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बेकल उत्साही : मैं ख़ुसरो का वंश हूँ, हूँ अवधी का संत

अवधी में रोमानी कविता की भी एक संवृद्ध परंपरा रही है, जिसकी शुरुआती मिसाल हम अबुल हसन यमीन उद-दीन ख़ुसरो (1253-1325 ई.) के यहाँ देख सकते हैं। उनका एक प्रसिद्ध कथन है कि “मैं हिंदुस्तान की तूती हूँ। अगर तुम वास्तव में मुझसे जानना चाहते हो तो हिन्दवी में पूछो। मैं तुम्हें अनुपम बातें बता सकूँगा।” 

दरअस्ल हिन्दवी जिन लोकभाषाओं से निकलकर अपनी एक अलग पहचान गढ़ रही थी, उसमें सबसे विशद और उर्वर तासीर अवधी की ही थी। ख़ुसरो का साहित्य इसका गवाह है। अब एक सवाल आज तो लाज़मी है कि ख़ुसरो 14वीं सदी के लगभग दिल्ली के निकट रहने वाले प्रमुख कवि, शायर, गायक और संगीतकार थे। उनका परिवार पीढ़ी-दर-पीढ़ी राजसत्ताओं के निकट रहा और उन्होंने ख़ुद नौ राजाओं का कार्यकाल अपनी आँखों देखा था। 

आख़िर वहाँ तक अवध की भाषा कैसे पहुँची! इसका जवाब यदि जानना हो तो डेविड हिर्स, सुनीति कुमार चटर्जी, रामविलास शर्मा, किशोरीदास बाजपेई और बाबूराम सक्सेना आदि के पुरानी कोसली और मध्यकालीन अवधी भाषा संबंधी अध्ययन को गंभीरता से पढ़ना-समझना पड़ेगा। कुलमिलाकर—“अवधी मध्यकाल तक पूरे उत्तर-भारत की संपर्क भाषा रही है”। इस अवधारणा की पुष्टि ख़ुसरो का साहित्य भी करता है। 

डॉ. रामकुमार वर्मा ने ख़ुसरो को अवधी का पहला कवि माना है। उनके अवधी गीत और क़व्वालियाँ अपने पूरे मिज़ाज में रूमानी हैं। अवधी की यह रूमानी परंपरा सूफ़ी संत कवियों के प्रेमाख्यानकों में अपनी चरमावस्था पर दिखाई देती है। यहाँ तक कि अवधी के श्रेष्ठतम माने जाने वाले मर्यादावादी कवि गोस्वामी तुलसीदास भी सौंदर्य और प्रेम-वर्णनों में किसी से पीछे नहीं। 1850 के बाद अवधी में भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रतापनारायण मिश्र, बदरीनारायण ‘प्रेमघन’ इत्यादि कवियों में अवधी की रोमानी परंपरा दिखाई पड़ती है, लेकिन पढ़ीस, वंशीधर शुक्ल, रमई काका तक पहुँचते-पहुँचते यह क्षीण होने लगती है।

वास्तव में अवधी का स्वभाव अन्याय और विसंगति के विरुद्ध बहुत सशक्त अभिव्यक्ति का रहा है, लेकिन इस स्वभाव की निर्मिति में जो तत्व शामिल हैं—उनमें प्रेम और रोमांस की अहम भूमिका है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। आधुनिक अवधी में भी प्रेम और रोमांस के अद्भुत कवि हुए हैं जिनमें एक महत्त्वपूर्ण नाम बेकल उत्साही का है।

बेकल उत्साही का जन्म 19 जून 1928, ग्राम रमवाँपुर गौर, तहसील अतरौला, ज़िला बलरामपुर में हुआ। इनके पिता का नाम लोदी मोहम्मद जाफ़र (ख़ान बहादुर) था। बेकल साहब के नाम की भी एक कहानी है। इनके वालिदैन ने इन्हें जो नाम दिया, वह था लोदी मोहम्मद शफ़ी ख़ान। ‘बेकल’ नाम एक मुस्लिम संत का दिया हुआ है और ‘उत्साही’ नाम पं. जवाहरलाल नेहरू की देन। तो इस तरह उन्हें यह नाम मिला बेकल उत्साही—

दर से वारिस पाक के मिला है ‘बेकल’ नाम।
‘उत्साही’  उपनाम  है  नेहरू  का  इनआम॥

बेकल उत्साही की अपनी मादरी ज़बान अवधी और हिंदी-उर्दू में अनेक कृतियाँ प्रकाशित हैं, जिनमें ‘बापू का सपना’ (1950), ‘नग़मा-ओ-तरन्नुम’ (1952), ‘विजय विगुल’ (1952), ‘निशाते ज़िंदगी’ (1957), ‘सुरुरे जविदाँ’ (1966), ‘चहके बगिया महके गीत’ (1966), ‘पुरवाइयाँ’ (1976), ‘कोमल मुखड़े बेकल गीत’ (1976), ‘अपनी धरती चाँद का दर्पण’ (1977), ‘ग़ज़ल साँवरी’ (1984), ‘शुआमजी’ (1984), ‘रंग हज़ारों ख़ुशबू एक’ (1990), ‘मिट्टी रेत चट्टान’ (1992), ‘अँजुरी भर अँजोर’, ‘ग़ज़ल गंगा’, ‘धरती सदा सुहागिन’, ‘लफ़्ज़ों की घटाएँ’, ‘सरसों के जूड़े में टेसू के फूल’ और शेरजंग गर्ग के संपादन में ‘हमारे लोकप्रिय गीतकार बेकल उत्साही’ (2006) और दीक्षित दिनकौरी के संपादन में ‘चल गोरी दोहपुरम’(2009) इत्यादि। बेकल उत्साही अनेक हिंदी-उर्दू और अवधी संस्थाओं के संस्थापक सदस्य रहे और भारत सरकार की भाषाई सलाहकार समितियों में भी उनका नाम रहा। 

1983 में उत्तर प्रदेश से वह राज्यसभा में सदस्य चुने गए। बेकल साहब को साहित्यिक योगदान के लिए 1976 में पद्मश्री से विभूषित किया गया। बेकल उत्साही के साहित्य और जीवन पर आधारित ‘फ़िको-आगही’ का बेकल उत्साही विशेषांक डॉ. रज़िया हामिद के संपादन में निकला । उन्होंने 3 दिसंबर 2016 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

बेकल उत्साही के साहित्यिक अवदान पर अटल बिहारी बाजपेई ने भी लिखा है कि “श्री बेकल उत्साही हिंदी के उन गिने चुने काव्य-शिल्पियों में हैं, जिनकी रचनाएँ हृदय से निकलती हैं और हृदय में घर कर जाती हैं। भारत की मिट्टी के प्रति अटूट ममता, उस मिट्टी से निकली ज़िंदगी के लिए उनका अपार मोह, उस ज़िंदगी के आँसुओं और मुस्कानों को इस पूर्ण अभिव्यक्ति का उनका अथक प्रयास उन्हें सहज ही गीतकारों की प्रथम पंक्ति में प्रतिष्ठित कर देता है।”

बेकल उत्साही का दिल अवध का है और अवधी उसकी धड़कन। हिंदी उनके लिए बहार है तो उर्दू बसंत। वह ख़ुसरो, कबीर और तुलसी के वंशज हैं जो निराला और फ़िराक़ के समय से थोड़ा आगे हिंदी-समय की दहलीज़ पर नंगे पाँव बड़े अदब से खड़े मिल जाते हैं। वह अपनी भाषा के संतों का पुण्य स्मरण अपनी कविताओं में बार-बार करते दिखाई पड़ते हैं—

मैं ख़ुसरो का दास हूँ, हूँ अवधी का संत। 
हिंदी  मेरी  बहार  है  उर्दू  मेरी  बसंत॥ 
रहिमन मेरा गर्व है कबीरा है अभिमान।
गुरु है मेरा जायसी अवधी मेरी जुबान॥

उन्होंने ख़ुसरो से रंजकता, कबीर से अक्खड़ता, तुलसी से मानवीयता, जायसी से देसीयता, रहीम से स्वाभाविकता, रसखान से प्रेम-गर्विता, निराला से जीवंतता और फ़िराक़ से गुण-ग्राहकता पाई है। वह वाचिक को क्लासिक और क्लासिक को वाचिक बनाने में सिद्धहस्त हैं। उनके यहाँ कल्पना और यथार्थ के बीच कला की लौकिक सुंदरता मन मोह लेती है। 

वह एकसाथ अवधी, ब्रज, हिंदी और उर्दू में बड़ी सहजता से लिखते ही नहीं, इनमें गाते हुए कविता को जीते हैं। उन्हें लोक के जन-मन में रची-बसी लोकधुनों का गहरा ज्ञान है। बेकल साहब ने अपमानित और शोषित लोक की व्यथा को ख़ासतौर पर अपनी कविता का विषय बनाया है। इस विषय की मार्मिकता तब सबसे अधिक विश्वसनीय हो जाती है, जब लोक के दुख-दर्द को उसी की लोक भाषा के व्याकरण में गाते हों।

बेकल उत्साही ने अवधी में गीत और ग़ज़लें अधिक लिखीं। उनका मन सहज प्रेम और ग्रामाञ्चल की मनोरम प्रकृति में ख़ूब रमा है। वह मूलतः वाचिक परंपरा के कवि हैं। वह उर्दू में अच्छी शायरी और हिंदी में बेहतरीन कविता भी लिखते हैं, जैसे उनके अवधी प्रेम को हिमाक़त समझने वाले दिमाग़ झनझनाते रहें। 

वह अपने शुरुआती समय के मुशायरों और कवि-सम्मेलनों में जब अवधी के गीत-ग़ज़ल सुनाते तो मसनदों पर आरूढ़ नामचीन नाक-भौं सिकोड़ने लगते। बेकल को गँवार समझा जाता। श्रेष्ठता के बंजरों ने गँवारियत को अपमानबोध समझा होगा, लेकिन बेकल साहब ने गँवारियत को उर्वर मनुष्यता का गौरव बना कर धारण कर लिया। 

सहृदयों ने उन्हें ख़ूब पसंद किया। इस तरह उन्होंने भाषिक श्रेष्ठताबोध को चुनौती दी। उन्होंने अवधी की लोक-गीत परंपरा को नई जीवंतता प्रदान की। बेकल साहब ने अपने समय के नए ढर्रे पर अवधी कविताई को साधने की कोशिश की है। नए रूपों में, नए सौंदर्यबोध के साथ चाइता, चइती, फगुआ, कजरी, जेठहरेरी इत्यादि ऋतु-गान वह रचते हैं, तो दूसरी तरफ़ कहँरवा, कुँहरवा, धोबियाहवा, पँचरा, निरगुन आदि श्रम-गीत नई अवधी में जोड़ते हैं। उनकी अवधी कविताई को पढ़ने-सुनने वाला कोई भी समझदार यह कहेगा कि उन्हें लोक राग और लोक रंगों की गहरी समझ थी।

उनका एक मशहूर अवधी-गीत है जो ‘गुलरी कै फूल’ शीर्षक से उनके काव्य-संग्रह ‘सरसों के जूड़े में टेसू का फूल’ किताब में संकलित है और इस लय और भाषिक संरचना में इसी किताब में और भी गीत हैं। इस गीत को इधर बीच सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने  भोजपुरी के बड़े कवि महेंदर मिसिर का बताकर प्रचारित करना शुरू किया था। लेकिन सवाल पूछे जाने पर कोई साक्ष्य नहीं दे पाए। 

दरअस्ल अवधी और भोजपुरी लोकगीतों के साथ यह कठिनाई अक्सर दिखाई पड़ती रहती है। इसका कारण है अवधी का स्थानिक संकुचन और भोजपुरी का विस्तार। जहाँ आज अच्छी भोजपुरी बोली जाती है, वहाँ कभी बेहतरीन अवधी का व्यवहार होता था। यह साक्ष्य रामनरेश त्रिपाठी और कृष्णदेव उपाध्याय के संग्रहीत लोकगीत संग्रहों में लोकगीतों के नीचे दिए संग्रहीत स्थानों को देखकर स्पष्ट हो जाता है। इस साक्ष्य की कसौटी है किसी भी भाषा की पहचान उसके क्रिया-पदों से होती है। 

ख़ैर, इस पर फिर कभी—तो ‘गुलरी कै फूल’ गीत विस्थापन के दर्द को बयाँ करता है। एक युवती जिसका पति परदेस बनिज कमाने चला गया है, इस गीत में उसी का विरहित स्वर है। उस स्त्री का क्षणिक सानिध्य सुख गुलरी का फूल होना मुहावरे की सच्चाई है :

फुलवा   का   रोवै   गजरा 
अँसुवा   मा   सोवै   कजरा 
मदिरा मा भीगी है चुनरिया 
हो सँवरिया मोरे होय गए गुलरी कै फूल।

फूलों के सौभाग्य को बालों में सज्जित गजरा रो रहा है। आँसुओं के दुर्भाग्य में काजल का गौरव सो गया है। इस बसंत बेला में स्मृतियों के मादक आँसुओं से मेरी चूनर भीग गई है। स्त्री कहती है कि मेरा सँवला प्रिय तो गुलरी का फूल हो गया। वह कब लौटेगा यह सोच-सोच कर वह उदास हो जाती है। प्रिय को मुस्काते हुए देखना तो अब स्वप्न हो गया है। इसी तरह का एक दूसरा गीत ‘खेलनी निरौनी’ है। इसमें भी विस्थापन का दर्द है। प्रिय से दूर विरहिणी अपना दुख कहती है—

झोल     अन्हारे     पछलहरा
जब    सोख    भुजैरा    बोलै 
नींद  उचटि  गय  चौंक  पड़ी 
मैं    जियरा    डगमग   डोलै
मोरी ऐसे मा सुनी है सेजरिया 
करेजवा     मा     हूक    उठै।

बेकल साहब का एक और गीत है जिसमें परदेस जा रहे प्रिय को प्रियतमा रेलवे स्टेसन पर विदा कर रही है। कवि उन संवेदनाओं की अभिव्यक्ति के लिए कितनी मार्मिक उपमा देता है कि स्त्री पहले दिल कैसे मज़बूत कर प्रिय को धीरज बँधाती है और फिर चले जाने के बाद भरभरा कर रो पड़ती है—

जब   गूँज   उठी   सिटी   मइया
फिर धुआँ उठा जी धक से हुआ 
इक   हाथ   झरोखे   से  निकसा 
अरु  मोरी  तरफ  लहराने  लगा 
मैं  बरफ  बनी  फिर  पिघल गई 
टेसन  से   रेलिया   चली    गई।

पूर्वी हिंदी के इस कवि ने अपने पूरब की समस्याओं को प्रेम के इर्द-गिर्द देखा समझा है। वह यहाँ की क़ौम को दुख-दर्द के बीच उसके स्वभाव की ताक़त से लगातार रूबरू करवाते रहे हैं। इधर के किसान-मज़दूर अपनी पारिवारिक संरचना में जिस तरह ग़रीबी, जहालत और शोषण से बर्बादियाँ झेलते हुए जीवन के लिए मानुष उमंग बचा लेते हैं, यह यहाँ के प्रेम की बनावट में शामिल है। इसी प्रेम के विविध राग-रंगो में बेकल अपने तराने रचते हैं। वह अवधी के उन प्रगतिशील यथार्थवादी कवियों से थोड़ा अलग हैं, जो ग़रीबी, जहालत और शोषण के समाजशास्त्र को कविता में क्रांतिकारी दर्शन के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इस अलग होने की अपनी एक पहचान भी है और यह दूसरा रास्ता है कि घायल मनुष्यता पर प्रेम का मरहम लगाना। 

पढ़ीस और वंशीधर शुक्ल का काव्य मार्ग जिस तरह विचारों में क्रांति का आह्वान करता है और सामाजिक परिवर्तनों के लिए अपना व्यक्तिगत जीवन सदैव ख़तरे में डालने से कभी परहेज नहीं करता, इस रास्ते पर बेकल साहब नहीं चल सकते थे, वह ख़ुसरो वाले काव्य मार्ग के पथिक हैं। वह राजनीतिक ज़िम्मेदारियों का निर्वहन करते हैं और प्रेम के वास्ते कविता और जीवन को साधने के हिमायती हैं। उनका यही नज़रिया समय और समाज की समस्याओं से निपटने के लिए कविताओं में दिखाई देता है—

कुछ  नहिं  जानै  सिवाय  प्यार के हम पूरब के लोग 
वार   सहे  जी जान   वारि   के   हम  पूरब  के लोग 
छल फरेब कै मतलब का  है  होति  है  का  चतुराई 
काहेक डस जावति है हमका समय क इक अंगड़ाई 
जहर  पिये  दुनिया  निहारि  के  हम  पूरब  के  लोग।

बेकल साहब का मन जन-मन-रंजनकारी चित्तवृत्तियों की तरफ़ अधिक सक्रिय रहा है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल की शब्दावली में कहूँ तो कह सकता हूँ कि उनका काव्य लोकमंगल की साधनावस्था से अधिक सिद्धावस्था का है। उनके समय और समाज में जहाँ सुंदरता की सहज उमंगे हैं, प्रकृति का सहज समन्वय है, जीवन में उत्साह है; उसे वे अपनी कविता में खींच लाते हैं। ख़ुसरो की तरह उन्होंने एक अल्लहड़ मन पाया है। वह बहुत सहज विषयों पर अपनी तुकबंदियों को गीत तक ले जाकर रससिक्त कर देते हैं। एक ऐसी ही रचना है ‘कबड्डी गीत’—

कोई सड़क हो या मैदान 
वो हो संसद या हो लान 
कबड्डी खेलो मेरी जान 
ई है मस्ती भरी जहान झुमै मौसम बना जवान 
ई है खेल देस का प्यारे ई है हिम्मत कै औसान    

इसी तरह की उनकी और भी तमाम रचनाएँ हैं जो विषयवस्तु के नज़रिए से महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन कुछ तो ऐसी हैं जो महज़ नैतिक स्लोगन बन कर रह गई हैं। किसी सामाजिक या स्वास्थ्य चेतावनी को सरल तुकबंदियों में नैतिक शिक्षा देने को कविता नहीं कह सकते, यह बात सबको पता है। कविता अपनी मार्मिकता से जब तक असत्य और अन्याय के पक्षधर कुतर्की दरवाज़ों को बंद कर व्यभिचारी आत्म को न फटकारे तब तक काहे की कविता! और ऐसी शानदार कविताएँ जिस कवि के पास अनेक हों भी, वह नैतिक स्लोगन जैसी ‘नशे से रहियो दूर’ कमज़ोर कविता क्यों लिखता है? हालाँकि यह विषय हमारे समय की भारी समस्या है। इस सवाल का उत्तर आप भी जानते हैं और हम भी, वह है राजनीतिक हिस्सेदारी और मंचीयता की माया। इन बीमारियों से संक्रमित आज अवधी कविता की एक भारीपूरी जमात अवधी का बेड़ा गर्क करने में लगी हुई है। 

बेकल साहब की एक ख़ासियत यह भी है कि वह अपनी कमज़ोर कविताओं में भी हासिए के समाज की चाहे-अनचाहे भी तौहीन करते नहीं दिखाई देते। उनका मन भीतर से बहुत कोमल है जिसमें प्यार का एक समंदर उमड़ता रहता है। उनका दिल बड़ा। उनकी एक-आध कविताएँ भले कमज़ोर हों लेकिन वह किसी कमज़ोर का अनजाने में भी दिल नहीं दुखाते। 

उनका मन दांपत्य जीवन के रसीले प्रेम-प्रसंगों में ख़ूब रमता है। ऐसे विषयों पर लिखते हुए उनकी भाषा पानी की तरह लयबद्ध बहने लगती है। उनका एक शृंगार गीत कहँरवा शैली में क्या खूब बन पड़ा है—

आमवा प लागे हैं टिकोरवा गुदना गोदाय डारौ गोरिया
निबिया      की      लौंछा     का     चूमै    बँसवारिया 
कुइंया        जगतिया         पे       झाँकै       पकरिया 
पिपरा   निहारै   पिछवरवा   गुदना  गोदाय डारौ गोरैया

ऐसी गीतात्मक भाषा और लय शायद ही किसी अवधी के कवि के पास हो। बेकल उत्साही अपने ढंग के अनोखे कवि-गीतकार हैं। वह अपने समय के नए ख़ुसरो हैं। वह सिर्फ़ अपनी मातृभाषा से ही नहीं भाषाओं से प्यार करने वाले साहित्यिक हैं। इसलिए वह यह मानते थे कि अपनी भाषा से प्यार किए बग़ैर दूसरी भाषाओं को बरतना नहीं आएगा। भाषा के मानकीकृत कारखानों से साहित्य में जान नहीं डाली जा सकती, इसके लिए अनगढ़ लोक में धंसना होगा जहाँ भाषा बनती है। बेकल वहीं जाते हैं और वहीं का होकर रहना उनके लिए सबसे बड़े गौरव की बात है। वह अपनी गँवारियत पर गुमान करने वाले विकल अवधिया थे—

हमका   रस्ता   ना   बताओ   हम    दिहाती    मनई
हमरी नस नस मा अवधी है अवधी  का  हम  जानेन 
अवधी हम का आपन मानिस हम अवधी का मानेन      

निष्कर्षतः हम देखते हैं कि बेकल साहब की आत्मा उनके अवधी गीतों में निवास करती है। उन्हें उर्दू ग़ज़लों और नज़्मों के लिए ख़ूब जाना गया लेकिन अवधी वाले पक्ष पर बहुत ख़ामोशी है। इस पक्ष को बिना जाने-पहचाने बेकल साहब को संपूर्णता में बिल्कुल भी नहीं जाना जा सकता। वह हमारे साहित्य के दूसरे ख़ुसरो हैं। ख़ुसरो ने जो बात हिन्दवी के लिए कही है, ठीक वही बात बेकल साहब दूसरे लहज़े में अवधी के लिए कहते हैं। 

वह सचमुच ख़ुसरो के सपूत वंशज हैं और अवधी के निराले संत। लेकिन आज के समय और कविता की आवश्यकता पर जब हम विचार करेंगे तो बेकल साहब की सीमाएँ साफ़ नज़र आएँगी। उनका सौंदर्यबोध एक ख़ास तरह के अभिजात के गिरफ़्त में सिमटकर रह गया है। फिर भी उनकी भाषिक समझदारी दुरुस्त है। इसी रास्ते वह आभिजात से टकराते हुए सुंदर लगते हैं।

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