'झीनी बीनी चदरिया' का बनारस
विभांशु कल्ला
23 अप्रैल 2024

एक शहर में कितने शहर होते हैं, और उन कितने शहरों की कितनी कहानियाँ? वाराणसी, बनारस या काशी की लोकप्रिय छवि विश्वनाथ मंदिर, प्राचीन गुरुकुल शिक्षा के पुनरुत्थान स्वरूप बनाया गया बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, गंगा और उसके घाटों के सहारे उकेरी जाती है। इस छवि का विस्तार करते हुए जब इसमें कबीर और बिस्मिल्ला ख़ाँ को जोड़ा जाता है तो धार्मिक काशी कुछ-कुछ बहुलतावादी बनारस में तब्दील हो जाती है। इन्हीं सबके चलते बनारस को भारत की सांस्कृतिक राजधानी की तरह पहचाना जाता रहा है, हालाँकि इन्हीं दिनों अयोध्या के तौर पर इस ख़िताब का एक नया प्रतिद्वंद्वी उभर रहा है, कुछ लोगों ने अयोध्या को भी सांस्कृतिक राजधानी कहना शुरू कर दिया है।
अनौपचारिक उपाधियों की यही विशेषता है; उसे बनने, बिगड़ने और बदलने में लंबा समय लगता है; एक ही सरकारी आदेश द्वारा इलाहाबाद से प्रयागराज बन जाने जैसी सुविधा यहाँ उपलब्ध नहीं है। बनारस की लोकप्रिय सांस्कृतिक छवि के इतर भी यहाँ लोगों का जीवन है, उनका अपना बनारस है। ‘मसान’ और ‘चिल्ड्रन ऑफ़ पायर’ जैसी फ़िल्मों ने पहले भी बनारस के हाशिए के समाज (अंतिम संस्कार करवाने वाली डोम जाती) को केंद्र में रखते हुए फ़िल्म बनाई है। इसी कड़ी में निर्देशक रितेश शर्मा की फ़िल्म 'झीनी बीनी चदरिया' दो अलग बनारस खोजती है।
बनारस के एक घाट पर राजस्थान के लोक संगीतकार मूरालाल और उनके साथी तंदूरे, अल्गोजे और तगारी के साथ कबीर भजन की धुन बजा रहे हैं, देशी-विदेशी पर्यटक उस पर थिरक रहे हैं, इस घाट से थोड़ा दूर किसी और घाट पर एक शांत जुलाहा अपने ‘दिन का देहांत’ कर चुका है और बीड़ी पीते हुए शांत गंगा को कुछ और शांति बटोर लेने की उम्मीद से देख रहा है। जुलाहा जो बनारस की एक और पहचान बनारसी साड़ी का कारीगर है, कई दिनों से घर की बुढ़िया जिसके साथ वह रहता आया है उसकी दवा ख़रीदने को टाल रहा है; क्योंकि दलाल उसका मेहनताना टालता जा रहा है। कुछ देर पहले मूरालाल से कबीर को सुनती विदेशी पर्यटक जुलाहे के पास पहुँचती है। बीड़ी और आग के आदान-प्रदान से शादाब और अदा का परिचय होता है, शादाब और अदा के बीच वार्तालाप की मुश्किलें एक उभयनिष्ठ भाषा की अनुपस्थिति तक सीमित नहीं हैं, दो सांस्कृतिक परिवेशों के दो मुख़्तलिफ़ इंसानों के बीच होने वाली अजनबियत भी बीच में खड़ी है।
जिज्ञासु अदा के ज़रिए हम शादाब को, और शादाब के ज़रिए बनारस के जुलाहों के जीवन को और क़रीब से जान पाते हैं, जैसे हाथ-करघे से एक बनारसी साड़ी बनने में तीन लोगों की पंद्रह दिनों की मेहनत लगती है, जबकि पावरलूम यह काम तीन घंटों में करता है। बनारस के जुलाहा औरतें साड़ियाँ नहीं पहनतीं, जुलाहे बनाई हुई साड़ियाँ ‘गिरस्ता’ को बेचते हैं और वे आगे। मालूम चलता है शादाब यतीम है, उसके माँ-बाप बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हुए दंगों में मारे गए। शादाब की मुस्लिम पहचान उसे एक मौक़े पर तिरस्कार का आसान शिकार बना देती है तो वहीं एक इज़रायली यहूदी महिला से उसकी दोस्ती के कारण भी घर-परिवार के भीतर उस पर सवाल उठते हैं।
जिस तरह रानी का कोई सीधा संबंध शादाब से नहीं है, उसी प्रकार ‘आर्केस्ट्रा’ का भी कोई संबंध वाराणसी के ‘सांस्कृतिक वैभव’ से नहीं बिठाया जा सकता। रानी आर्केस्ट्रा में डांसर है, स्टेज पर सेड्युसिंग डांस करके वो अपना जीवनयापन करती है। रानी की एक मूक-बधिर बेटी है—पिंकी। हर इंसान की तरह रानी की चाहत मुफ़लिसी की गिरफ़्त से बाहर निकल, सुरक्षित जीवन जीने की है, उसका एक दीवाना आशिक भी है, जो रानी के साथ अपने भविष्य की कल्पना करता है। रानी अपनी बेटी को शिक्षित बनाना चाहती है, कम से कम इतना शिक्षित कि पिंकी को आर्केस्ट्रा में डांसर न बनना पड़े। पिंकी को ‘बड़े स्कूल’ में दाख़िला दिलवाने के लिए वो कई तरह के समझौते करती है, उनमें से एक शिव शंकर तिवारी के साथ रिश्ता जोड़ना भी है। रानी जिन हालातों में है उन्हें देखकर ‘कसेंट’, ‘एजेंसी’ और ‘बाउन्ड्री’ जैसे शब्दों और मुक्त यौन व्यवहार के विचार की सीमा दिखलाई पड़ती है। शक्ति और संपत्ति की असमानता वाले समाज में जहाँ किसी स्त्री को सैकड़ों मर्दों के सामने ‘कामुक’ डांस करके अपना जीवनयापन करना पड़े तो क्या वह पेशे के इतर जीवन के दूसरे पहलुओं में गरिमा स्थापित कर सकती है?
दोनों कहानियाँ समानांतर तौर पर आगे बढ़ती हैं जिनमें अपहरण, बलात्कार और सांप्रदायिक दंगा शामिल है। यहाँ रुककर साल 2007 में आई फ़िल्म ‘धर्म’ की चर्चा ज़रूरी है, धर्म भी बनारस शहर के सांप्रदायिक दंगों पर आधारित है। लेकिन वहाँ फ़िल्म धार्मिक हिंदू और सांप्रदायिक हिंदू के बीच एक बाइनरी खड़ी करते हुए, हिंदुओं को सांप्रदायिक राजनीति में शामिल न होने के धार्मिक-नैतिक कारणों की वकालत करती है। इसके उलट ‘झीनी बीनी चदरिया’ सांप्रदायिक हिंसा के एक पीड़ित पक्ष की कहानी कहती है।
इस फ़िल्म के आख़िरी छोर पर शादाब बिना टोपी और दाढ़ी के दिखलाई पड़ता है तो रानी की बेटी पिंकी डांस सीखते हुए। फ़िल्म में कई सारी सांकेतिक छवियों का प्रयोग है, लेकिन बिना टोपी के शादाब ‘मुस्लिम अदृश्यीकरण’ की राजनीति को, और पिंकी का डांस सीखना पीढ़ी दर पीढ़ी सुरक्षित और गरिमापूर्ण जीवन की पहुँच से बाहर होने को रेखांकित करता है। इन दोनों कहानियों के इतर भी फ़िल्म ने हमारे समय के राजनीतिक संकट को भी दस्तावेज़ करने की कोशिश की है, टीवी पर चलता रवीश कुमार का प्राइम टाइम, बैकग्राउंड से आते ‘हम मोदी जी को लाने वाले हैं’ के नारे, नफ़रत भरी रैलियाँ और बनारस को क्योटो में तब्दील करने के लिए तोड़े जा रहे मंदिर और मकान। इस प्रकार निर्देशक रितेश शर्मा ‘झीनी बीनी चदरिया' के ज़रिए हमारे समय की निराशा और बेबसी को दर्ज करते है, कई बार लगता है हमारे पास दर्ज करते रहने के अलावा बहुत अधिक विकल्प भी नहीं खुले हैं।
संबंधित विषय
'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए
कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें
आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद
हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे
बेला पॉपुलर
सबसे ज़्यादा पढ़े और पसंद किए गए पोस्ट
07 अगस्त 2025
अंतिम शय्या पर रवींद्रनाथ
श्रावण-मास! बारिश की झरझर में मानो मन का रुदन मिला हो। शाल-पत्तों के बीच से टपक रही हैं—आकाश-अश्रुओं की बूँदें। उनका मन उदास है। शरीर धीरे-धीरे कमज़ोर होता जा रहा है। शांतिनिकेतन का शांत वातावरण अशांत
10 अगस्त 2025
क़ाहिरा का शहरज़ाद : नजीब महफ़ूज़
Husayn remarked ironically, “A nation whose most notable manifestations are tombs and corpses!” Pointing to one of the pyramids, he continued: “Look at all that wasted effort.” Kamal replied enthusi
08 अगस्त 2025
धड़क 2 : ‘यह पुराना कंटेंट है... अब ऐसा कहाँ होता है?’
यह वाक्य महज़ धड़क 2 के बारे में नहीं कहा जा रहा है। यह ज्योतिबा फुले, भीमराव आम्बेडकर, प्रेमचंद और ज़िंदगी के बारे में भी कहा जा रहा है। कितनी ही बार स्कूलों में, युवाओं के बीच में या फिर कह लें कि तथा
17 अगस्त 2025
बिंदुघाटी : ‘सून मंदिर मोर...’ यह टीस अर्थ-बाधा से ही निकलती है
• विद्यापति तमाम अलंकरणों से विभूषित होने के साथ ही, तमाम विवादों का विषय भी रहे हैं। उनका प्रभाव और प्रसार है ही इतना बड़ा कि अपने समय से लेकर आज तक वे कई कला-विधाओं के माध्यम से जनमानस के बीच रहे है
22 अगस्त 2025
वॉन गॉग ने कहा था : जानवरों का जीवन ही मेरा जीवन है
प्रिय भाई, मुझे एहसास है कि माता-पिता स्वाभाविक रूप से (सोच-समझकर न सही) मेरे बारे में क्या सोचते हैं। वे मुझे घर में रखने से भी झिझकते हैं, जैसे कि मैं कोई बेढब कुत्ता हूँ; जो उनके घर में गंदे पं