श्याम बेनेगल : ग़ैर-समझौतापरस्त रचनात्मक मिशन का सबसे भरोसेमंद और बुलंद स्मारक
व्योमेश शुक्ल
24 दिसम्बर 2024
अस्सी के दशक की ढलान पर तेज़ी से लुढ़क रहे एक असंस्कृत समय में टीवी पर ‘भारत एक खोज’ शीर्षक धारावाहिक के अथ और इति का पार्श्वसंगीत अपने-आप में ग़ुस्ताख़ी से कम नहीं था।
कास्टिंग में शामिल नाम और वनराज भाटिया के उस क्लैसिकल संगीत के साथ वेद के शब्दों का हिंदी-अनुवाद देख-सुन और याद करके मैं बड़ा हुआ। मेरी पीढ़ी के न जाने कितने लोग उस कालजयी फ़िल्म-निर्देशक की फ़िल्मों से बनने वाले माहौल के साये में जवान हुए, जिसका नाम श्याम बेनेगल था और जिसने सत्तर और अस्सी के दशक में बेमानी मुख्यधारा सिनेमा की पैसे से चलने वाली तोप के सामने सार्थकता और किफ़ायतशारी से बनने वाली सुंदर-कलात्मक फ़िल्मों की पेंसिल रख देने का कलात्मक और वैचारिक साहस किया था।
गोविंद निहलानी, नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, स्मिता पाटिल और शबाना आज़मी जैसे धात्विक नामों के पीछे श्याम बेनेगल एक चट्टानी बैकड्रॉप की तरह खड़े हैं। एक मूल्य की ख़ातिर सत्तर के दशक में उभरकर सामने आए सर्वोत्तम कलाकारों के ग़ैर-समझौतापरस्त रचनात्मक मिशन का सबसे भरोसेमंद और बुलंद स्मारक उनकी फ़िल्में ही हैं।
‘अंकुर’, ‘निशांत’, और ‘भूमिका’ के ज़रिये परिवर्तनकामी हस्तक्षेप करने के कुछ समय बाद, जब समांतर सिनेमा की मशाल बाज़ार और पूँजी की कुछ ज़्यादा ही तेज़ हवाओं के हवाले हो गई, तब श्याम बाबू ने अपने मुहावरे को ज़्यादा स्थानीय और सूक्ष्म बनाया। ज़्यादा नीचे और गहरे उतरे और संताप या संघर्ष की एक जैसी कहानियाँ सुनाने की बजाय दूध-उत्पादन और हथकरघे के काम से जुड़ी मेहनतकश-कारीगर बिरादरी की महागाथा को ज़्यादा ठोस और कल्पनाशील ढंग से पर्दे पर उतारा। ‘मंथन’ और ‘सुसमन’ जैसी फ़िल्में उसी ख़याल से निकली हैं।
बाद के वर्षों में बेनेगल लगभग अकेले योद्धा की तरह समांतर सिनेमा के मूल्यों के साथ सार्थक और टिकाऊ फ़िल्में बनाने के मोर्चे पर लड़ते रहे। उनके अधिकांश साथियों ने समझौता कर लिया और मुंबइया सिनेमा की ओर चले गए, लेकिन श्याम बाबू का रास्ता सर्जना का था। ‘चरनदास चोर’, ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ और ‘अमरावती की कथाएँ’ जैसी उनकी फ़िल्म-कृतियाँ साहित्यिक रचनाओं पर आधारित थीं।
वहीं, ‘मम्मो’, ‘ज़ुबैदा’ और ‘सरदारी बेगम’ नाम की तीन फ़िल्में विभाजन और हिंदू-मुस्लिम-संबंध की कठिनाइयों पर एकाग्र थीं। ऐसा टेढ़ा और उलझा हुआ फ़िल्म-सृजन करते हुए उन्होंने कभी भी लोकप्रियता या बाज़ार-भाव की परवाह नहीं की और गहन शोध, दूसरी कलाओं के साथ खुले हुए संवाद और यथार्थ के तानेबाने से यादगार सिनेमा बनाने का संघर्ष किया।
मैंने उन महान् कलाकार से संवाद किया है। आज से पंद्रह बरस पहले, 2005 में, उपन्यास-सम्राट प्रेमचंद की जयंती—31 जुलाई—को वह किसी संयोग से बनारस में थे। शहर के अग्रणी संस्कृतिकर्मी और आजकल भारतेंदु नाट्य अकादमी के अध्यक्ष रतिशंकर त्रिपाठी के आमंत्रण पर वह प्रेमचंद के कृतित्व पर नौजवान रंगकर्मियों से संवाद करने नागरी नाटक मंडली पधारे। मंच पर उनके साथ बुज़ुर्ग बनारसविद् डॉक्टर भानुशंकर मेहता भी थे। दोनों मूर्धन्य प्रेमचंद के कृतित्व की व्याख्या पर एक दूसरे से कुछ असहमत थे, लेकिन प्रेमचंद की महानता से किसे इनकार हो सकता था।
उस दिन मैंने बेनेगल साहब से कई सवाल पूछे थे। उन्होंने सबके जवाब दिए थे। वह मेरे रोल मॉडल थे। मैं सपने में चल रहा था।
अब सिनेमा के पर्दे पर यथार्थ की निगाहों से देखा जा रहा सबसे ठोस और सुंदर सपना पूरा हो गया। हिंदी फ़िल्म-निर्देशन का प्रेमचंद—श्याम बेनेगल हमें छोड़कर चला गया।
'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए
कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें
आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद
हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे
बेला पॉपुलर
सबसे ज़्यादा पढ़े और पसंद किए गए पोस्ट
28 नवम्बर 2025
पोस्ट-रेज़र सिविलाइज़ेशन : ‘ज़िलेट-मैन’ से ‘उस्तरा बियर्ड-मैन’
ग़ौर कीजिए, जिन चेहरों पर अब तक चमकदार क्रीम का वादा था, वहीं अब ब्लैक सीरम की विज्ञापन-मुस्कान है। कभी शेविंग-किट का ‘ज़िलेट-मैन’ था, अब है ‘उस्तरा बियर्ड-मैन’। यह बदलाव सिर्फ़ फ़ैशन नहीं, फ़ेस की फि
18 नवम्बर 2025
मार्गरेट एटवुड : मर्द डरते हैं कि औरतें उनका मज़ाक़ उड़ाएँगीं
Men are afraid that women will laugh at them. Women are afraid that men will kill them. मार्गरेट एटवुड का मशहूर जुमला—मर्द डरते हैं कि औरतें उनका मज़ाक़ उड़ाएँगीं; औरतें डरती हैं कि मर्द उन्हें क़त्ल
30 नवम्बर 2025
गर्ल्स हॉस्टल, राजकुमारी और बालकांड!
मुझे ऐसा लगता है कि दुनिया में जितने भी... अजी! रुकिए अगर आप लड़के हैं तो यह पढ़ना स्किप कर सकते हैं, हो सकता है आपको इस लेख में कुछ भी ख़ास न लगे और आप इससे बिल्कुल भी जुड़ाव महसूस न करें। इसलिए आपक
23 नवम्बर 2025
सदी की आख़िरी माँएँ
मैं ख़ुद को ‘मिलेनियल’ या ‘जनरेशन वाई’ कहने का दंभ भर सकता हूँ। इस हिसाब से हम दो सदियों को जोड़ने वाली वे कड़ियाँ हैं—जिन्होंने पैसेंजर ट्रेन में सफ़र किया है, छत के ऐंटीने से फ़्रीक्वेंसी मिलाई है,
04 नवम्बर 2025
जन्मशती विशेष : युक्ति, तर्क और अयांत्रिक ऋत्विक
—किराया, साहब... —मेरे पास सिक्कों की खनक नहीं। एक काम करो, सीधे चल पड़ो 1/1 बिशप लेफ़्राॅय रोड की ओर। वहाँ एक लंबा साया दरवाज़ा खोलेगा। उससे कहना कि ऋत्विक घटक टैक्सी करके रास्तों से लौटा... जेबें