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देवीशंकर अवस्थी

1930 - 1966 | उन्नाव, उत्तर प्रदेश

सुप्रसिद्ध आलोचक, रंग-समीक्षक और गद्यकार। उनकी स्मृति में ‘देवीशंकर अवस्थी स्मृति सम्मान’ प्रदान किया जाता है।

सुप्रसिद्ध आलोचक, रंग-समीक्षक और गद्यकार। उनकी स्मृति में ‘देवीशंकर अवस्थी स्मृति सम्मान’ प्रदान किया जाता है।

देवीशंकर अवस्थी के उद्धरण

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कविता तुलना से बनती है।

आज भी कविता और गद्य की भाषा का अंतर भावावेश की भाषा का अंत है।

ख्याति मिलने की कुंठा भीतर-भीतर विरोधी बना देती है।

समकालीनता-बोध से रहित आलोचना को आलोचना नहीं कहा जा सकता—शोध, पांडित्य या कुछ और भले ही कह दिया जाए।

कला की आत्मा है सौंदर्यानुभूति।

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अनुभूति की अभिव्यक्ति ही कला का रूप धारण करती है।

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युग चेतना की अभिव्यक्ति के लिए अपना एक छंद चाहिए।

वास्तविक कला कभी अशिव नहीं होती।

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जीनियस की प्रशंसा नहीं होती। या तो उसकी निंदा होती है या फिर applause होता है। प्रशंसा (Praise) सदैव ‘मीडियाकर’ की होती है। मसलन यह बहुत अच्छा पढ़ाता है, या उसका स्वभाव बहुत अच्छा है या वह बड़ा सज्जन है। ये सारे शब्द और विशेषण ‘मीडियाकर’ के पर्याय हैं।

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वास्तव में श्रेष्ठ साहित्य की रचना परंपरा के भीतर युग के यथार्थ को समेट लेती है।

जब एक सही पंक्ति बन जाती है तो उसमें परिवर्तन संभव नहीं।

आलोचना का प्राथमिक दायित्व नवलेखन के प्रति ही है।

कला का मूल उत्स आनंद है।

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कला सुनीतिमूलक है और दुर्नीतिमूलक।

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कला-सृष्टि जीवन की सार्थकता है। जीवन से उसे अलग देखना अपराध है।

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जीवन की व्याख्या ही नहीं करनी पड़ती है, बल्कि जीवित रहने की प्रक्रिया भी खोजनी पड़ती है।

कला मनुष्यत्व का चरम उत्कर्ष है।

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जो चिरंतन है, वही ग्राह्य है।

शाश्वत सत्य का समावेश ही काव्य और कला को स्थायित्व प्रदान करता है।

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