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‘हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह...’

मुन्नवर राना कह गए हैं : 

“ये बाज़ार-ए-हवस है तुम यहाँ कैसे चले आए
ये सोने की दुकानें हैं यहाँ तेज़ाब रहता है”

बाज़ार चीज़ों के साथ क्या करता है, इसके जवाब में कई ख़ूब मिसालें आपको मिल जाएँगी। आप गूगल पर लिखेंगे—‘ग़ालिब’... और कुछ देर बाद फ़ेसबुक, जी-मेल और जहाँ-जहाँ संभव होगा, आपको ग़ालिब बेचने के प्रचार दिखना शुरू हो जाएँगे। ग़ालिब कॉफ़ी मग, ग़ालिब की-चैन, ग़ालिब टी-शर्ट, ग़ालिब का बुत और पता नहीं क्या-क्या! ग़ालिब पढ़ने-सुनने से ज़्यादा, पहनने-ओढ़ने-पीने-सजाने के लिए ज़रूरी हो गए हैं। वैसे आप ख़ुशकिस्मत रहे और बाज़ार को आप पर तरस आया तो उनकी कुछ किताबें भी मिलेंगी, जिनको आप ख़रीदने के बाद कभी नहीं पढ़ेंगे। वहीं, अगर आप बहुत भाग्यशाली हुए तो कुछ लोग ‘ग़ालिब’ बनाने का कोर्स भी बेचते मिलेंगे—बाज़ार में सब मिलेगा—बाक़ी आगे आपकी समझदारी... 

ख़ैर, इस सबमें बाज़ार आपको यह बताता नहीं दिखेगा कि ‘ग़ालिब’ को बेचकर, साहित्य का व्यापार करके, इसने अदब के लिए, शाइरी-साहित्य के लिए क्या किया। बाज़ार और बाज़ार चलाने वालों को शाइर के घर से, उसकी परेशानियों से, उसके दुख से कैसा वास्ता!

उर्दू-हिंदी के सुपरिचित अदीब इरशाद ख़ान सिकंदर का लिखा और सुयोग्य रंगकर्मी-कलाकार दिलीप गुप्ता निर्देशित नाटक ‘ठेके पर मुशायरा’—हर सीजन हाईएंड स्मार्टफ़ोन्स बदलने वालों, लग्जरी कारों में घूमने वालों और पी.आर. स्टंट करने वालों के दौर में शाइरों-कलाकारों के जीवन-संघर्ष को दिखाता है। यह नाटक हिंदी-उर्दू अदब में लेखकों-कलाकारों की ख़राब माली हालत दिखाने की कोशिश करता है और इस तरफ़ भी इशारा करता है कि कैसे अदब की दुनिया में बाज़ार घुसता चला जा रहा है, जिससे लोगों से साहित्य के नाम पर रुपए कमाए जा रहे हैं और कलाकारों-लेखकों का शोषण भी ख़ूब हो रहा है। 

नाटक ने हिंदी-उर्दू ज़बान की शाइरी, साहित्यिक और अदबी अंदाज़, ज़बरदस्त व्यंग्य, संगीत और बेहतरीन किरदार अदायगी के माध्यम से दर्शकों को ख़ूब गुदगुदाने की कोशिश की है। 

कहानी एक कमरे से शुरू होती है—जिसमें उस्ताद कमान लखनवी, बुज़ुर्ग-शाइर बाग़ देहलवी और चाय बनाने वाले शाइर तेवर ख़यालपुरी और जुगाड़-प्रेमी रामभरोसे ग़ालिब इकट्ठा हुए हैं। 

उस्ताद कमान लखनवी उसूलों से बँधकर रहने वाले शाइर हैं और बेबाक बयानबाज़ी के चलते उन्हें मुशायरों का न्योता आना बंद हो गया है। किराए के घर में रह रहे तीनों शाइरों ने तंगी के चलते छह महीने का किराया नहीं दिया है और अब मकान-मालिक ने भी घर ख़ाली करने का फ़रमान सुना दिया है। पूरा नाटक इसी किराया भरने के पैसों के बंदोबस्त के इर्द-गिर्द चलता है। मुशायरों में रोक के बाद उन्हें पैसों के इतज़ाम के लिए कभी कोई नज़्म लिखकर बेचनी पड़ती है तो कभी किसी के लिए गीत लिखना पड़ता है।

वहीं बाग़ देहलवी के पंसदीदा शाइर हैं—मिर्ज़ा ग़ालिब। ‘क्या तमाशा लगा रखा है’—उनका पंसदीदा वाक्य है। उनके अजीब-ओ-ग़रीब रवैये के चलते उन्हें घर से बाहर निकाल दिया गया है। वह रामभरोसे ग़ालिब के ख़राब तलफ़्फ़ुज़ को पसंद नहीं करते और पूरे नाटक में उनकी मज़ेदार नोक-झोंक चलती रहती है।

तेवर ख़यालपुरी भी एक ख़स्ताहाल शाइर हैं, जो शाइरी के साथ बढ़िया चाय बनाकर पिलाते हैं और ख़ुद मुशायरों में शराब पीकर जाते हैं। 

रामभरोसे ग़ालिब काम चलाऊ शाइर हैं। आर्थिक बंदोबस्त के लिए, वह उस्ताद कमान लखनवी के पास तरह-तरह लोगों को भेज देते हैं। रामभरोसे ही कमान लखनवी को एक ठेकेदार छांगुर ऑलराउंडर से मिलवाते हैं, जिसे क्लाइंट की माँग पर विश्वकर्मा पूजा के मौक़े पर मुशायरा करवाना है।

छांगुर ऑलराउंडर नितांत प्रैक्टिक्ल ठेकेदार है। वह क्लाइंट को भगवान मानता है। शाइरी-साहित्य से उसे मतलब नहीं, लेकिन ऑर्केस्ट्रा में लौंडा-नाच करवाने-करने में उसे बहुत ही मज़ा आता है। वॉलेंटियर उसके लिए कुछ भी कर सकते हैं। 

छांगुर ऑलराउंडर की इंट्री के बाद ही ‘ठेके पर मुशायरा’ होना तय होता है। सिर से छत चले जाने का डर, रामभरोसे ग़ालिब की ज़िद और छांगुर ऑलराउंडर की पेश की गई रक़म सुनकर—उस्ताद कमान लखनवी मना करते-करते, अपने उसूलों से समझौता कर लेते हैं और बाक़ी शाइरों के साथ विश्वकर्मा पूजा पर मुशायरा पढ़ने चले जाते हैं। लेकिन वहाँ क्लाइंट के मुताबिक न पढ़ने की वजह से उन्हें ज़लील होकर वापस लौटना पड़ता है और अंत में उनकी पेमेंट भी रोक दी जाती है।

कहानी में ‘ठेके पर मुशायरा’ होने की बात तय होते ही यह निश्चित हो जाता है कि आगे क्या होने वाला है। आज के समय में ठेकेदारों की करतूतों से भला कौन वाक़िफ़ नहीं। देश में अभी-अभी जलवायु के हिसाब से अच्छा मानसून गुज़रा है। अच्छा मानसून ठेकेदारों को पानी पिला देता है। मानसून से ठेकेदारों की झूठ की दीवालें सीलन खाकर दरक जाती हैं। ऐसे तमाम ठेकेदारों—शिक्षा वाले, कोचिंग वाले, सड़क वाले, साहित्य वाले, धर्म वाले, लोकतंत्र वाले—की ख़बरें आपने इस मानसून सुनी होंगी, जो झूठे सपने दिखाकर, वादे करके लोगों को अपने जाल में फँसा लेते हैं।   

नाटक में कुछ ऐसे मौक़े भी रहे जिसमें लेखक-कलाकारों की रचनात्मकता शिखर पर महसूस हुई।  

दिलीप गुप्ता जो नाटक के निर्देशक हैं और उन्होंने इस नाटक में बेहद उम्दा अभिनय किया है। एक सीन में थिएटर-डायरेक्टर के रोल में दिलीप गुप्ता उस्ताद कमान लखनवी को माधुरी और नाना पाटेकर अभिनीत फ़िल्म ‘वजूद’ से जुड़े एक सीन को समझाते हुए जिस ऊर्जा के साथ मंचीय स्पेस, आवाज़, बॉडी मूवमेंट का प्रयोग करते हैं; उससे साफ़ होता है कि दिलीप कितनी बारीकी से किरदार और कहानी की उस समय की ज़रूरत के हिसाब से ख़ुद को ढाल लेते हैं। यह थिएटर में उनके अनुभव को भी दर्शाता है।

इरशाद ख़ान सिकंदर इस नाटक के लेखक हैं। नाटक में ऊपर बताए गए सीन के बाद जब उस्ताद कमान लखनवी थिएटर-डायरेक्टर के लिए एक नज़्म—‘पूछो ये मेरी नज़रों से’ कहते हैं तो लगता है मानो ढलती शाम में, एक झील में डूबते सूरज की रौशनी पड़ रही है और दृश्य प्रकाश की तरंग दैर्ध्य का लाल हिस्सा उस जल से परावर्तित होकर आँखों तक पहुँच रहा है। और इस क्षण ऐसा महसूस हो रहा है मानो यह लाल रंग, ख़ून में मिलकर भीतर ही घुल गया हो। इस सीन की लिखावट में साफ़ नज़र आता है कि यह एक शाइर के दिल के ज़ज़्बात का शिखर है और जैसे ही इरशाद आपको इस शिखर पर पहुँचा देते हैं—उस्ताद कमान लखनवी का किरदार यह कहते हुए आपको स्वप्न से जगा देता है—“हो गया”। दर्शकों की तालियों के साथ यह जादुई सीन भी ख़त्म होता है। 

नाटक का अंतिम भाग गौरव सिंह—छांगुर ऑलराउंडर—के नाम रहा। नाटक के इसी हिस्से से शुरू होती है— न थमने वाली लॉफ़्टर थैरेपी, जो नाटक के अंत में जाकर ख़त्म होती है। क़स्बों में कमेटियों द्वारा आयोजित मेलों से जुड़ी छोटी-बड़ी, मज़ेदार, कभी परेशान करने वाली, कभी हँसाने वाली घटनाओं को मिलाकर मंच पर मेले का जैसा माहौल देखने को मिलता है, उससे भी छांगुर ऑलराउंडर का किरदार बेहद मज़ेदार लगने लगता है।

नाटक में संगीत और लाइट का प्रयोग और दृश्य से उनका तालमेल भी बढ़िया रहा।

‘ठेके पर मुशायरा’ का मंचन नाट्य-संस्था ‘साइक्लोरामा’ के बैनर तले 21 सितंबर 2024 को एलटीजी सभागार, मंडी हाउस, नई दिल्ली में हुआ। नाटक की अवधि एक घंटा पैंतीस मिनट रही।

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