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रसिक अली

- 1852 | पोरबंदर, गुजरात

रसिक अली के दोहे

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बसै अवध मिथिलाथवा, त्यागि सकल जिस आस।

मिलिहैं सिय रघुनंद मोहिं, अस करि दृढ़ विश्वास॥

दास दासि अरु सखि सखा, इनमें निज रुचि एक।

नातो करि सिय राम सों, सेवै भाव विवेक॥

नाम गाम में रुचि सदा, यह नव लक्षण होइ।

सिय रघुनंदन मिलन को, अधिकारी लखु सोइ॥

होरी रास हिंडोलना, महलन अरु शिकार।

इन्ह लीलन की भावना, करे निज भावनुसार॥

संजन सफरी से चपल, अनियारे युग बान।

जनु युवती एती हतन, भौंह चाप संधान॥

ज्ञान योग आश्रय करत, त्यागि के भक्ति उदार।

बालिस छाँह बबूर की, बैठत तजि सहकार॥

तीनों बुध कहत हैं, श्रद्धा के अनुभाव।

श्रद्धा संपति होय घर, तब बस्तु की चाव॥

ललित कसन कटि वसन की, ललित तलटकनी चाल।

ललित धनुष करसर धरनि, ललिताई निधिलाल॥

सीस नवै सियराम को, जीह जपै सियराम।

हृदय ध्यान सियराम को, नहीं और सन काम॥

ज्ञानी योगिन करत संग, ये तजि रसिकन संग।

सूख गर्त्त सेवन करत, शठ तजि पावन गंग॥

दरश परस में सुख बढ़े, बिनु दरशन दुख भूरि।

यह रुचिकै अनुभाव सखि, करै रघुबर दूरि॥

जामे प्रीति लगाइये, लखि कछु तिही विपरीत।

जिय अभाव आवै नहीं, सो निष्ठा की रीति॥

ललिताई रघुनंद की, सो आलंब विभाव।

ललित रसाश्रित जनन को, मिलन सदा मनुचाव॥

पूजे नहिं बहु देवता, विधि निषेध नहिं कर्म।

सरन भरोसो एक दृढ़, यह सरनागति धर्म॥

पुनि सोइ रसिकन संग, करि लहै यथारथ ज्ञान।

नातो सिय रघुनंद सौ, निज स्वरूप पहिचान॥

नारि मोह लखि पुरुष बर, पुरुष मोह लखि नारि।

तहाँ अनहोनी कछू, कवि बुध कहत बिचारि॥

मृगी ज्यों सब ठगी नागरि, रहि विरह तन घेरि।

मिलन चाहति लाल अंक, निसंक हारी हेरि॥

पुनि अनर्थकर त्याग सब, यह लक्षण उर आनु।

प्रथमहि साधन भक्ति के, ता करि भाव बखानु॥

अद्भुत रूप निहारि कै, सब जिय होत सुमोह।

विषतन प्यावत पूतना, नेक ल्याई छोह॥

प्रकृति अरु सब तत्त्व तें, भिन्न जीव निज रूप।

सो प्रभु सों नातो बिसरी, पर्यो मोह तम कूप॥

ललित लीला लाल सिय की, त्रिगुन माया पार।

पुरुष तहँ पहुँचे नहीं, केवल अली अधिकार॥

सोगति दंडक बिपिन मुनि, भइ रघुबरहि निकारि।

याते अद्भुत रूप श्री, रामहि को निरधारि॥

सो पुनि त्रिधा बखानिये, साधन भावरु प्रेम।

साधन सोई जानिये, यामें बहुविधि नेम॥

श्रद्धा अरु बिश्रंभ पुनि, निज सजाति कर संग।

भजन प्रक्रिया धारना, निष्ठा रुचि अभंग॥

यह लक्षण अनुराग के, अनुरागी उर जान।

ताको करि सतसंग पुनि, अपनेहुँ उर आन॥

अनहोनी सोइ जानिये, पुरुष रूप निधि देखि।

मोहय पुरुष वधुत्व करि, अद्भुतता सोइ लेखि॥

होनी होनी होइ तहँ, अद्भुतता नहिं जान।

अनहोनी तहँ होइ कछु, अद्भुत क्रिया बखान॥

क्रियारंभ के प्रथम हीं, उपजे उर आनंद।

क्रिया विषै दुख सहनता, फसै आलस फंद॥

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