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बंजारे की चिट्ठियाँ पढ़ने का अनुभव

पिछले हफ़्ते मैंने सुमेर की डायरी ‘बंजारे की चिट्ठियाँ’ पढ़ी। इसे पढ़ने में दो दिन लगे, हालाँकि एक दिन में भी पढ़ी जा सकती है। जो किताब मुझे पसंद आती है, मैं नहीं चाहती उसे जल्दी पढ़कर ख़त्म कर दूँ; इसलिए थोड़ा-थोड़ा पढ़कर रखती-उठाती रहती हूँ। कई बार कुछ पन्ने दुबारा-तिबारा पढ़ती हूँ। इस डायरी को पढ़ने की प्रक्रिया ऐसी ही रही। इसमें इतना सामर्थ्य, इतना माद्दा है कि यह अपने प्रभाव में जकड़ लेती है। 

सुमेर ने नई शैली में अपनी डायरी लिखी है। इसमें तारीख़, माह, वर्ष दर्ज नहीं हैं, न ही दिनचर्या का उबाऊ विवरण है, किसी दिन की मनोदशा है, जैसा जीवन गुज़रा या गुज़र रहा है—उसका सरिअल चित्र है और उस मनःस्थिति, उस चित्र को बयान करने वाली बहुत कोमल, प्राकृतिक भाषा है। प्राकृतिक इसलिए क्योंकि ऐसा कोई पृष्ठ नहीं जहाँ प्रकृति मनःस्थिति और आत्मानुभव को व्यक्त करने भाषा में न आई हो। कहीं-कहीं भाषा इतनी काव्यात्मक है कि पैराग्राफ़ पढ़ते हुए लगा जैसे कोई कविता पढ़ रही हूँ। गद्य और पद्य की धुरी के बीच ऐसी भाषा साधना आसान नहीं है।

मलयज ने अपनी डायरी (चौथा खंड : 11 जून, 81) में लिखा—“पद्य को पढ़ना उस केंद्र का फोड़ना है—उसे तलाश करना उस तक पहुँचना—जिससे वह पद्य उपजा है और इसीलिए पद्य को पढ़ना गद्य को पढ़ने की बनिस्बत एक मुश्किल काम है। ...किसी रचना को पढ़ना अपने को पाने का अनुभव करना भी है। पद्य को उसके केंद्र में जाकर यह अनुभव होता है और गद्य में उस केंद्र के वृत्त में।”

डायरी में कथ्यात्मकता और काव्यात्मकता के सहल समायोजन के कारण पाठक को ‘अपने को पाने का अनुभव’ करने के लिए एक साथ केंद्र में भी जाना होगा और उस केंद्र के वृत्त पर भी रहना होगा। यह कठिन काम है और यह काम ऐसी विधा (डायरी) के लिए करना होगा जिसमें अमूमन सपाटपन और साफ़गोई की अपेक्षा होती है।

इसमें सुमेर की सरज़मीं जैसलमेर का सुंदर, मधुर, मौन परिवेश और दिल्ली शहर के किसी कोने में एक कमरा, कमरे की बालकनी, सड़क, मेट्रो, चहल-पहल सब आपस में गडमड हैं, इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि दो बिल्कुल भिन्न लैंडस्केप एक ही समय में अपनी पूरी जीवंतता के साथ मौजूद हैं। 

यह डायरी घटनाओं, परिस्थितियों और निरंतर बदलाव से अकेले जूझते बेहद संवेदनशील अंतर्मन की दशा है, जो किसी से न कह पाने की स्थिति में किसी-किसी समय पर स्वयं से ही कह दी गई, सुमेर ने आमुख में लिखा भी है—“बिना लिफ़ाफ़ों और बिन पते वाली ‘आत्म’ को लिखी चिट्ठियाँ डायरी बन जाती हैं शायद…”


कुछ पृष्ठों के कोने मोड़े हैं, कुछ पंक्तियाँ हाइलाइट की हैं, जो मुझे अच्छी लगीं—

बुरा हो जाने के इस मौसम में वह कम-से-कम अच्छा हो जाने की कोशिश तो कर सकता है।

सवाल कितने बेतुके होते हैं कि तुमने कितने सच्चे दोस्त कमाये।

शायद दूसरों की तकलीफ़ें उनकी कमाई हैं। आप अगर समझते हैं तो ‘बदल गए’ या ‘पागल हो गए’ क़रार दे दिए जाते हैं। मैं हमेशा सोचता हूँ कि संवेदना कमाना और जब सबकुछ ख़त्म हो रहा हो, उस वक़्त कोई हो, जिससे बात करते हुए सोचना न पड़े, ऐसे किसी का होना ही सबसे बड़ी कमाई है।

सरकारें हत्यारी हैं और उन्हें चुनने वाले अपने दिमाग़ों की चाबियाँ फिर भी दे चुके थे, उन्हीं के हाथों में।

साथ की सुंदरता से महान क्या होगा भला?

...और फिर नींद नहीं आती। अँधेरे का अपना सौंदर्य है। देखो ना, अभी सन्नाटे ने कुछ कह। रात मेला था। मैं कोने में चुपचाप खड़े होकर देखता रहा और मुस्कुराता रहा। नींद में भी फ़ोन देखता हूँ कि बज रहा है। कोई जीतता-हारता नहीं है, पर कुछ ख़त्म हो जाता है। मैं लाख रोकता हूँ, पर रिक्तताएँ दोस्त हुई जाती हैं। व्यस्तताएँ तरस नहीं खाती हैं इंतज़ार पर।

ये फूल अचानक यों सूख क्यों गए? मुझे डरावने सपने आते हैं कि कोई बचा लेगा। क्यों?

सोचता हूँ कि कभी भी रिश्तों की डोर में अहम की गाँठें नहीं पड़ने दूँगा।

टाँगें बेवक़ूफ़ हैं, आँखों ने कहा। शिकायतों के काग़ज़ों पर भीगकर स्याही बिखर गई। बारिशें शहर में होतीं और बदन गाँव में भीगता है। मन मूर्ख है, दिमाग़ ने कहा। आँखें देखना चाहती हैं और टाँगें दौड़ना। देखने और दौड़ने से आगे मन भटकने में रमता। आती हुई रेलों में धड़कनें सफ़र करती हैं। धड़कने जो अटकी रह गईं। बीच राह किसी शहर ठहर जाता दिल। मैं पूछता कि इंतज़ार में रहूँ...कोई कहता कि कौन हो...

मन की कई-कई परतें उसकी बारीकी और गहराई, आस-पास के लोगों की हमें न समझ पाने की असमर्थता, इससे पैदा हुआ अकेलापन, दुख, झुँझलाहट, प्रेम, साथ के सुख से भरा कोई क्षण, ख़ूबसूरत शामें, यात्राएँ, स्मृतियाँ, भविष्य की अनिश्चितता, बयान न की जा सकने वाली अकुलाहट, अस्पष्ट मनोवृत्ति... सब कुछ को जिन बिंबों के ज़रिए, जिस काव्यात्मक भाषा में व्यक्त किया है वह इस डायरी को अनूठा बनाता है।

स्ट्रीम ऑफ़ कॉन्शसनेस कहीं-कहीं बहुत उभर कर सामने आता है, पाठक उन हिस्सों, उन बातों में अंतर्निहित अर्थों को खोलकर उनका ठौर नहीं पा सकता, सब कुछ समझकर उन्हें सुलझा नहीं सकता, वे स्वप्निल बातें बस हैं जिस तरह उन्हें होना चाहिए अपनी रहस्यात्मकता, गूढ़ता, सघनता के साथ। कुछ हिस्सों को पढ़ना दृश्यों की बारीक रस्सी पर चलने जैसा है, उनसे निष्कर्ष निकालने के लिए, रस्सी पर संतुलन बनाए रखने के लिए हमें बहुत चैतन्य रहना है, तार्किकता के भार से रस्सी के टूटने का भय है, रस्सी के टूटने से खला में गिरने और अर्थ के छूट जाने का आतंक भी लेकिन इस खेल में रोमांच है, फिर चाहे आप किसी अर्थ या निष्कर्ष तक न पहुँचें, पहुँचना संभव भी नहीं। डायरी पढ़ने में पीड़ा है और साहित्यक लुत्फ़ भी, वही लुत्फ़ जो ‘आग के पास आलिस है यह’ में बिखरा पड़ा है।

जब युवा रचनाकारों की कविताएँ, कहानियाँ ख़ूब चाव से पढ़ी सुनी जा रही हैं, इसी समय में एक युवा लेखक की डायरी आई है, उसका जिस तरह कम-अज़-कम युवा कवियों-लेखकों द्वारा स्वागत होना चाहिए; वह अगर नहीं हो रहा तो इसीलिए क्योंकि सुमेर सोशल मीडिया के साहित्यिक जगत से सम्मानजनक दूरी बनाए हुए हैं और यह किसी भी युवा, प्रौढ़, वृद्ध लेखक को, उसकी रचनाओं को बिसरा देने के लिए पर्याप्त है; लेकिन जैसा कि इस डायरी के ब्लर्ब पर लिखा है (जिसने भी लिखा है)—

“यह इस पीढ़ी की मनःस्थिति के एक ऐसे स्कैन रिपोर्ट की तरह है, जो आने वाले समय का एक साहित्यिक दस्तावेज़ भी है।” 

निश्चित ही यह डायरी अपना विशिष्ट स्थान बनाएगी ऐसा मेरा विश्वास है।

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