अजातशत्रु : आस्था के आगे मौत क्या चीज़ है!
रहमान
11 फरवरी 2025
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भारत रंग महोत्सव में के. के. रैना द्वारा निर्देशित और इला अरूण द्वारा अनूदित नाटक ‘अजातशत्रु’ की बेहतरीन प्रस्तुति हुई। यह नाटक का प्रभाव था या फिर के. के. रैना और इला अरूण के नाम का प्रभाव; प्रेक्षागृह में बैठे अधिकतर दर्शक 60-70 की उम्र के थे और सभी अंत तक बने रहे।
नाटक ‘अजातशत्रु’ नॉर्वे के प्रसिद्ध नाटककार, आधुनिक नाटक के जनक हेनरिक इब्सन के नाटक ‘एनिमि ऑफ़ द पीपुल’ का हिंदी रूपांतरण है, जिसे इला अरुण ने लिखा है। नाटक पर्यावरणीय आपदा, वायु और जल प्रदूषण की ज्वलंत समस्या पर केंद्रित है, जिसका सामना हम कर रहे हैं।
नाटक सामाजिक उत्तरदायित्व की कमी और लापरवाह व्यावसायिक हितों के ख़तरों पर प्रकाश डालता है, जो कुछ व्यापारिक और राजनीतिक वर्ग को केवल अपनी राजनीतिक, व्यावसायिक और वोट बैंक की राजनीति के लिए समस्या को छिपाने के लिए मजबूर करते हैं।
नाटक दो भाइयों के बीच संघर्ष के माध्यम से इस बड़ी समस्या से संबंधित सभी सवालों की खोज करता है और उन्हें संबोधित करता है। एक प्रबुद्ध डॉक्टर, जो अपनी चिकित्सा और सामाजिक ज़िम्मेदारी के प्रति सचेत है, लेकिन दुर्भाग्य से अल्पमत में है और दूसरा एक व्यवसायी और राजनीतिज्ञ, जिसे अज्ञानी शक्तिशाली बहुमत का समर्थन प्राप्त है।
हाल ही में अमेरिका के करोड़पति ब्रायन जॉनसन अपनी किताब ‘Don't Die’ के प्रचार के लिए भारत आए थे। इस दौरान निखिल कामत ने उन्हें अपने पॉडकास्ट में बुलाया था। जॉनसन मास्क और एयर प्यूरीफायर के साथ पॉडकास्ट में शामिल हुए थे, लेकिन ख़राब एयर क्वालिटी (AQI) की वजह से वह बीच में ही शो छोड़कर चले गए।
हिंदुस्तान के महानगरों से लेकर बिहार के एक छोटे से जिले तक में वायु प्रदूषण चरम पर है। गंगा और यमुना नदी की स्थिति से हम सब परिचित हैं। पेड़ों और पहाड़ों के लिए सैकड़ों लोग आंदोलन कर रहे हैं लेकिन हम सब संसार के बाक़ी लोगों से भिन्न हैं। दुनिया की बाक़ी आबादी को जीवित रहने के लिए चाहे जो चाहिए होगा, हमें केवल आस्था चाहिए। आस्था को सामने रख आप यहाँ जो मन में आए वो कर सकते हैं। लोग श्रद्धा से शीश झुकाकर आपकी जय कहेंगे। इसलिए हमारे यहाँ मौसम अथवा अन्य वैज्ञानिकों की जगह बाबाओं की संख्या अधिक है।
हमारे यहाँ व्यवस्था में भ्रष्टाचार नहीं है बल्कि भ्रष्टाचार सुचारू रूप से चलता रहे इसके लिए एक व्यवस्था के ढांचे का निर्माण किया गया है। हम सब हाथीराम चौधरी की भांति हैं, जिसे हर सत्य का पता है लेकिन कुत्ते को आइसक्रीम खिलाने के अलावा वह और कुछ नहीं कर सकता है।
साधारण सेट पर जब एक परिपक्व अभिनेता खड़ा होकर संवाद बोलता है तो आप उसकी संवाद अदायगी से एक संसार देखते हैं। ‘अजातशत्रु’ के अभिनेताओं ने अपने दक्ष अभिनय क्षमता से मंच पर एक संपूर्ण संसार को रचा। जिसमें हर प्रकार के लोग हैं। जिन्हें हम अपनी आम ज़िंदगी में भी देखते रहते हैं। हालाँकि नाटक अपने शुरुआत में सुर पकड़ने के लिए संघर्ष करता है लेकिन प्रकाशक की भूमिका निभा रहे अभिनेता चंदन कुमार जब मंच पर आते हैं तो अचानक ही मंच सहित प्रेक्षागृह में एक हलचल होती है। वह अपने किरदार की खोल में ही नहीं थे लेकिन स्वयं किसी बड़े अख़बार के प्रकाशक लग रहे थे। एक अभिनेता यदि मंच पर तब भी दिखे जब उसके पास संवाद अथवा कुछ अधिक करने को नहीं है तो यकीनन उस अभिनेता ने अपने अभिनय को बहुत समय देकर साधा है। चंदन कुमार का मंच पर होना नाटक के सुर का सबसे ऊँचा सुर था।
अजातशत्रु एवं मालती का किरदार निभा रहे अभिनेता अपने किरदारों में बने हुए थे। वो नाटक में और उनके जैसे लोग हमारे समाज की धड़कन हैं। जिनकी वजह से इस दुनिया में थोड़ी उम्मीद की आस बची हुई है। अपराजिता का किरदार निभा रही लड़की अद्भुत थी। उसके अतिरिक्त प्रजापति अख़बार वाले और बाकी सभी अभिनेता इकट्ठे मिलकर एक दमदार प्रस्तुति में सहायक बने।
नाटक अपने मध्य से लेकर अंत तक हर तीन मिनट में एक सवाल खड़ा करता है। लेकिन हम उसे स्वीकार नहीं कर पाते हैं। हमें अपनी अपनी आस्था के प्रति थोड़े और उदारवादी होने की कोशिश करनी चाहिए। आस्था के नाम पर मृत्यु हमें सहज करने लगी है। हमें स्वयं का अवलोकन करना चाहिए कि कहीं हम संवेदना विहीन तो नहीं हो रहे हैं। अजातशत्रु के हाथों में पानी के विषाक्त होने की रिपोर्ट है, जिसे वो प्रजापति अख़बार के माध्यम से लोगों तक पहुँचाना चाहता था ताकि लोग आस्था के नाम पर अपनी जान को ख़तरे में ना डाले। लेकिन उसे कहाँ पता था कि वो अंधों की नगरी में सुरमा बेचने निकला है। पानी से अधिक विषाक्त लोग मिलकर अजातशत्रु को जनशत्रु बनाकर उसकी जीवन लीला समाप्त कर देते हैं।
नाटक के अंतिम दृश्य में के. के. रैना और इला अरूण भी मंच पर बतौर अभिनेता नज़र आए। जिसमें इस विषय पर चर्चा होती है कि सारी सच्चाई के सामने आ जाने के बावजूद आगे की परियोजना क्या होनी चाहिए? वो एक दृश्य नाटक का सार और हमारे लिए एक दर्पण है, जिसमें हम सबको अपने चेहरे के मुँहासे एक बार देख लेना चाहिए। के. के. रैना के निर्देशन कौशल की तारीफ़ में क्या ही कहा जा सकता है। वह ख़ुद एक मुस्लिम बुज़ुर्ग अनवर के किरदार में मंच पर अभिनय कर रहे थे। महज़ पाँच मिनट के दृश्य और चंद संवाद में ही हमें झकझोर कर चले गए। नाटक अजातशत्रु कल भी प्रासंगिक था और आज भी है। लेकिन हमें मिलकर ये प्रयास करना चाहिए कि यह आगे भी प्रासंगिक ना हो। हम सब एक बेहतर, साफ़ और सुंदर संसार के निर्माण में अपने हिस्से की भागीदारी निभाएँगे।
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भारत रंग महोत्सव में, बहुमुख सभागार में अदर थिएटर भोपाल के कलाकारों द्वारा नाटक ‘घर के भीतर’ की भावनात्मक रूप से झकझोर देने वाली प्रस्तुति हुई। नाट्यलेख और निर्देशन अक्षित मरवाहा ने किया था। उन्हें इस नाटक को लिखने और निर्देशित करने के लिए भरपूर सराहना मिलनी चाहिए।
‘घर के भीतर’ उत्तर भारत को केंद्र में रखते हुए नियोजित एवं विचारोत्तेजक, प्रयोगात्मक रंग प्रस्तुति है। बंद दरवाज़ों के पीछे धधका देने वाले संघर्षों, आकांक्षाओं और गतिशीलता की खोज करते हुए यह नाटक एक पारंपरिक भारतीय घराने के जीवन की गहन पड़ताल करता है।
नाटक इस बात की जाँच करता है कि रूढ़िवादी समाज में महिलाओं के जीवन को कितनी गहराई से प्रभावित किया गया है। यह अदृश्य लेकिन थक के चूर श्रमिक महिलाओं के अपने घरों की सीमाओं के भीतर योगदान की पड़ताल करता है। नाटक प्रतिबिंब और सूक्ष्म हास्य के क्षणों के साथ भावनात्मक क्षणों को प्रदर्शित करने के लिए यथार्थवाद का उपयोग करता है। पात्रों के जीवन की जटिलताओं को प्रतिध्वनित करती हुई मनोदशा-तनाव और सशक्तिकरण के बीच दोलन करती है।
‘घर के भीतर’ नाटक एक घंटे में स्पष्ट रूप से वह सब दिखाता है जो हर रोज़ हम सब के घर के भीतर घट रहा है, जिसपर कभी हमारा ध्यान नहीं जाता अथवा हम अपना ध्यान उस ओर नहीं ले जाना चाहते।
बहुमुख सभागार के मध्य में ईट और सामान्य चीज़ों की मदद से घर का सेट प्रतीकात्मक रूप से बहुत ही सुंदर बनाया गया था। नाटक में नाटकीयता तो होती ही है, लेकिन यह नाटक यथार्थ के इतने क़रीब है कि देखते हुए आप भूल जाते हैं कि नाटक देख रहे हैं या सच में यह सब हो रहा है। नाटक में सचमुच का खाना, पानी, चाय और बाक़ी चीज़ें परोसी जाती है।
‘घर के भीतर’ की नायिका काव्या का किरदार स्वाति निभाया है। काव्या को गुरूदत की फ़िल्मों और पुराने गीतों का बहुत शौक़ है, लेकिन घर के काम, पति से बेमन मोहब्बत, ससुर और ननद की सेवा के बीच गुनगुनाने का समय ही नहीं मिलता। जब सब लोग आराम करते हैं, उसके हिस्से तब भी काम होता है।
लेखक और निर्देशक अक्षित मरवाहा ने अभिनेताओं को एक मौलिक सूत्र में बाँधकर मंच पर अभिनय करने भेज दिया, जिसे अभिनेताओं ने बड़े ही सहजता से निभाया। इसलिए नाटक अपने अंत में नाटक नहीं बल्कि एक संपूर्ण अनदेखे सत्य की भांति उभर कर आता है। सभी अभिनेताओं सहित काव्या बनी स्वाति की सर्वाधिक सराहना होनी चाहिए। उनका अभिनय आपको अपनी घर की औरतों को एक नई दृष्टि से देखने के लिए झकझोरता है।
‘घर के भीतर’ नाटक जब भी अवसर मिले ज़रूर देखिएगा और ग़ौर कीजिएगा कि स्वयं के घर के भीतर कहीं ऐसा कुछ ना हो रहा हो।
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भारत रंग महोत्सव में, अभिमंच सभागार में, एलिस बर्च द्वारा लिखित और ऋतुरेखा नाथ द्वारा निर्देशित नाटक ‘अनैटमी ऑफ़ ए सुसाइड’ की राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक छात्रों द्वारा अभूतपूर्व प्रस्तुति हुई।
‘अनैटमी ऑफ़ ए सुसाइड’ एक परिवार के भीतर मानसिक रोग और आत्महत्या के अंतःपीढ़ीय प्रभाव की एक सम्मोहक और भावनात्मक रूप से उत्प्रेरित पड़ताल है, जिसमें तीन महिलाओं—कैरोल, एना और बोनी का जीवन को केंद्र में है; जो तीन पीढ़ियों तक फैले मानसिक स्वास्थ्य, पारिवारिक बंधन और विरासत में मिले मानसिक आघात की जटिलताओं से जूझ रही हैं।
कैरोल, 1970 के दशक में, मातृत्व की चुनौतियों से जूझते हुए अपने भीतर के राक्षसों से भिड़ती है। एना, वर्तमान समय में उनकी बेटी, अपने परिवार के इतिहास के बोझ द्वारा पीछा किए जाने से त्रस्त है। निकट भविष्य में, एना की बेटी बोनी, अपने परिवार के अतीत को परिभाषित करने वाली, पीड़ा और कष्टों को तोड़ने का प्रयास करते हुए, मानसिक आघात की अपनी विरासत में मिली वंश परंपरा का सामना करती है।
एलिस बर्च का उत्कृष्ट लेखन हताशा के बावजूद मानसिक स्वास्थ्य, आघात, लचीलापन और अर्थ की सतत् खोज के सूक्ष्म अर्थ भेदों की गहन छानबीन करता है। अपनी कच्ची भावनात्मक गहराई और मार्मिक कहानी कहने की कला के साथ, नाटक दर्शकों को मानसिक स्वास्थ्य, परिवार और साझा मानव अनुभव पर विचार करने के लिए आमंत्रित करता है।
मंच के मध्य में प्रतीकात्मक रूप में एक बड़े से गोल प्लेटफ़ॉर्म पर तीन अलग-अलग घरों का निर्माण किया हुआ है। तीनों घरों को बीच की दीवार एक दूसरे से जोड़ती है। सेट को यदि ध्यान से देखा जाए तो वो अकेले ही कथासार कह रहा है। जिसमें एक साथ तीन अलग-अलग ख़ाने में तीन अलग समय की ज़िंदगियाँ एक साथ संचालित हो रही है। तीनों की कहानियों में एक बात समान है कि तीनों जीवन मानसिक और भावनात्मक रूप से परेशान है।
नाटक अपनी आधी यात्रा के बाद समझ आना शुरू होता है। इसे एक काव्यात्मक प्रस्तुति कहना मुनासिब होगा। हम जैसे एक संगीत को सुनते हुए, उसके बोल सहित एक साथ कई वाद्ययंत्रों की ध्वनि का आनंद लेते हैं, और एक वाद्ययंत्र की आवाज़ दूसरे के साथ मिलकर एक अलग ही जादू-सा रचती है। ‘अनैटमी ऑफ़ ए सुसाइड’ नाटक में कलाकारों ने उसी जादू को बार-बार घटित होने दिया। पहली दृष्टि में ऐसा लगता है कि तीन ख़ानों में तीन भिन्न नाट्य प्रस्तुति चल रही है। आपका ध्यान किसी एक जगह नहीं ठहरता। लेकिन नाटक के अंत में आपको एहसास होता है कि ये सारे दृश्य वाद्ययंत्र थे, जो मिलकर एक संगीत रच रहे थे।
निर्देशक ऋतुरेखा नाथ सहित सभी कलाकारों का काम अद्भुत था। अंततः प्रस्तुति अपने मकसद में कामयाब होती है। मानसिक बीमारी पूरी तरह से आनुवंशिक नहीं होती, लेकिन इसमें आनुवंशिक कारक ज़रूर होते हैं। यदि एक पीढ़ी की ट्रॉमा को दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित ना किया जाए तो संभव है कि दूसरी और उसकी आने वाली पीढ़ी के चेहरे पर चौड़ी मुस्कान की चमक रहेगी। संसार में दुःख और सुख, हँसी और उदासी समान मात्रा में मौजूद है, जो हर व्यक्ति को किसी-न-किसी रूप में मिलता है। लेकिन ये हमारा चुनाव होता है कि हम अपने से मिलने वालों तक क्या पहुँचाएँ—हँसी अथवा उदासी?
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भारत रंग महोत्सव में, बहुमुख सभागार में सारा अबूबकर की कहानियों पर आधारित, श्रुति वी. द्वारा निर्देशित और विशाला आर. महाले द्वारा अनूदित नाटक ‘ऑन द सरफ़ेस’ की राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक छात्रों द्वारा मार्मिक प्रस्तुति हुई।
सारा अबुबक़र की दो महत्त्वपूर्ण कहानियों ‘युद्ध’ और ‘है राम’ पर आधारित, नाटक ‘ऑन द सरफ़ेस’ एक प्रयोग है। जो युद्ध की वास्तविकताओं और अत्याचारों को उजागर करता है। जो पुरुषों, महिलाओं और, सबसे महत्त्वपूर्ण बच्चों को प्रभावित करते हैं।
यह एक मानव की कोमल प्रकृति की एक जटिल तस्वीर बुनता है और अगर अनियंत्रित हो जाता है, तो वही मानव निंदनीय बन सकता है। नाटक भावनाओं, छवियों और कथन की भूलभुलैया के माध्यम से संचालित करता है ताकि हम अपने हिस्से पर कैसे और क्या कर सकते हैं? इस सरल प्रश्न को सामने लाया जा सके...
मंच के ठीक आगे के हिस्से में मिट्टियों का ढेर है, जो कभी एक गाँव हुआ करता था। जिसमें एक साथ हिन्दू और मुसलमान दोनों मिलकर रहते थे। एक दूसरे के सुख–दुःख के सहभागी एक साथ मिट्टी हो गए। प्रतीकात्मक रूप से बनाया हुआ गाँव जब उभरकर सामने आता है, तो आपकी आँखें नम हो जाती है।
मंच के आख़िर की दीवार पर प्रोजेक्टर के माध्यम से कई दृश्य उभर कर आते हैं। जिसका कथानक से सीधा जुड़ाव है। और महज़ वह दृश्य आपको कुरेदने और प्रश्नों से भरने के लिए काफ़ी है। नाटक के अंत में एक दृश्य दिखाया जाता है जिसमें दोनों तरफ़ से समझौते के हाथ, युद्ध-विराम के लिए एक दूसरे को थामते हैं। दोनों तरफ़ की हाथों से एक-एक लाश निकलकर बीच में जमा होकर लाशों का एक ढेर बन जाता है। वह एक दृश्य मौन रूप से यह बताने के लिए काफ़ी है कि इस समझौते तक पहुँचने के पूर्व कितने गाँव मिट्टी में तब्दील हो चुके हैं।
नाटक में कई ऐसे दृश्य हैं, जो युद्ध की विभीषिका, उससे उत्पन्न हुए परिणाम को सांकेतिक रूप से दिखाता है। एक कोमल गुलाब का निर्दयता पूर्वक कुचला जाना, हमें असहज कर सकता है, रोज़ाना देश और दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में दंगों और युद्धों में अनगिनत फूल-सी कोमल त्वचा वाले बच्चे कुचले जाते हैं। यह हमें क्यों असहज नहीं करता? हमारी बेचैनी युद्धों और नरसंहारों से क्यों बेचैन नहीं होती?
नाटक में शुरू से लेकर आख़िर तक एक लड़की मंच के अलग-अलग हिस्सों में चित्रकारी करती है। उस लड़की का किरदार अनीता निभा रही थी। उन्होंने पूरे नाटक में एक भी संवाद नहीं बोला लेकिन उनकी चुप्पी एक शोर की तरह हमारे साथ रह जाती है। अंत में मलबों को हटाकर अपनी आख़िरी चित्रकारी पर, जो उसकी ख़ुद की तस्वीर है, सहमी हुई आँखें और चॉक के कुछ टुकड़ों संग सो जाती है। आँखें सूख चुकी है, उसमें डर, प्रेम, उम्मीद, हँसी और सपने दिखाई नहीं देते। आँखों का ऐसा होना भयावह है।
युद्ध में सिवाय सूखी आँखों के कुछ हासिल नहीं होता है। महाभारत से लेकर संसार के सभी युद्धों का परिणाम उसे झेलने वाले लोगों की आँखों में देखा जा सकता है। नाटक अपने शुरुआत से लेकर अंत तक बड़े ही सहजता से आपके भीतर उतरता है और अंत में आपसे पूछता है, यह कब तक जारी रहेगा? निर्देशक श्रुति वी. सहित सभी कलाकारों ने सचमुच बेहद संवेदनशील अभिनय किया।
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बेला पॉपुलर
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