बेला पॉपुलर
सबसे ज़्यादा पढ़े और पसंद किए गए पोस्ट
14 अप्रैल 2025
इलाहाबाद तुम बहुत याद आते हो!
“आप प्रयागराज में रहते हैं?” “नहीं, इलाहाबाद में।” प्रयागराज कहते ही मेरी ज़बान लड़खड़ा जाती है, अगर मैं बोलने की कोशिश भी करता हूँ तो दिल रोकने लगता है कि ऐसा क्यों कर रहा है तू भाई! ऐसा नहीं
08 अप्रैल 2025
कथ्य-शिल्प : दो बिछड़े भाइयों की दास्तान
शिल्प और कथ्य जुड़वाँ भाई थे! शिल्प और कथ्य के माता-पिता कोरोना के क्रूर काल के ग्रास बन चुके थे। दोनों भाई बहुत प्रेम से रहते थे। एक झाड़ू लगाता था एक पोंछा। एक दाल बनाता था तो दूसरा रोटी। इसी तर
16 अप्रैल 2025
कहानी : चोट
बुधवार की बात है, अनिरुद्ध जाँच समिति के समक्ष उपस्थित होने का इंतज़ार कर रहा था। चौथी मंजिल पर जहाँ वह बैठा था, उसके ठीक सामने पारदर्शी शीशे की दीवार थी। दफ़्तर की यह दीवार इतनी साफ़-शफ़्फ़ाक थी कि
27 अप्रैल 2025
रविवासरीय : 3.0 : इन पंक्तियों के लेखक का ‘मैं’
• विषयक—‘‘इसमें बहुत कुछ समा सकता है।’’ इस सिलसिले की शुरुआत इस पतित-विपथित वाक्य से हुई। इसके बाद सब कुछ वाहवाही और तबाही की तरफ़ ले जाने वाला था। • एक बिंदु भर समझे गए विवेक को और बिंदु दिए गए
12 अप्रैल 2025
भारतीय विज्ञान संस्थान : एक यात्रा, एक दृष्टि
दिल्ली की भाग-दौड़ भरी ज़िंदगी के बीच देश-काल परिवर्तन की तीव्र इच्छा मुझे बेंगलुरु की ओर खींच लाई। राजधानी की ठंडी सुबह में, जब मैंने इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से यात्रा शुरू की, तब मन क