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क्यों हताश कर रही हैं स्त्री आलोचक?

लेख से पूर्व 

रोहिणी अग्रवाल की आलोचना की मैं क़ायल हूँ। उनके लिए बहुत सम्मान है, हालाँकि उनसे कई वैचारिक मतभेद हैं। ‘हिन्दवी’ के विशेष कार्यक्रम ‘संगत’ में अंजुम शर्मा को दिया गया उनका साक्षात्कार उनके विचारों का ताज़ा पड़ाव है, यह सोचकर ध्यान से सुना और अपनी प्रतिक्रियाओं की प्रतिध्वनि भी साथ-साथ सुनती रही। यहाँ प्रस्तुत लेख इस साक्षात्कार में व्यक्त उनके विचारों पर है। 

हिंदी के नए संपादकों का कहना है कि वे मठाधीशी की सामंती और पितृसत्तात्मक स्थापना से नाइत्तफ़ाक़ी रखते हैं और हर तरह के विचार-विमर्श के लिए उनके दिल-ओ-दिमाग़ खुले हैं। लेकिन मुझे दुखद आश्चर्य हुआ, जब यह लेख एक के बाद एक को कई संपादकों को भेजा पर किसी ने इसे नहीं छापा। 

एक संपादक ने कहा कि इससे उनकी वैचारिक रूप से धनी पत्रिका में हल्कापन आ जाएगा, और यूँ भी वे साक्षात्कार पर प्रतिक्रिया नहीं छापते। दूसरे ने कहा कि किसी कार्यक्रम में उनको बुलाया जाना है, कुछ देर रुक ही जाते हैं। तीसरे ने वायदे पर वायदे किए, फिर कहा ‘उनको’ इतनी तवज्जोह क्यों दें? वे कहते रहे छापेंगे और अंततः आरोप लगा दिया कि इसमें रोहिणी जी पर निजी आक्षेप हैं, वे कभी नहीं छापेंगे!

मुझे पूरा विश्वास है कि ख़ुद रोहिणी अग्रवाल इस तरह के विवाद का स्वागत करेंगी, क्योंकि विदुषियों की यह विशेष पहचान होती है। 

रोहिणी अग्रवाल की अनेकानेक स्थापनाओं से सहमति के बावजूद, उनसे वैचारिक असहमति पर यह यह लेख महीनों के इंतज़ार के बाद अब अंततः ‘हिन्दवी’ के विशेष उपक्रम ‘बेला’ पर प्रकाशित हो रहा है। 

शुक्रिया!

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हिंदी साहित्य में स्त्री-दृष्टि से आलोचना का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। पश्चिम में कथेतर साहित्य और स्त्री-दृष्टि से कथा-साहित्य की परख से उपजे विचारों ने स्त्री-मुक्ति-आंदोलनों में प्राण-प्रतिष्ठा की, उन्हें दिशा दी। सिमोन द बोउवा इनमें सबसे ज़्यादा मशहूर हैं, जिनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द सेकेंड सेक्स’ में शेक्सपीयर से लेकर डी.एच. लॉरेंस तक के साहित्य की आलोचना शामिल है और जिसमें उन्होंने न सिर्फ़ स्त्रियों की स्थिति-परिस्थिति पर, बल्कि समलिंगियों के बीच भी उनके द्वारा अपनाए जेंडर की भूमिका के अनुसार कार्य-विभाजन पर टीका की है। फ़्रांस में स्त्री-आंदोलन की दूसरी लहर की शुरुआती चिंगारी बनने का श्रेय भी सिमोन को दिया जाता है। वर्जीनिया वुल्फ़ और जर्मेन ग्रीयर जैसी विचारकों के समय से आगे के लेखन की स्त्री-मुक्ति में बड़ी भूमिका है। 

ऐसे लेखक और विचारक हिंदी में इधर के पचास सालों में तो नहीं रहे, जिन्होंने किसी नए विमर्श आधारित आंदोलन को प्रेरित किया हो। यहाँ आंदोलन से तात्पर्य साहित्यिक आंदोलन नहीं जन-जीवन में हलचल है। यहाँ 1980 के दशक में जब स्त्री-मुक्ति-आंदोलन की नई लहर सड़कों पर युवतियों के प्रदर्शनों के रूप में उठी, जब आक्रोश से भरे नारों ने वर्जनाओं को तोड़ना शुरू किया, जब स्त्रियों ने सड़कों पर बलात्कार को ‘बलात्कार’ कहा और प्रेस को मजबूर किया कि वे बलात्कार के लिए ‘मुँह काला किया’ और ‘लड़की की इज़्ज़त लूट ली’ जैसी स्त्री-विरोधी और अपमानजनक शब्दावली इस्तेमाल करना बंद करें... तब जाकर शायद स्त्री-दृष्टि से साहित्य के पुनर्पाठ की शुरुआत हुई। आज लगभग पचास साल बाद भी कुछ स्त्री आलोचकों की दृष्टि समय से आगे तो क्या बढ़ी होगी, समय से पीछे की लगती है। 
स्त्री आलोचकों की संख्या अभी भी कम है और इनमें सबसे ख्यात आलोचकों में हैं—रोहिणी अग्रवाल। निश्चित रूप से इन्होंने स्त्री-मुक्ति और आलोचना के यह सभी विदेशी बीज लेखन का अध्ययन किया होगा। 

रोहिणी अग्रवाल नामचीन आलोचक हैं। स्त्री-दृष्टि से युक्त आलोचना की उनकी कई किताबें और लेख हैं। फिर भी अब तक का उनका अंतिम बयान तो उनके साक्षात्कार को ही माना जा सकता है जो हाल ही में, 17 मई 2024 को, ‘संगत’ पर अंजुम शर्मा को दिया।

रोहिणी अग्रवाल का साक्षात्कार दिलचस्प भी है और महत्त्वपूर्ण भी। दिलचस्प इसलिए कि अपने बचपन और प्रोफ़ेसर की हैसियत से कुरुक्षेत्र विश्विद्यालय में देहात से आ रही छात्राओं के अनुभवों से निचोड़कर वह बताती हैं कि कैसे पितृसत्ता जीवन में परिलक्षित होती है। 

वह परिवार की लाड़ली थीं, फिर भी पूरे परिवार का एक वक़्त का खाना बनाना उनकी ज़िम्मेदारी थी और वह भी सारा काम ए प्लस श्रेणी का होना होता था। उनको इसमें परफ़ेक्ट होना सिखाया गया। पितृसत्ता के संस्कार स्त्रियाँ ऐसे ही आत्मसात् करती हैं। 

यह साक्षात्कार कई और मायनों में भी रोचक है। रोहिणी जी ने अनेक लेखकों के बारे में और उनकी दृष्टि पर भी बात की है। वे सुनने योग्य हैं। वह रीतिकालीन साहित्य पर भी लिखना चाह रही हैं और ‘रामायण’ पर भी। 

बहरहाल, इस साक्षात्कार के दौरान अवसर आने पर उन्होंने युवाओं के आज के आचरण और स्त्रीवाद या फ़ेमिनिज़्म पर जो कुछ कहा है, वही इस लेख का केंद्रबिंदु है। 

सबसे पहले रोहिणी जी का शुक्रिया कि उन्होंने ‘द लाफ़ ऑफ़ मेडूसा’ का ज़िक्र किया जो स्त्री-लेखन पर फ़्रेंच लेखिका हेलेन सिक्सु का निबंध है। इसमें स्त्री-लेखन की पैरवी करते हुए सिक्सु कहती हैं, ‘‘नया इतिहास आ रहा है, यह कोई सपना नहीं है; हालाँकि इसका विस्तार पुरुषों की कल्पना-शक्ति से परे है, और इसकी वजह भी है। यह उनको उनके विचारधारात्मक अस्थि (पिंजर) से वंचित कर देगा, जिसकी शुरुआत उनके प्रलोभन मशीन के विनाश से होगी... स्त्री-लेखन को कभी भी सिद्धांतबद्ध नहीं किया जा सकता... इसका अर्थ यह नहीं कि इसका अस्तित्व नहीं है... यह हमेशा फ़ैलोसेंट्रिक (पुरुष के लिंग पर केंद्रित) विमर्श को पार कर जाएगा... इसकी कल्पना सिर्फ़ वह अधीन ‘प्रजा’ करेगी जो अपने में व्याप्त स्वचालित (बिन सोचे-समझे) क्रिया के तंत्र को तोड़ सकती है, हाशिये पर धकियाए ऐसे लोग जिन्हें कोई सत्ता कभी भी अधीन नहीं कर सकती।’’ (मेरा अनुवाद)

अब देखते हैं कि इस कसौटी पर रोहिणी जी स्त्री-लेखन को कैसा सैद्धांतिक जामा पहना रही हैं।

विश्वास का क्षरण

रोहिणी अग्रवाल शुरू में ही कहती हैं कि अस्मिता-विमर्शों में अधिग्रहण और द्वेष का भाव अधिक है। ‘‘यह जो द्वेष का भाव है न स्त्री-लेखन में भी बहुत ज़्यादा है। मेरे अपने लेखन में भी रहा है। इतना वायलेंट हो गया है कि जब हम किसी ब्लाइंड डेट की बात करते हैं... उन्मुक्तता की भी बात है, संबंध भी जीने हैं... आज ब्लाइंड डेट पर भी जा रहे हैं... तो मिर्ची-पाउडर भी साथ लेकर जा रहे हैं—अपनी आत्मरक्षा के लिए। विश्वास का क्षरण हुआ है, विश्वास का क्षरण तो हमारा लक्ष्य नहीं था न। न साहित्य का लक्ष्य है, न सभ्यता का और न संस्कृति का कि हम छोटे-छोटे पॉकेट्स में शत्रु पैदा करते चलें। सद्भाव, सहस्तित्व, बंधुता और आत्मीयता... इस तक पहुँचने के लिए अभी हमें मंज़िलों चलना है।’’

रोहिणी जी संभवतः पेप्पर-स्प्रे की बात कह रही हैं। मिर्ची लेकर कोई स्त्री डेट पर जा रही है, यह जानकारी तो मुझे नहीं है। लेकिन वह कह रही हैं, तो इसे तथ्य मान लेते हैं। 

सबसे पहले तो तालियाँ बजाने की ज़रूरत है कि लड़कियाँ आज अपनी मर्ज़ी से डेट पर जा रही हैं। अजनबियों से मिलने का साहस उनमें आ गया है, वे अपने संरक्षकों की छाया से निकल रही हैं। 

ब्लाइंड डेट पर पेपर-स्प्रे लेकर जाना उस ब्लाइंड डेट से तो बेहतर ही है, जिस पर माँ-बाप लड़की को सजा-धजाकर गाजे-बाजे के साथ एक अजनबी (पति) की सेज पर भेज देते हैं। वहाँ तो हिंसा होने पर भी रक्षा का कोई उपाय उसके पास नहीं होता। उस विकल्पहीनता से तो अपनी मर्ज़ी से दैहिक संबंध बनाने का यह विकल्प क्या बेहतर नहीं है? यह कोई छोटी-मोटी तरक़्क़ी नहीं है और यह दृश्य दरअस्ल यौन-शुचिता की बदलती धारणाओं का द्योतक है। 

वे अगर ब्लाइंड डेट पर मिर्ची लेकर जा रही हैं, तो उनकी चेतना कई स्तरों पर बढ़ी है। एक तो वे अजनबी के साथ भी स्वेच्छा से संसर्ग के लिए तैयार हैं, यानी उन्होंने अपनी देह पर अपना अधिकार जता लिया है। दूसरा, वे पुरुष-प्रकृति से अनभिज्ञ नहीं हैं। उन्हें मालूम है कि यहाँ ख़तरा हो सकता है। क्या मालूम वह अकेला न आए? क्या पता वह बेहद हिंसक हो? ऐसे में अपनी रक्षा का इंतज़ाम करके अजनबी से मिलने जा रही है स्त्री आपको क्योंकर अखर रही है? इसमें ‘विश्वास का क्षरण’ कहाँ है? ब्लाइंड का मतलब ही है कि सामनेवाला तो अजनबी है। उस पर विश्वास कैसे संभव है? किसी अपरिभाषित ‘मानवता’ पर विश्वास रखना होगा उसे? यह तो स्त्रीवादी-विमर्श की सफलता है कि युवतियाँ सजग और सचेत हो रही हैं। सिक्सु तो कह रही हैं कि पुरुष के ‘लिंग’ पर केंद्रित विचारधारा का ध्वंस करो। उन पर विश्वास जैसे अधीनस्थ करने वाली धारणाओं से छुटकारा पाओ। 

बीसवीं सदी के अंतिम दशकों के भारत के स्त्री-मुक्ति-आंदोलन का ध्येय क्या इसी ‘विश्वास का क्षरण’ नहीं था? जब स्त्री को चेताया गया कि घर भी उनके लिए सुरक्षित नहीं है तो उस विश्वास के क्षरण की ही नहीं, उसको ध्वस्त करने की बात हो रही थी, जो पितृसत्ता आधारित मूक वफ़ादारी का दूसरा नाम था। यह समान व्यक्तियों के बीच सम्मान और प्रेम से उपजा सहज विश्वास नहीं है। यह बचपन में घुट्टी में घोलकर पिलाया गया विश्वास है कि जिस अजनबी के साथ धार्मिक रीत से आपका पल्लू बाँध दिया गया उसको सर्वस्व मानो, उसकी हिंसा भी सहो और किसी से कहो भी मत। वह मालिक है और मालिक से वफ़ादारी चाकर का धर्म है। इस पुरातन संस्कार को परिवार की मर्यादा और स्त्री के धर्म जैसे नामों से जाना जाता है जिसका क्षरण ज़रूरी है। विश्वास नहीं संदेह से उपजे विद्रोह से ही चाकर की हैसियत से मुक्ति हासिल की जाती है।

पूँजी-निवेश के साथ बदलती हरियाणा की तस्वीर 

रोहिणी अग्रवाल आगे बताती हैं कि वह अपने परिवार की लाड़ली थीं; तीन भाई भी थे, लेकिन बाक़ायदा केक काटकर औपचारिक रूप से जन्मदिन उन्हीं का मनाया जाता था। वह एक ऐसी अच्छी लड़की के रूप में संस्कारित की गई थीं कि एक बार दुपट्टा ओढ़े बिना घर से निकल गईं, पूरा दिन कॉलेज में रहीं। जब घर को निकलने लगीं तो पता चला दुपट्टा तो है ही नहीं। वह शर्म से गड़ गईं, लगा जैसे नंगी हो गई हों। पास रहने वाली एक सहेली के घर से दुपट्टा लेकर लौटीं। प्रोफ़ेसर बन जाने के बाद उन्होंने देखा कि क्लास में लड़कियाँ देर से आती हैं, चाहे क्लास ग्यारह बजे की ही क्यों न हो। पता चला कि उन्हें सुबह चार बजे उठकर कितने ही काम निपटाने होते हैं, तब जाकर वे घर से निकल पाती हैं। हरियाणा के देहातों की परंपरा के अनुसार उनके चेहरे कपड़े में लिपटे होते। उन्होंने अपने बाल भी लपेटकर रखे होते थे। गर्भवती लड़कियाँ और सद्यःप्रसूता भी इम्तिहान देने तो आती हैं; उनके सास, ससुर और पति साथ में लाते हैं। वे बंदी भी हैं—चेहरा और बाल अभी भी बँधे हुए हैं—लेकिन घरवाले पढ़ा भी रहे हैं... 

यह है हरियाणा की बदलती तस्वीर जो पूँजी-निवेश के साथ उभरने लगी है, जब देहात शहरों के झालर बनते जा रहे हैं। पूँजीवादी विकास कई पुरातन परंपराओं को ध्वस्त करता है। इसी पूँजीवाद ने पुरुषों की स्त्रियों से जो आकांक्षाएँ बदली हैं, उनका भी स्त्री को पढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान है। रोहिणी जी ने पूँजी के साथ स्त्री-मुक्ति की आकांक्षा और उसके स्वरूप को नहीं जोड़ा, हालाँकि उन्होंने यह कहा कि पूरा का पूरा स्त्री-लेखन स्त्री के ‘वस्तुकरण’ का नहीं, कुछ प्रतिगामी स्वर भी उसमें सम्मिलित हैं, फिर भी आगे चलकर उनके विचार उलझ गए। 

यह भी सच है कि अंजुम शर्मा ने भी ऐसे सवाल नहीं पूछे। पूरा साक्षात्कार कमोबेश आलोचना, स्त्री-दृष्टि की परिभाषा और स्त्री-मुक्ति की अवधारणा पर केंद्रित रहा, जैसा कि एक आलोचक के साथ बातचीत में होना ही था। 

समकालीन स्त्री-लेखन यूटोपियन अवधारणा 

रोहिणी अग्रवाल शुरू में ही समकालीन स्त्री-लेखन पर कहती हैं, ‘‘...मुकम्मल एक यूटोपियन धारणा है और आज जब हम उस ओर क़दम बढ़ाते हैं तो उसे आशा की दृष्टि से देखना है... हमारा स्त्री-लेखन,  इसमें मैं अपने को भी शामिल करती हूँ, हम लोगों ने फ़ैशन के रूप में लिखना शुरू किया, जो परंपरा ने हमें दिया, जो विदेशी साहित्य ने दिया या हमारे भीतर जो घुटन थी... उसने द्वेष का रूप लिया।’’ यहाँ अंजुम शर्मा मीरा को ले आते हैं, इसलिए इस पर आगे रोहिणी जी के विचार जानने को नहीं मिलते। 

यूटोपिया की दिशा में यात्रा में आशावादी लेखन की यह उम्मीद चकित करती है। पितृसत्ता की संरचना के भीतर प्रेम तक के स्वरूप में परोक्ष हिंसा का प्रतिकार आशा की दृष्टि से कैसे लिखा जाएगा? पुरुष का हृदय-परिवर्तन करके? या स्त्री से समर्पण करवाकर? क्या परिस्थिति, संरचना, पुरुष-प्रधानता और उसके प्रकट रूप में उपस्थित पुरुष से द्वेष स्वाभाविक नहीं है? यह तो एक ऐसी लड़ाई है जो उनसे ही लड़नी होती है, जिनसे बेहद प्यार हो। यही इस लड़ाई की विशेषता है और इसीलिए इसका दर्द अधिक दारुण होता है। इसमें दुश्मन कोई नहीं और सभी दुश्मन हो सकते हैं। फ़ैशन ही सही विषय पर क़लम चली तो नए सवाल और नए विमर्श का आग़ाज़ तो हुआ। 

स्त्रीवादी साहित्य कहना क्या जेंडर बायस्ड होता है? 

इस साक्षात्कार में अंजुम शर्मा ने रोहिणी अग्रवाल से कहा कि ‘स्त्रीवादी साहित्य’ और ‘मर्दवादी साहित्य’ जैसे शब्दों का प्रयोग ही नहीं होना चाहिए, ‘‘ये शब्द ही अपने आपमें जेंडर बायस्ड हैं, ये शब्द तो होने ही नहीं चाहिए। जैसे ही आप ‘मर्दवादी साहित्य’ कहती हैं, आप ख़ुद ही जेंडर बायस्ड हो जाती हैं।’’ अंजुम शर्मा का यह सवाल साक्षात्कार का उपकरण भी हो सकता है, जो तीखे प्रत्युत्तर की अपेक्षा से पूछा जाता है। 

मुझे आश्चर्य तब हुआ, जब रोहिणी जी ने यह आरोप लगभग स्वीकार कर लिया! उनकी भंगिमा बचाव की हो गई! उन्होंने कहा, ‘‘वह तो है...’’ (माने साहित्य मर्दवादी है।) उन्होंने कहा कि उनकी दृष्टि ‘‘स्त्री संवेदी है, स्त्रीवादी नहीं’’ है। स्त्रीवाद उनकी निगाह में क्या है? उनका स्त्रीवादी होना ज़रूरी नहीं है, लेकिन उसकी समझ और उसकी व्याख्या महत्त्व की है। वह चिंतक हैं, आलोचना की कसौटी पर साहित्य को परख रही हैं तो क्या स्त्रीवाद इन कसौटियों में एक है या नहीं? है तो क्यों? नहीं है तो क्यों? न अंजुम ने पूछा, न हमें जवाब मिला। रोहिणी जी स्त्रीवादी न हों तो न हों; उनका हक़ है, लेकिन पूर्वाग्रह के आरोप का खंडन भी उन्होंने नहीं किया! मर्दवादी साहित्य को मर्दवादी कहना क्या बायस या पूर्वाग्रह है? फ़्रांज़ फ़ैनन ने कहा था कि अगर आप मेरा दमन काला होने के कारण करेंगे तो मैं काले की तरह ही प्रतिक्रिया दूँगा। पितृसत्ता जब केवल लिंग के आधार पर, यानी सिर्फ़ स्त्री होने के कारण ही स्त्री का दमन और शोषण करेगी तो उसे जवाब स्त्रीवाद ही देगा। इसे कैसे ‘बायस’ कहा जा सकता है? इस तरह के बायस के आरोप ही तो स्त्री-लेखन को पुरुष-लेखन के मुक़ाबले दूसरे दर्जे पर रखते हैं और यह भी पितृसत्ता की ही राजनीति है। हमारे आलोचक ही इसका जवाब नहीं देंगे तो कौन देगा? 

एक पूर्वाग्रह का प्रतिकार पूर्वाग्रह नहीं होता, उसके ‘वाद’ का ‘प्रति-वाद’ होता है। पितृसता की कोख से ही स्त्रीवाद ने उसके मर्दन के लिए जन्म लिया है। यह जेंडर बायस नहीं है, यह पुरुषवादी दृष्टि का नकार है जो स्त्रीवादी होकर ही किया जा सकता है, पुरुषवादी विचारधारा के अधीन होकर नहीं। 

अस्मिता-विमर्श की जो भी सीमाएँ हों, उसकी चुनौती ने ही प्रभुत्वशाली पितृसत्ता को झकझोर दिया और इस योगदान को मान्यता देने की ज़रूरत है। इसे समझकर, इस टूल का इस्तेमाल किए बिना आज की आलोचना अपंग रहेगी। ख़ुद को ‘जेंडर न्यूट्रल’ साबित करने की कोशिश में पितृसत्ता की हदबंदी के भीतर लिखकर जंग नहीं लड़ी जा सकती। यही नहीं, ख़ुद को जेंडर न्यूट्रल साबित करने की कोशिश उस अपराध को स्वीकार करने जैसा है जो किया ही नहीं गया। यह ‘पूर्वाग्रह’ की पितृसत्ता निर्दिष्ट परिभाषा का स्वीकार है। स्त्री को जेंडर न्यूट्रल क्यों होना चाहिए जब कि मर्दवादी साहित्य जेंडर न्यूट्रल नहीं है? जब वह ज़माना आएगा कि विचारधारा से निकल यह चेतना भाव-जगत का अभिन्न अंग बन जाएगी, तब जेंडर न्यूट्रल लेखन और कला जन्म ले सकती है। अभी तो ऐसी अपेक्षाओं तक को प्रश्नांकित करने का समय है। 

जेंडर की घुसपैठ की राजनीति 

यहाँ यह भी साफ़ करना ज़रूरी है कि विमर्श में ‘जेंडर’ की घुसपैठ कराकर स्त्रीवाद की शक्ति को कम करने की इस चतुर चाल का भी विरोध होना चाहिए। इसकी भी अपनी राजनीति है। जेंडर कहते ही पुरुष भी इस विमर्श में शामिल हो जाते हैं, जबकि यह विमर्श पुरुष के भीतर समाई पितृसत्ता के ख़िलाफ़ है। यही कारण है कि आजकल कुछ लोग बिना सोचे-समझे ‘पुरुष विमर्श’ भी शुरू करने की लचर माँग उठा रहे हैं, जिनमें स्त्रियाँ भी हैं।  

पुरुष-विमर्श तो सर्वत्र है और संस्कार, संस्कृति, धर्म, परिवार की मर्यादा आदि अनेकानेक सुंदर और भ्रामक नामों से जाना जाता है। ‘आत्मोत्सर्ग’ के लिए तत्पर प्रेम की धारणा में भी यही परिलक्षित होता है। सारस के जोड़े में एक के मरने पर दूसरा संगी प्राण दे देता/ती है, लेकिन इसके बावजूद जीते जी वे एक दूसरे के साथ भोजन नहीं बाँटते। स्त्रीवादी साहित्य अपनी खुराक, अपने पोषण का साहित्य है। यह जैसा भी है, इसके घुटने पुरुष-प्रधान संस्कारों के आगे नहीं टिकवाए जा सकते।  

यह स्त्री-विमर्श है, जेंडर-विमर्श नहीं है। यह बात साफ़-साफ़ कहने की ज़रूरत है। स्त्रीवाद ने ही पितृसत्ता के ख़िलाफ़ पहला नारा बुलंद किया था। अस्मिता-विमर्शों में स्त्रियाँ ही बहुमत में है और उनकी लडाई का हर पड़ाव महत्त्वपूर्ण है। निश्चित रूप से फ़ेमिनिज़्म की अनेकानेक धाराएँ हैं, जिनकी बात कभी और हो सकती है। यहाँ इसका मौक़ा तो है, पर यह प्रस्तुत लेख का विषय नहीं है। 

फ़ेमिनिज़्म स्त्री के अधिकारों की एक अलग क़िस्म की लड़ाई है, जिसमें स्त्री के दमन के ज़िम्मेदार शत्रु को साफ़ तौर पर चिह्नित किया गया है, और यह है पितृसत्ता। यह एक ‘इज़्म’ है जो विश्वदृष्टि होती है। इसके अपने औज़ार हैं। इसकी अपनी वैकल्पिक व्यवस्था की परिकल्पना है। इसे जेंडर में न उलझाया जाए, यही बेहतर होगा। फ़ेमिनिज़्म सिर्फ़ अधिकार की लड़ाई नहीं है, यह व्यवस्था-परिवर्तन की लड़ाई है। फ़ेमिनिज़्म में करुणा से या सामाजिक उपयोगिता के लिए उसे कुछ ‘अधिकार’ नहीं दिए जाते। अंजुम ने जब रोहिणी जी से कहा कि पुरुषों ने ही इन अधिकारों की पैरवी शुरू की तो मौक़ा था कि वह उनके योगदान और अस्सी के दशक में भारत में आए फ़ेमिनिज़्म के बीच फ़र्क़ करतीं। उन्होंने मान लिया कि स्त्री-अधिकारों को पुरुष ही केंद्र में लाए थे। निश्चित रूप से ऐसे पुरुष भी थे, लेकिन उनकी दृष्टि और एक फ़ेमिनिस्ट की दृष्टि में अंतर है। रोहिणी भले स्त्रीवादी न हों, लेकिन इस अंतर को तो उन्हें साफ़ करना चाहिए था। 

रोहिणी जी अपनी बात को साफ़ करते हुए कहती हैं, उनकी दृष्टि ‘स्त्री संवेदी’ है। वह कहती हैं कि पुरुष-लेखन में पुरुष-दृष्टि को एकांगी नहीं कहा जाता, जबकि स्त्री-दृष्टि को एकांगी कहा जाता है... ठीक कहा।  

‘ढील’ का व्याकरण   

रोहिणी अग्रवाल कहती हैं कि देहाती हरियाणा में जहाँ वह पढ़ाती रही हैं, लड़कियाँ चेहरा और सिर ढक कर आती हैं, घर के काम निपटाकर आती हैं, सद्यःप्रसूता को सास-ससुर-पति एग्जाम देने के लिए लाते हैं, सब सही है, लेकिन वे पढ़ तो रही हैं, परिवर्तन की इन सकारात्मक ‘‘आहटों का भी रेखांकन करना है, लेकिन इतनी-सी ढील मिल जाए तो संतुष्ट नहीं होना है।’’

ढील! ढील मिलना! यह पितृसत्ता की भाषा है। किसे मिली है ढील और क्यों? क्या इसमें पूँजीवाद की कोई भूमिका नहीं है? क्या शिक्षा-अधिकार-अभियान की भूमिका नहीं है? दलितों में अम्बेडकर की ‘‘शिक्षित बनो’’ के नारे का योगदान नहीं है? क्या शहरों में काम करने गए पुरुषों की अपनी संगिनी की बदली परिकल्पना की भूमिका नहीं है? क्या पढ़े-लिखे नौकरीशुदा दामाद की इच्छा का योग नहीं है, जिसे शिक्षित संगिनी चाहिए होगी? क्या बदलते तकनीकी उपकरणों का इस्तेमाल करने के लिए स्त्री को सक्षम बनाने की विवशता की भूमिका नहीं है? किस कारण मिली है—यह ‘ढील’? और किसने दी है? और क्यों दी है? क्या युवतियों ने ख़ुद ही घर में लड़कर स्वीकार किया है कि वे लकड़ी के गट्ठर भी सिर पर ढोती रहेंगी, पर उनको स्कूल-कॉलेज की शक्ल देखने दी जाए। घर-घर में यह लड़ाई और इसमें किए लड़कियों के रणनीतिगत समझौतों की गोबरी गंध कहाँ है—इस भाषा में? इन समझौतों और इनसे उभरती समरनीति के रेखांकन की ज़रूरत है, यह जतलाने के लिए कि ‘ढील’ से संतुष्ट नहीं होना है। आम लोगों से ऐसी भाषाई भूल हो सकती है, लेकिन एक बुद्धिजीवी आलोचक से नहीं जो स्त्री-दृष्टि से साहित्य की व्याख्या करती हों।   

पाँच सौ पाउंड और एक अपना कमरा 

वर्जीनिया वुल्फ़ ने कहा था कि लिखने के लिए स्त्री को सालाना पाँच सौ पाउंड और अपना एक कमरा चाहिए। इसका हवाला देते हुए रोहिणी अग्रवाल ने कहा कि ‘‘यह तो स्त्रियों के पास बहुत ज़्यादा हो गया है!’’ 

क्या रोहिणी जी सिर्फ़ उच्च मध्यवर्ग की बात कर रही हैं? उनके द्वारा ख़ुद ही ढके चेहरों और बँधे बालों का वर्णन करने के बाद ऐसा दावा अंतर्विरोधी लगता है। वह अगर सिर्फ़ लेखकों की ही बात कर रही हैं, तो भी यह कहाँ तक सच है? 

उनकी बात मान लें तो आर्थिक मुक्ति तो हो गई! तो अब क्या चाहिए? रोहिणी जी के मुताबिक ‘मेंटल ओरिएंटेशन’ की ज़रूरत है। हर मुक्ति विचार से ही जन्म लेती है और इसके लिए ज़रूरी है कि विचार बदलें। चलिए यहाँ उनके ‘मेंटल ओरिएंटेशन’ को देखें।  

युवा पीढ़ी और जेंडर न्यूट्रल आस्पेक्ट  

उन्होंने दावा किया है कि नई पीढ़ी में ‘‘जेंडर न्यूट्रल आस्पेक्ट आ गया है।’’ इसकी पुष्टि में उन्होंने कहा कि ‘‘घर के कामकाज में शेयरिंग है। दोनों निर्णय लेते हैं।’’ 

आइए इसे कुछ खोलकर देखें। घर के कामकाज में अब पुरुष हाथ बँटाने लगे हैं; इससे इनकार नहीं किया जा सकता, हालाँकि अभी भी यह अपवाद ही है और ज़्यादातर मध्यवर्ग में ही देखने को मिलता है। फिर भी यह परिवर्तन तो है ही। क्या यह स्त्री के प्रति संवेदना की उपज है या पूँजीवादी व्यवस्था में बदलती जीवन-शैली का प्रभाव है? क्या सुविधाओं से लैस ज़िंदगी जीने के लिए अक्सर पति-पत्नी दोनों को नौकरी नहीं करनी पड़ रही? जब दोनों ही सुबह घर से निकलें और देर शाम लौटें तो कामकाज मिलकर करने के सिवाय चारा क्या है? जीवन-शैली की मजबूरी ही सही निश्चित रूप से पुरुष में घर-काम के प्रति नज़रिये को कुछ हद तक बदले बिना संभव नहीं, फिर भी सच्चाई तो यह है कि आज भी घर के कामों की मुख्य ज़िम्मेदारी स्त्री की ही होती है। एक नज़र टीवी और इंटरनेट के कार्यक्रमों के बीच आने वाले विज्ञापनों पर डालना ही काफ़ी होगा; जहाँ आज भी घर की मुख्य ज़िम्मेदारी स्त्री की ही बताई जा रही है, हालाँकि पिछले दशक में विज्ञापनों के सुर और बिम्ब कुछ बदले हैं। आज भी हाल यह है कि पुरुष के हाथ बँटाने पर स्त्री गर्व से भर उठती है और दोस्त रिश्तेदारों के सामने डींगें हाँकती है। अगर मानसिक उन्मुखता बदली होती तो स्त्री इसे पुरुष की भी साझा ज़िम्मेदारी मानती, अनुगृहीत नहीं होती और न ही इसे कोई डींग हाँकने वाली बात मानती। यही बात पुरुष पर भी लागू होती है, जो घर के काम में हाथ बँटाने को स्त्री पर एहसान मानते हैं। 

यह सच है कि युवा पीढ़ी में कुछ परिवर्तन इस कारण भी देखने को मिल रहे हैं कि वे इन विमर्शों से प्रभावित हुए हैं, मगर इनकी संख्या अभी भी बहुत कम है। इसे ‘जेंडर न्यूट्रल’ की संज्ञा देना कहाँ तक उचित है? और जेंडर न्यूट्रल होता क्या है? जेंडर न्यूट्रल होता है कि कोई भी काम, कोई भी कर सकता है? यह तो आज स्थापित हो चुका है कि स्त्री झाड़ू लगाने से स्पेस तक की यात्रा कर सकती है, लेकिन इससे क्या समाज ‘जेंडर न्यूट्रल’ बन पाया है या पुरुष और स्त्री घर में ही समान बन पाए हैं? क्या स्त्री आधी रात को बिना बताए घर से बाहर निकल सकती है? आक्रमण के डर को छोड़िए; मान लीजिए कि उसे यह जोखिम भी मंज़ूर है, तब भी क्या वह निकल सकती है?  

स्त्री की निर्णय-सबलता    

रोहिणी अग्रवाल ने यह तो नहीं बताया कि कौन से निर्णय साझे रूप से लिए जा रहे हैं, लेकिन उन्होंने कहा कि स्त्री अब ‘निर्णय-सबल’ हो गई है। अगर निर्णय भी साझे रूप से लिए जा रहे हैं या स्त्री निर्णय-सबल हो रही है तो इसमें कुछ क़ानूनों और वित्तीय कारणों की महत्ता का संज्ञान भी लेना होगा, जिसका सिरा स्त्री-मुक्ति-आंदोलन से जुड़ता है।  

रोहिणी जी हरियाणा में रहती हैं। वहाँ पर संपत्ति की ख़रीद पर रजिस्ट्री के समय स्त्री के नाम संपत्ति हो तो चार प्रतिशत स्टाम्प ड्यूटी देनी होती है, साझी संपत्ति हो तो पाँच प्रतिशत और पुरुष के नाम हो तो छह प्रतिशत स्टाम्प ड्यूटी लगती है। रुपए बचाने के लिए बहुत सारी संपत्तियाँ अब स्त्रियों के नाम या फिर साझेपन में रजिस्टर हो रही हैं। यह नियम ही स्त्री-मुक्ति के विमर्श के दबाव में बना था, क्योंकि स्त्रियों के पास अपनी संपत्ति नहीं होती या बहुत कम होती है। यह संपन्न परिवारों में ही होता है, लेकिन पाँच सौ पाउंड भी संपन्नों को ही मिलते हैं। क्या इसे स्त्री का सबलीकरण माना जा सकता है? सबलीकरण तो तब होगा जब अपने नाम रजिस्टर संपत्ति को स्त्री अपनी मर्ज़ी से बेरोक-टोक बेचने में सक्षम हो। क़ानून उसे नहीं रोकता, लेकिन क्या परिवार की मानसिकता बदली है? क्या स्त्री की ख़ुद की मानसिकता बदली है? रोहिणी जी सही कह रही हैं कि यह सवाल मानसिकता का है। मानसिकता बदलती है चेतना से और इस चेतना के प्रसार में साहित्य की भूमिका भी होती है। इसमें ऐसा साहित्य क्या भूमिका निभाएगा जो संबंधों को बनाए रखने के आग्रह से ओतप्रोत हो? 

सत्ता का संज्ञान  

स्त्री-मुक्ति की रोहिणी जी की कल्पना क्या है? ‘‘हमने एक पदबंध ले लिया है—स्त्री-मुक्ति का। दरअस्ल, यह मानव-मुक्ति है... पितृसत्ता ने क्या सिर्फ़ स्त्री को ग़ुलाम बनाया है? पुरुष की भी मनुष्यता का शिकार किया है। पितृसत्ता ने दोनों की ही मनुष्यता का आखेट किया है।’’ 

इस वक्तव्य का विखंडन ज़रूरी है। पितृसत्ता ने क्या पुरुष की मनुष्यता का आखेट किया है? कठिन सवाल है। इसका जवाब संक्षेप में देना मुश्किल है। यह सच है कि स्त्री और पुरुष दोनों पितृसत्ता में संस्कारित किए जाते हैं। लेकिन स्त्री का आखेट होता है, पुरुष को आखेटक बनाया जाता है। इसमें जो महत्त्वपूर्ण कारक है—सत्ता का—उसे रोहिणी जी गोल कर गई हैं या यह उनकी नज़र में कहीं है ही नहीं! 

यह दोनों लिंगों के बीच ‘सामंजस्य’ की भ्रामक राजनीति है। पुरुष के पास सत्ता है। स्त्री के पास नहीं है। दोनों समान रूप से शिकार हो ही नहीं सकते। लड़कों को पालने के क्रम में जो कुछ उनसे कहा जाता है, वह हर घर में सुनाई देगा। मर्द नहीं रोते। वे साधन जुटाते हैं। परिवार का पोषण करते हैं। स्त्री की रक्षा के लिए तैयार रहते हैं। सर्वोपरि उनसे अपेक्षा होती है कि वे विषमलिंगी ही होंगे। यही कारण है कि समलैंगिकों के प्रति भी पितृसत्ता में द्वेष और हिक़ारत का भाव रहता है। वे भी स्त्रियों के समान ही तिरस्कृत होते हैं। उनका भी बलात्कार होता है। इसके बावजूद भारत के स्त्री-मुक्ति-आंदोलन ने उनके संघर्ष का समावेश नहीं किया, उनके साथ खड़ा होने से इनकार कर दिया। 

पितृसत्ता के इस विश्लेषण में जो कारक रोहिणी जी छोड़ जाती हैं, वह है—सत्ता का कारक। पुरुष की छवि ही नहीं, उसकी वास्तविकता भी पितृसत्ता ने ही गढ़ी है; पर उसे सत्ता दी है, वर्चस्व दिया है। स्त्री को निर्बल नहीं बनाया, सत्ताहीन बनाया है; इसलिए यह लड़ाई पुरुष की नहीं, स्त्री की ही है... और यह लड़ाई है, कोई सौदेबाज़ी नहीं है। 

पुरुषों का यह सत्ताबोध ही उन्हें बलात्कारी बना देता है। इसीलिए वैवाहिक-संबंध के भीतर भी बलात्कार होते हैं। बलात्कार उनका हथियार है, स्त्री को, और अन्य यौन-उन्मुखता के लोगों को, डराकर उन्हें तय सीमा-रेखाओं के अंदर क़ैद रखने का। उनको ‘पितृसत्ता’ का शिकार बता कर इस तरह बरी नहीं किया जा सकता। इस सत्ता के तंत्र का ध्वंस ही फ़ेमिनिज़्म का ध्येय है, जिसमें राजसत्ता का समर्थन बेहद ज़रूरी है।

यह मनुष्यता क्या है जिसका आखेट हुआ है? आखेट तो मनुष्य ने ही किया है। किसलिए? सत्ता के लिए। 

स्त्री पुरुष के संबंध में सत्ता की अहम् भूमिका है; इसलिए ही स्त्री-अधिकारों के प्रश्न को राजनीतिक कहा जाता है, क्योंकि राजनीति का सरोकार सत्ता से होता है और यह सत्ता घर में पिता पति से लेकर राजसत्ता तक में परिलक्षित होती है। इसी कारण दोनों लिंगों के बीच युद्ध अवश्यंभावी है।  

मनुष्यता की रूमानी अवधारणा 

अब आइए एक रूमानी अवधारणा पर... रोहिणी अग्रवाल कहीं इसे मनुष्यता कहती हैं, तो कहीं मानवता। 

गई 22 मई को प्रचण्ड प्रवीर के उपन्यास ‘मिटने का अधिकार’ पर फ़ेसबुक पर अपनी टिप्पणी में भी उन्होंने कहा है, ‘‘दुर्भाग्यवश विमर्शों ने अपनी ज़मीन बचाने की आपाधापी में समग्र मनुष्य की अवधारणा पर संवेदनशील चेतना विकसित करने की बजाय शोषक और शोषित, प्रिविलेज़्ड और अदर को तलवार लेकर आमने सामने खड़ा कर दिया है।’’ 

मनुष्यता और मानवता जैसे शब्दों से बड़ी दिक़्क़त पैदा होती है। क्या है यह मानवता? मानव में बलात्कारी भी हैं, बलत्कृत भी। हंता भी हैं और हंत भी। यह एक रूमानी धारणा है कि किसी दूसरे पर प्रहार करने वाला ‘मानव’ नहीं रहता, मानवता के स्तर से गिर जाता है। हम सब इसके इस्तेमाल के अपराधी हैं। इस तरह की रूमानियत रूसो के दर्शन में मिल जाती है, जिसमें प्रबोधन या एनलाइटनमेंट दोषी ठहरा दिया जाता है। रूसो के ‘मानव’ अपनी मूल प्राकृतिक अवस्था में भोले होते हैं। वे परस्पर सहयोग और सहभागिता को तत्पर रहते हैं। 

वास्तविकता हॉब्स के निकट है, जिनके फ़लसफ़े में प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य स्वार्थी और क्रूर होते हैं। इसमें सत्ता की बड़ी भूमिका है। इसे चिह्नित करने की ज़रूरत है। 

काश! रोहिणी जी ने इसका संज्ञान लिया होता। 

आज की कहानी में कुछ नया नहीं है?

रोहिणी अग्रवाल से जब पूछा गया कि आज की कहानी के परिदृश्य को वह कैसे देखती हैं... तो उन्होंने कहा, ‘‘कुछ नया नहीं आ रहा...’’ ध्यान रहे कि 1949 में छपी सिमोन की ‘द सेकेंड सेक्स’ में समलिंगियों का संज्ञान लिया गया था। भारत में स्त्री-मुक्ति-आंदोलन की नई लहर ने भी खुलकर इनका पक्ष नहीं लिया, बल्कि इनके अधिकारों पर चुप्पी साधे रखी। क्या रोहिणी जी इससे अनभिज्ञ हैं?

पुरुष आलोचकों के स्त्री-लेखन की उपेक्षा की हद तक के दृष्टि-दोष की शिकायत करने वाली स्त्री आलोचक का क्या यह फ़र्ज़ नहीं है कि वह उभरते समलैंगिक साहित्य के नयेपन को मान्यता दें? उन युवाओं को मान्यता दें, जिन्होंने साहसिक क़दम उठाए हैं और हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है? इतना दम है—इस पदार्पण में कि इसे ठीक से न समझने वाले लेखक भी इस विषय पर लिखने को विवश हो गए। रोहिणी जी ने यह तो कह दिया कि स्त्री-विमर्श से संबंधित लेखन की शुरुआत फ़ैशन से हुई; लेकिन जो फ़ैशन समलैंगिक-विमर्श के लेखन ने शुरू करवा दिया, उसका संज्ञान लेने के लिए अब क्या किसी समलैंगिक आलोचक को आगे आना पड़ेगा? 

रोहिणी जी अस्मिता-विमर्श को ‘छोटे-छोटे पॉकेट्स’ में बँटा हुआ बता रही हैं और ख़ुद उसकी शिकार हैं कि नयेपन को मान्यता भी नहीं दे रहीं। 

उन्होंने शिकायत की कि स्त्री आलोचकों को अदृश्य कर दिया गया है और वह जो अपनी प्रतिष्ठा के बल पर एलजीबीटीक्यू+ को अदृश्य कर रही हैं, उसका क्या?

आज की इस आलोचक की दृष्टि को क्या कहा जाए? दोष? नासमझी? राजनीति? अपनी सत्ता का दुरुपयोग? 

वह कहती हैं, ‘‘मेरा स्त्री-विमर्श मनुष्य की मुक्ति का या मनुष्य की रचना का एक स्वप्न है...’’ स्त्री का स्त्रीत्व... पुरुष के गुण की ‘‘युक्ति होनी चाहिए...’’ 

यह कोई युगल नृत्य है क्या जिसमें दोनों साथ-साथ किसी मानवता के गुण की धुन पर थिरकते हुए पहले गुणों का आदान-प्रदान करें, फिर युक्ति तक पहुँचें? और यह ‘स्त्री का स्त्रीत्व’ क्या होता है? कोई अपरिभाषित कोमलता, करुणा, वात्सल्य, आत्मोत्सर्ग की प्रवृत्ति? यह ‘स्त्रीत्व’ कोई जन्मजात गुण नहीं होता, जैसे पुरुषत्व भी कोई जन्मजात गुण नहीं होता।

वह अपना मतलब साफ़ करते हुए कहती हैं कि जैसा स्त्री को समाज ने बनाया है, उसके कोमल गुणों और पुरुष के सामर्थ्य और सबलता के गुणों के संगम की वह कामना कर रही हैं। इनमें युक्ति होगी कैसे जब दोनों ‘गुण’ परस्पर विरोधी हैं? 

उनका कहना है, ‘‘स्त्री-मुक्ति मानव-मुक्ति है। समाज की मुक्ति है...’’ और पुरुष की भी ‘‘मानसिकता बदलेगी...’’ यह बदलेगी नहीं। बदलवाई जाएगी। जब ‘मर्दानगी’ का मख़ौल बनेगा, सामाजिक अनुमोदन मिलना बंद होगा, जब स्त्री पर कटाक्ष करने वाले चुटकुलों पर कोई हँसेगा नहीं; झापड़ रसीद करेगा... तब बदलने को मजबूर होंगे पुरुष—अपनी मानसिकता। इसका अंतर भी समझने की ज़रूरत है। 

रोहिणी जी आख़िर किस मानव की मुक्ति की बात कर रही हैं? यह एक ऐसे आदर्श की कल्पना है जो असल में अनुभवजनित ज्ञान का नकार है। अंततः कैसा समाज बनेगा; हम इसकी कल्पना नहीं कर सकते, लेकिन सहयोग की दिशा में संघर्ष एक असंभव-सा आदर्श है। सहयोग तो होगा ही, पर सहयोग किसका? बंधुता किसकी? जो उत्पीडित हैं उनकी और उनकी भी आपस की बंधुता; उनके साथ नहीं, जो उनका दमन और शोषण कर रहे हैं। 

अस्मिता-विमर्श 

रोहिणी अग्रवाल ने अस्मिता-विमर्श पर जो कहा है, वह और भी दिलचस्प है। वह कहती हैं, अस्मिता-विमर्श ‘‘(इस)की शुरुआत आर्थिक उदारीकरण से ही आई है।’’ इस दावे के बाद कि आलोचक लेखक की तरह एक द्वीप पर बैठा नहीं रह सकता, उसे तो बहुत पढ़ना होता है, भ्रमण करना होता है... यह दावा अचंभित कर देता है। 

दुनिया में शायद अस्मिता-विमर्श की शुरुआत यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ़ अमेरिका में कालों के अस्मिता-विमर्श से हुई। भारत में इसकी शुरुआत दलित राजनीति से हुई और इसको फुले दंपत्ति और अम्बेडकर के संघर्ष से जोड़ा जा सकता है। कालांतर में जब 1980 के दशक में स्त्री-मुक्ति का नया फ़ेमिनिस्ट स्वरूप उभरा, तब जल्दी ही अस्मिता-विमर्श में बदल गया। तब तक उदारीकरण की कहीं बू भी नहीं थी। उदारीकरण के बाद इन विमर्शों में कुछ तेज़ी ज़रूर आई और इनकी राजनीतिक गतिशीलता भी बढ़ी, जिस पर कभी और चर्चा हो सकती है। 

कौन किसको अदृश्य कर रहा है? 

रोहिणी अग्रवाल ने कहा है कि आज का पुरुष-लेखन स्त्री को अदृश्य कर रहा है। सच हो सकता है कि वे स्त्री-विमर्श से इतने भयभीत हों कि स्त्री-चरित्र गढ़ न रहे हों; जैसा कि अंजुम शर्मा ने भी कहा, लेकिन समलैंगिक-विमर्श के लेखन में तो सशक्त स्त्री-चरित्र उपस्थित हैं। इनका संज्ञान वह क्यों लेंगी? आख़िर अंजुम ने भी तो सिर्फ़ ‘तीसरे जेंडर’ की ही बात की, (जेंडर बहत्तर  हैं,  भारत में सिर्फ़ तीन को मान्यता मिली है) उन पुरुषों की नहीं जिनको पुरुष ही पुरुष नहीं मानेंगे और न उन स्त्रियों की जिन्होंने स्त्री संगिनियाँ चुनकर पुरुष को अप्रासंगिक बना दिया। जब लैंगिक विमर्श को ‘जेंडर-विमर्श’ का लबादा ओढ़ा दिया जाएगा तो यही होगा। 

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