रामचरणदास के दोहे
राम चरन मदिरादि मद, रहत घरी दुइ जाम।
बिरह अनल उतरै नहीं, जब लगि मिलहिं न राम॥
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राम चरन रबिमनि श्रवत, निरषि बिरहिनी पीव।
अग्नि निरषि जिमि घृत द्रवत, राम रूप लखि जीव॥
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राम चरन दुख मिटत है, ज्यों विरही अतिहीर।
राम बिरह सर हिय लगे, तन भरि कसकत पीर॥
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प्रेम सराहिये मीन को, बिछुरत प्रीतम नीर।
राम चरण तलफत मरे, तिमी जिय बिन रघुवीर॥
कब नैननि भरि देखिहौं, राम रूप प्रति अंग।
राम चरन जिमि दीप छबि, लखि मरि जात पतंग॥
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राम चरन कब तब गुनन, मनन करिहि मन रोक।
जिमि कामिनी मनहि मन, त्यागि लोक परलोक॥
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बुधि निश्चै तब जानिये, राम चरन दृढ़ होइ।
यथा सती पिय संग दै, जगत नेह सब खोई॥
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कब रसना रामहि रटहि, जथा कूररि बिहंग।
राम चरन चातक रटत, बारह मास अभंग॥
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तुमही लगावहु तब लगे, मम सूरत रघुनाथ।
राम चरण कठ पूतरी, नचै सूत्रधर हाथ॥
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परम पुरुष दशरथ सुवन, चरित अमित श्रुतिसार।
रामायण यक अक्षरो, कहत नास संसार॥
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राम चरन बिरही त्रिधा, मोर चकोर सुमीन।
सुनि यक लखि यक लीन यक, निज-निज प्रेमहिं पीन॥
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कब होइहि संजोग अस, दीप रूप प्रभु तोर।
राम चरन देखत मरहि, मन पतंग होइ मोर॥
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सुत कलत्र धन धाम तन, मान सुजस जगबंध।
रामचरण यह सात में, करहिं ते अंध॥
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जथा जतन बिनु लगत मन, तिय सुत तन धनधाम।
राम चरन यहि भाँति मन, कब लागिहि पद राम॥
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राम चरन गुरु एक ते, बहु गुन जाने जाइ।
जथा एक फल चाखिये, पेड़ भरे रस पाइ॥
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सब कहँ फूल बसत सुख, अगिन लूक सम सोहि।
सकल सुजोग कुयोग भव, रामलला बिन तोहि॥
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere