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बहुत कुछ खोने के अँधेरे में किसी को बचाने की कहानियाँ

इस किताब को पढ़ते हुए यह महसूस होता है कि कवि-कथाकार-फ़िल्मकार देवी प्रसाद मिश्र की कहानियों के साथ चलना ख़ुद को विशद करना और उदात्त करना ही तो है। ‘कोई है जो’ खिड़की से भीतर गया, दरवाज़े से भीतर जाता तो वह देखने को नहीं मिलता जिसे अब देख-महसूस कर पा रहा हूँ, गुन पा रहा हूँ।

जादुई यथार्थवाद और ज़मीनी यथार्थ के बीच समाज के सारे कोने खंगालता पाठक पढ़ते हुए विचलित हो रहा है जबकि सच यह है कि वह गुम होते लोगों की कथाएँ पढ़ रहा है। सिक्के से घिसते और पिटते किरदार—न्याय के लिए लड़ते हुए और प्रायः हारते हुए मिसफ़िट और फिर विफल होते चले जा रहे हैं। पाठक उस मिसफ़िट होने के अनुभव को पढ़ रहा है, जिसे प्रख्यात कथाकार संपादक अखिलेश ने अपनी सम्मति में दर्ज भी किया है। इन सब को पढ़ते हुए शब्दानुभव और निहितार्थ दोनों को बरतने की कला से मुख़ातिब भी हो रहा हूँ और देख रहा हूँ गद्योन्मुख कहानियाँ काव्योन्मुख कैसे होती चली जाती हैं।

गुम होते लोगों की कहानियों में किरदार परिदृश्य में होते हुए भी ग़ायब हैं। प्रख्यात कथाकार अखिलेश ने भी ऐसी ही बात कही है और एक पंक्ति में अपनी सम्मति का सार लिख दिया “उनके होने का अपहरण कर लिया गया है”। होने के अपहरण का तीर सीधे शक्ति संरचना को निशाना बनाता है। प्रत्याख्यान को सिर से सीधे क़लम कर देने वाले यथार्थ में घटित विफल किरदारों की यातनाएँ यहाँ रचित और चित्रित हैं, जिसे लिखते-बनाते लेखक की रोशनाई अपना प्रकाश उस अँधेरे क़िले में डाल रही है, जहाँ ज़िंदगी को कुतरते कीड़ों की झलकियाँ, प्रलंबित आलाप के साथ उभरती हैं।

यहाँ उजाड़ की सिसकियाँ, वंशानुगत बर्बरताओं के साथ ग्लानियाँ और पशेमानियाँ भी जज़्ब हैं। इन सब के साथ असहमति की लहूलुहान आवाज़ें भी दर्ज हैं, जिसकी ओर आज के महत्त्वपूर्ण कथाकार योगेंद्र आहूजा भी अपनी सम्मति में इशारा कर रहे हैं।

पहली कहानी ‘मैंने पता नहीं कितनी तेज़ या धीरे-से दरवाज़ा खटखटाया’ पढ़ते हुए ही मैंने गद्य पर तैरती रागात्मकता की नाव देख ली, जो भाषा की नदी में बही चली जा रही है। यह प्रभाव कुछ ऐसा हुआ कि मैं बोल-बोल कर पढ़ने लगा और थोड़ी देर बाद रुक कर ख़ुद से पूछ बैठा कि क्या तुम कविता ऐसे ही पढ़ते हो। मेरे मन ने पूरी स्वीकृति में सिर हिला दिया। अब कविता, कहानी के नेपथ्य का हिस्सा है और मैं इस दृश्य-बंध का भावक। इस आप्लावन के दौरान मुझे वह वाक्य मिल गया कि “मुझे अजीब तरह से अच्छा लग रहा है कि मैंने किसी को बचाया”। ये कहानियाँ बहुत कुछ खोने के अँधेरे में किसी को बचाने की कहानियाँ ही हैं। इस कहानी में पिता का गुम होना हमारे पूर्वज और संचित सूझ का लापता होना है। संततियाँ उन्हें ढूँढ रही हैं। पिता की अधूरी कविता इस ओर इशारा है कि उसे पूरा किया जाना चाहिए। संततियाँ जब तक इस ज़िम्मेदारी को समझ रही हैं वे हताशाओं के बावजूद उम्मीद क़ायम रख रही हैं। पहली कहानी का एक किरदार जब यह कहता है “अब मरने की हिम्मत नहीं बची है” तब पाठक के तौर पर मैं देख पाता हूँ कि मरना विकल्प नहीं है। इतना ही नहीं आपको स्मृतिवान बने रहना होगा। याद करना कृतज्ञ होना है। यही निरंतरता है। यह कहानी ग़ायब शब्द को बड़ा अर्थ देती है—उसकी प्रतिगूँज, उसकी अनुगूँज, अनुतरंग बन जाती है जो दिमाग़ की नसें यूँ चटकाती हैं कि आप थोड़ी देर के लिए सुन्न हो जाते हैं और किताब बंद कर देते हैं और यूँ कहानियों के पाठ में यह सिलसिला ख़ुद को दुहराता रहता है।

कहानी में ख़ून, पानी और टॉर्च की रोशनी में डायरी हाथ लगती है—इसका विवरण करते हुए देवी प्रसाद मिश्र के सिद्ध हाथों का जादू देखते ही बनता है। आप रचना में डूबते हैं तो सफ़ोकेट भी होते हैं। उबरना मुश्किल ही होता है क्योंकि स्थितियाँ विपरीत और घेरने वाली हैं। लिखने की कला की बारीक़ियों के अपने अबूझ व्याकरण होते हैं जिसे देवी प्रसाद मिश्र ने एक दुर्वह यात्रा करके हासिल किया है। ऐसी यात्रा सबके बस में कहाँ। इन ध्वनित होती कहानियों में चीख़ों और अबोली हिचकियों में अंतर बरता गया है जो पाठक को स्पंदित करता है और साथ में स्तंभित भी। कह लेने दीजिए कि इन कहानियों को पढ़ते हुए आप की बेआवाज़ होने की फ़्रीक्वेंसी बढ़ जाएगी।

कथ्य के अनुसार शिल्प अगर बदल जाए, तो इसे लेखन में परिपक्वता ही कहा जा सकता है। ‘अन्य कहानियाँ और हेलमेट’ नाम की दूसरी कहानी की लेखनी में कटाक्ष और कल्पना का समन्वयन है। तब किरदार का सपना ही सिस्टम की धज्जियाँ उड़ाते हुए मिल जाएगा आपको। यह यूटोपिया के साथ गठबंधन का मामला है। बिंब यहाँ ऐसे चुपके से टिमटिमाते हैं, जैसे तारे हों और फिर देखते-देखते धवल चाँद बन जाते हैं, शफ़्फ़ाफ! बहुत दिलचस्प तरीक़े से मैं इस कहानी के एक टुकड़े को उद्धृत करता हूँ। 

“रेलगाड़ी में एक आदमी ने कहा कि मैंने गले में रात का एक टुकड़ा लपेट रखा है। मेरी जैकेट मिट्टी के रंग की थी लेकिन किसी ने नहीं कहा कि मैंने पृथ्वी को पहन रखा है। अगर कोई कहता तो मैं कहने की कोशिश करता कि मेरे पिता मेरी पृथ्वी थे और मैं उनकी तेरहवीं करके आ रहा हूँ”। 

बात कहने के इसी तरीक़े का ज़िक्र मैं ऊपर कर रहा था, जो सीधी न कही जाए और सीधे दिल पर लगे भी। एक जगह आगे लिखा है : “वह अमूमन ख़ून में लथपथ सैनिक की तरह चला करती थीं। कई बार जिन जगहों से माँ गुज़र गयी होती थीं, मैं उन जगहों को बहुत ध्यान से देखा करता था, ख़ून की कोई लकीर देखने के लिए। तब मुझे लगा कि ख़ून बाहर नहीं भीतर बहता रहता था।” कहन के इस क्राफ्ट को पाने के लिए लेखनी के जंगल का आरण्यक बनना पड़ता है। बिना भटके ऐसी प्राप्ति संभव कहाँ?

बहुत हौले से विट और कॉमिक स्टेटमेंट सटल कटाक्ष बनकर आता है—केरोसिन और क्रोसिन का प्रसंग ऐसा ही है। केरोसिन जलाने के काम आता है और क्रोसिन दर्द की दवा है। लेकिन कोई है जो क्रोसिन को केरोसिन कहती है। निहितार्थ यह है कि इस त्रासद दुनिया में दर्द की गोली भर से काम नहीं चल रहा। क्यों न इसे फूँक दिया जाए। साहिर कहते ही थे कि “ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है... जला दो इसे फूँक डालो ये दुनिया। मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया। जला दो। जला दो।”

इस एक कहानी में कितनी ही कहानियाँ हैं जैसे अन्य कहानियों से बनायी दरी हो। बल्कि कथरी कहें तो और बेहतर जिसमें कितनी ही कथाओं के पैबंद लगे हैं जिनका निर्वात और नीरवता पाठक की साँस रोके रखता है। अब क्या हो? तो सोचते हुए कुछ देर के लिए किताब के पन्ने बंद हो उठते हैं। पात्रों का टूटना पाठकों के टूटने से जुड़ जाता है। पात्र की दरारें पाठक की दरार बनने लगती है। पात्र की साँस रुकती है तो पाठक की भी। 

लेकिन जैसे एक बुरी दुनिया में लौटने का विकल्प नहीं है तो कहानियों की तरफ़ भी लौटना तो पड़ेगा जहाँ मृत्यु का बैगनीपन है और ख़ून की छोड़ती सुर्खी भी।

“उस दिन ओवरकोट को उसने नदी में इस तरह से जाते हुए देखा था कि जैसे एक आदमी आत्महत्या करने के लिए कूदा हो”। फिर आगे बढ़ते ही पढ़ने को मिलेगा “एक चिंतित सिर को एक हेलमेट ही बचा सकता है”।

है न ये बेचैन करने वाले विवरण एक बिगड़ती दुनिया के!

पढ़ते हुए कहीं-कहीं लगा कहानी की गाड़ी आगे निकली जा रही है और मैं उसे पकड़ने के लिए बेचैन दौड़े जा रहा हूँ। फिर थोड़ी देर बाद गाड़ी रुक जाती है, मेरे चढ़ने का इंतज़ार करते हुए। अब हम दोनों साथ-साथ सफ़र पर हैं। तब यह लगा कि कहानीकार के कहन का अंदाज़ अँधेरे के प्रभाव को प्रगाढ करता है न कि कोई आक्रांत करने वाली जादुई शैली ही बना रहता है। शिल्प का जादू अंतर्वस्तु को गुम नहीं करता। कहानी जादुई शिल्प में खोने का भ्रम देकर फिर मुझे अधिक तीव्र तरीक़े से मिलती रहती है। 

तीसरी कहानी ‘कोई है जो’ में आप खिरते हुए किरदार देखेंगे, जो देखते-देखते आपके सामने ही झरते हुए ओझल हो जाएँगे। “ग़ायब भी वह उसी तरह हुआ था—मुँह में सुरती की तरह”! लेकिन गायब होने के बावजूद मौजूदगी का बजना भी है।

‘कोई है जो’ के व्यक्तित्व को तलाशना अपनी पूर्णता को तलाशना है। मौजूदा स्थितियों में यह खोज पूरी नहीं हो सकती। इसीलिए यह कहानी मध्यवर्गीय, दुराशाओं, दिवास्वप्नों और हेल्युसिनेशन से भरी है। इसका वाचक नायक एक नई दिशा ढूँढ़ने निकला है जिसका मिलना दुष्कर होता जा रहा है। आदर्श है लेकिन उसे अपने जीवन में उतारना आसान नहीं है।

इन कहानियों में कोई-न-कोई किरदार कविताएँ या कहानियाँ लिखता मिला है। यह क्रम ‘भस्म’ कहानी में भी जारी है। यहाँ ज़िंदगी की किताब के हाशिए पर गोंच-गाँच कर लिखे किरदार हैं, कहानियों के बियाबान में वाक्यों के मध्य पड़े उप-वाक्यों की तड़प है और भाषा के अंदर छिपी भाषा के विचलन और न जिए जीवन को जीने की जिजीविषा पर पड़ती अठोस उल्काओं की बारिश भी।

“इस व्यवस्था में एक पतित का स्थानापन्न प्रायः दूसरा पतित होता है। विश्वास नहीं होता कि हमने गांधी को पैदा किया”।

‘भस्म’ कहानी को पढ़ते हुए यहाँ बहुत देर के लिए रुका। पंक्तियाँ आपको सोचने, मनन करने के लिए रोकें तो लगता है पढ़ना सफल हो गया। यह कहानी कविता और सत्य के भस्म होने की गाथा है। सोचता हूँ “कलयुग में कविता की हत्या होती है या हर कविता का अंत हत्या से हो रहा है”। इस युग सत्य को जानना हो तो भस्म की उड़ती राख में उसे पहचाना जाए। भस्म के धुएँ से निकलकर मैं ‘सुलेमान कहाँ है’ की तलाश में निकल पड़ा जो अगली कहानी है। 

खोने के बाद की उद्विग्नता आपको कैसे बेचैन करती है, इस कहानी को पढ़कर समझा जा सकता है। वसंत को बिना आँख के कैसे महसूस किया जा सकता है, यह कहानी का केंद्रीय रूपक है। आँख तो चाहिए ही। इस कहानी को ग्रामीण परिदृश्य में रचा गया है। रोशनी खोने की यह कहानी अपने कथा शिल्प में बाक़ी कहानियों से एक दम अलग है। यहाँ भाषा देशज है, सहज है और क़िस्सों की रोचकता से भरी है। कई शब्द ऐसे मिलेंगे, जिन्हें आप चुरा लेना चाहेंगे। इस कहानी की एक और ख़ास बात है—दर्द को दर्द की इंतिहा तक घसीटा नहीं गया है,  इंतिहा का एहसास भर कराया गया है। अचानक दृष्टिविहीन हो जाना किसी के संसार को कितना और कैसे उजाड़ बना सकता है उस दुख को यहाँ रचा गया है। लेकिन क्या यह देश के दृष्टिहीन होने का मेटाफर नहीं है? यह एक अलग ही शिल्प की कथा है जो लोककथा की महिमा से अपनी ताक़त लेती है। हकीम सुलेमान का रूपक किसी बड़े विकल्प को खोजने का रूपक-सा ही है। मिले या न मिले, खोज की बेचैनी महत्त्वपूर्ण है।

“अम्मा पृथ्वी पर पृथ्वी की बहन जैसी चलती-फिरती थीं। ...पिता को उस तरह देखती जैसे वह किसी पेड़ को देख रही हों। लेकिन फिर उन्हें यह भी लगता कि पेड़ सूखा है। वह जब भी पिता को पीतल के लोटे से पानी देतीं तो उन्हें लगता कि पेड़ फिर से हरा हो जाएगा।”

‘पिता के मामा के यहाँ’ कहानी पढ़ते हुए ऐसी पंक्तियाँ पठनीयता की पात्रता बढ़ा देती हैं। तब इस बात पर यकीन और हो जाता है कि सुंदर बिंब की शब्दावली सरल और सामान्य शब्दों से गुंथी ही हो सकती है। देवी जी सहजता और मौलिकता पर बहुत बारीक़ी से काम करते हैं। कहानियों का क्राफ़्ट कथा और किरदार के साथ अपना रंग ग्रहण करता है। लगता है ऐसा कैसे लिख देते हैं वह। सामान्य गँवई भाषा में विरल विराट कविता! कथावस्तु, उत्सुकता और जिज्ञासा का तत्त्व बरक़रार रखती है। पात्रों का चरित्र चित्रण और कहानियों की प्लॉटिंग इस तरह से करते हैं देवी प्रसाद, जैसे लट्टू पर रस्सी चढ़ाते हैं ताकि कहानी को पूरी घूर्णन गति मिल सके। यह जादू समझने के लिए आपको इन कहानियों से गुज़रना होगा। 

नए लेखकों को इस किताब में सीखने के लिए बहुत कुछ मिलेगा। कहानियों में अवध व्याप्त है जहाँ संस्कृति का संगीत तो है ही ,पितृसत्ता का भय भी वहाँ गहरा है। स्त्री की स्वतंत्रता की चाह वेदना ही नहीं ललकार में भी बदलती है। वर्जनाएँ हैं तो उनका संहार भी है और इस कहानी-संग्रह का मूल स्वर भी यही है।

देवी प्रसाद मिश्र का यह स्वर बना रहे, यही कामना है।

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