दुनिया के मजदूरो! आराम करो।
हिन्दवी डेस्क 29 जून 2024
किसी को कभी भी कोई भी काम नहीं करना चाहिए।
काम दुनिया के सारे दुखों की जड़ है। बुराई चाहे कोई हो, सारी की सारी या तो काम से पैदा होती हैं, या फिर काम की दुनिया में रहने से। दुखों से मुक्ति का मतलब है काम से मुक्ति पाना।
इसका मतलब यह क़तई नहीं कि हम मानवीय गतिविधियाँ बंद कर दें। मतलब साफ़ है—खेलकूद शैली में एक नए जीवन की रचना। दूसरे शब्दों में बेपरवाह उत्सवी माहौल-सी ज़िंदगी, शायद बेतुकी-बेपरवाह कला से सजी-धजी। खेल सिर्फ़ वही नहीं, जो बच्चे खेलते हैं, पर शर्तिया उतना ही मज़ेदार और महत्त्वपूर्ण।
मैं सहज आनंद और मिलजुल कर उन्मुक्त उल्लास का मौज उठाते जीवन के लिए एक सामूहिक और सामुदायिक जोश-कर्म की तमन्ना रखता हूँ। खेलकूद निष्प्राण (निष्क्रिय) नहीं। धंधा हमारा जो भी हो, आमदनी हमारी कुछ भी हो; यह तय है कि निरे आलस्य या लापरवाही के लिए हमारे पास जितना वक़्त बचता है; हमें उससे बहुत ज़्यादा चाहिए। जैसे ही धंधे की थकान दूर होती है, हम आनंद के लिए कुछ करना चाहते हैं। हमें वक़्त चाहिए आनंद के लिए, खेलने के लिए।
ऑब्लोमोविज्म (प्राणघाती आलस्य, जिसमें काम की दुनिया से ऊब पैदा होती है) और स्ताखानोविज्म (कुछ पाने के लिए मर जाने तक काम करने का जोश) एक ही खोटे सिक्के के दो पहलू हैं। बेपरवाह खेलकूद की मौज वाली ज़िंदगी, आज की वास्तविक ज़िंदगी से कहीं मेल नहीं खाती।
स्थिति बहुत बुरी है, आज की ज़िंदगी का अंधा कुँआ हमारे ज़िंदा रह पाने की जद्दोजहद से बची-खुची थोड़ी-सी ज़िंदगी से भी प्राण-रस सोख लेता है। यह शायद आश्चर्यजनक ही है कि तमाम पुरानी विचारधाराएँ इस मामले में कट्टर हैं कि वे काम में विश्वास करती हैं।
मार्क्सवादी और ज़्यादातर अराज्यवादी काम में कुछ ज़्यादा ही विश्वास करते हैं, क्योंकि किसी भी और चीज़ में उनका विश्वास बहुत ही कम है।
उदारवादी कहते हैं कि रोजगार में हर तरह के भेदभाव को ख़त्म कर देना चाहिए। मैं कहता हूँ कि रोजगार को ही ख़त्म कर देना चाहिए। पुरातनपंथी कहते हैं—काम हमारा क़ानूनन हक़ होना चाहिए।
कार्ल मार्क्स के ‘बहके’ हुए दामाद, पॉल लाफ़ार्ज, के साथ मैं आवाज़ लगाता हूँ कि आलस्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। वामपंथी पूर्ण रोज़गार चाहते हैं। मज़ाक़ नहीं, अति(इतर) यथार्थवादियों की तरह मैं भी पूर्ण बे-रोज़गारी चाहता हूँ।
ट्राट्स्कीवादी स्थायी (लगातार चलते रहने वाली) क्रांति के लिए लड़ते हैं। मैं लड़ूँगा स्थायी मौज-मस्ती से भरी ज़िंदगी के लिए। अगर सारे विचारक काम की वकालत करते भी हैं—जैसा कि वे वास्तव में करते हैं—तो सिर्फ इसलिए नहीं कि उन्हें काम से मुक्ति मिल जाए, मगर आश्चर्य, वे साफ़-साफ़ कहने से कतराते हैं।
मजदूरी, काम के घंटे, काम की शर्तें व स्थितियाँ, शोषण, उत्पादकता, लाभ-हानि इन सब के बारे में वे लगातार बातें करेंगे। वे मगन होकर हर दूसरी चीज़ के बारे में बात करेंगे सिवाए सीधे-सीधे काम के। ये विद्वान जो हमारे लिए भी सोचने का ज़िम्मा ले बैठे हैं, काम के बारे में अपने इरादों को शायद ही कभी ज़ाहिर होने देते हैं, जबकि यह हम सबकी ज़िंदगी में लगातार छाया हुआ है।
वे आपस में भी सच और सही के अलावा सारी चीज़ों पर जमकर बहस करेंगे। मज़दूर संघ और प्रबंधन का मानना है कि ज़िंदा बचे रहने के लिए हमें अपने जीवन का बहुमूल्य समय बेचना चाहिए, हाँ बेहतर दाम के लिए कभी-कभी लड़ना ज़रूर चाहिए।
मार्क्सवादी सोचते हैं कि अफ़सरों से शासित दुनिया बेहतर होगी। उदारवादी मानते हैं कि व्यवसायियों से शासित दुनिया फ़ायदे में रहेगी। नारीवादियों का नारा है कि मालिक कैसा भी हो बस नारी होनी चाहिए। ज़ाहिर है, इन विचारों का ढोल पीटने वालों के बीच लूट के बँटवारे को लेकर ख़ासी गुत्थमगुत्थी है। और उतनी ही साफ़ है उनकी मंशा कि शासन तो चाहिए ही और हमें तो काम करना ही चाहिए।
आप सोच रहे होंगे, मैं मज़ाक़ कर रहा हूँ या वाक़ई गंभीर हूँ। मैं गंभीर भी हूँ और मज़ाक़ भी कर रहा हूँ। बेपरवाह मौज का मतलब बेतुकापन या हास्यास्पद नहीं। खेल-कूद का मतलब हल्कापन नहीं और बेमतलब तो क़तई नहीं, बल्कि हमें ज़रूरत है ज़्यादा से ज़्यादा हल्केपन को जीवन में गंभीरता से उतारने की। ज़िंदगी एक खेल हो, बड़ी-बड़ी चुनौतियों से भरा खेल। मैं हमेशा ही यह खेल खेलना चाहूँगा।
काम का विकल्प महज निष्क्रियता नहीं। बेपरवाह मौज में होने का मतलब नशे में धुत्त सुस्त पड़े रहना नहीं। शर्तिया, आलस्य या बेपरवाह मौज तब सबसे ज़्यादा असरदार होती है; जब वह दूसरी ख़ुशियों और मज़ेदार समय के साथ अठखेलियाँ कर रही होती है। ना मैं विश्राम-अवकाश (लीजर) की बात नहीं कर रहा, जो काम की दुनिया का समय-अनुशासित सुरक्षा-कवच होती है बल्कि मैं उससे दूर जाने की बात कर रहा हूँ।
विश्राम-अवकाश काम या और ज़्यादा काम कर पाने की क्षमता बढ़ाती है। इस दौरान हमारा शरीर काम से हुए नुक़सान से उबरता है और दिमाग़ काम को भूलने की बेकार कोशिश करता है। लोग छुट्टियों पर जाते हैं ताकि काम से कुछ छुटकारा मिले और लौटकर वे फिर काम पर लग सकें।
काम और विश्राम-अवकाश के बीच मुख्य फ़र्क़ यही है कि काम के लिए मज़दूरी मिलती है। यह मज़दूरी अंश मात्र भरपाई होती है हमसे छीने गए शारीरिक श्रम की तथा उससे कुंठित तन-मन की।
मैं परिभाषाओं का खेल नहीं खेल रहा। जब मैं कहता हूँ कि काम का नाश होना चाहिए तब मेरा मतलब ठीक वही है, जो मैं कह रहा हूँ। पर शब्दों तथा जुमलों को भाषाई-धौंस होने से बचाकर अपनी बात साफ़-साफ़ रखना चाह रहा हूँ। मेरे लिए काम की न्यूनतम परिभाषा है ‘मजबूर मज़दूरी’ जोकि ज़रूरी उत्पादन का दूसरा रूप है। दोनों ही ज़रूरी हैं।
काम माली या सियासी हथकंडों (लालच या सज़ा) द्वारा ज़बरदस्ती का लादा गया उत्पादन है। (लालच आख़िरकार एक सज़ा ही होती है।) लेकिन सारा सृजन काम नहीं होता। काम कभी भी ख़ुद के लिए नहीं होता, यह हमेशा किसी उत्पाद के लिए होता है, जोकि काम करने वाले (सच कहा जाए तो ज़्यादातर किसी और) को हासिल होता है। काम मूल रूप से यही है।
दूसरे शब्दों में इसे नफ़रत के एक रूप में परिभाषित किया जा सकता है। लेकिन परिभाषाएँ जितना बताती हैं, काम उससे ज़्यादा घटिया चीज़ है। काम में निहित हावी होने का दुष्चक्र समय के साथ और खुल कर सामने आता है। ऐसा समाज, जो काम से लदा-फदा हो, जहाँ हर मानवीय गतिविधि काम बनती जा रही हो, वहाँ काम का कपटीपना और साफ़-साफ़ उभरता जाता है।
यह काम के ख़तरे और इसके प्रति नफ़रत को और बढ़ाता है। उद्योगों पर आधारित समाज चाहे वे पूँजीवादी हों या ‘साम्यवादी’ ऐसे ही समाज हैं।
यह बात पूँजीवादी देश या समाज के तुलना में ‘साम्यवादी’ देश-समाज के लिए ज़्यादा सही है, जहाँ राज्य लगभग अकेला मालिक होता है, रोज़गार देने वाला मालिक, बाक़ी सारे होते हैं चाकरी करने वाले। रोजगार का मतलब होता है काम, मज़दूरी के बदले काम करना, यानी किश्तों में ख़ुद को बेचना।
अमेरिका में काम करने वालों में लगभग 95% किसी और के लिए काम करते हैं। सोवियत संघ, युगोस्लाविया, क्यूबा या ऐसे ही वैकल्पिक ढाँचे वाले किसी और देश-समाज की बात करें तो यह आँकड़ा 100% तक पहुँच जाता है। हाँ, काम की होड़ में जूझती तीसरी दुनिया में कुछ किसानों के गढ़—जैसे कि भारत, मेक्सिको, ब्राजील, तुर्की आदि, अब भी बचे हैं, जहाँ, चरमराती ही सही लेकिन किसानों की अच्छी जमात है, जो कि हज़ारों साल से चली आ रही पारंपरिक मज़दूरी के तरीकों को खींच रहे हैं।
सबसे आम है—राज्य सत्ता या परजीवी ज़मींदारों को कर की अदायगी। कर यानी कि फ़िरौती या हफ़्ता वसूली, दो नहीं तो तुमसे तुम्हारे जीने का सामान छीन लिया जाएगा। हम चंगुल में ऐसे फँसे हैं कि सब सहन करने के आदी हो चले हैं, हमें ये तरीके भी अच्छे लगने लगे हैं।
उद्योगों और दफ़्तरों में काम करने वाले मज़दूर ऐसी खोजी नज़रों के तले काम करते हैं, जो ग़ुलामी को बरक़रार रखती हैं।
आधुनिक काम की दुनिया के और कई बुरे मायने हैं। लोग न सिर्फ़ काम में जुटे हैं बल्कि उनके काम तय किए हुए होते हैं। एक आदमी हमेशा एक ही तरह के जवाबदेही में जूझा रहता है, या तो करो या जाओ। यदि कोई जवाबदेही बहुत दिलचस्प हो तो भी (हालाँकि ऐसा नहीं के बराबर ही होता है) लगातार और मज़बूरी में काम करते रहने से इसका खेल और मस्ती वाला मज़ा ग़ायब हो जाता है।
यह संभव है कि कोई ‘तयशुदा ज़िम्मेदारी’ इसमें छिपी मस्ती के कारण कुछ लोगों को कुछ समय के लिए लुभा ले, पर अगर वही ज़िम्मेदारी लंबे समय तक (हफ़्ते में 40 घंटे के हिसाब से) करनी पड़े तो बोझ ही बन जाएगी। तब तो और भी, जब आपको इन ज़िम्मेदारियों के बारे में कुछ कहने-सुनने का हक़ न हो, लाभ किसी और को मिल रहा हो, जिसका इस ज़िम्मेदारी में कोई वास्तविक योगदान न हो तथा इन ज़िम्मेदारियों को वास्तव में पूरा करने वालों के साथ अनुभवों तथा परेशानियों को साझा करने का अवसर न हो।
काम की वास्तविक दुनिया यही है—अफ़सरशाही की बदमाशियों की दुनिया, यौन-शोषण तथा भेदभाव की दुनिया, कूढ़-मगज़ अफ़सर की दुनिया, जो अपने मातहत काम करने वालों का शोषण भी करते हैं और बलि का बकरा भी बनाते हैं। लेकिन चलती सिर्फ़ उनकी ही है। हालत ऐसी है कि किसी भी ढाँचा-तंत्र के शिकंजे को बनाए रखने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा उत्पादन और लाभ जैसे पूँजीवाद के गूढ़-मंत्र को भी दरकिनार कर दिया जाता है।
काम करने से इंसान तुच्छ और हीनता की भावना से भरता जाता है। सच कहा जाए तो यह वह ‘ग़ुबार’ है जो ‘अनुशासन’ नाम के डंडे से लगातार हाँके जाने और शर्मसार किए जाने से फूलता जाता है। फ़ुको ने इस स्थिति को जटिल बना कर पेश किया है, पर है यह सरल-सी बात। काम करने वालों पर निरंकुश नियंत्रण के सारे तरीकों को जोड़ दिया जाए तो बनता है अनुशासन।
ये तरीके हैं—कड़ी नज़र रखना, मशीन की तरह काम, काम की थोपी गई गति, उत्पादन-लक्ष्य, आते-जाते समय मशीन में उपस्थिति दर्ज करना इत्यादि। अनुशासन वह छड़ी है, जो कारख़ानों, दफ़्तरों, दुकानों में उसी तरह इस्तेमाल होते हैं, जैसे जेलों, विद्यालयों और दिमाग़ी अस्पतालों में।
यह दरअसल आधुनिक इंसानों की नायाब लेकिन भयावह ईज़ाद है। यह शायद नीरो, चंगेज़ ख़ान, दुर्दांत इवान जैसे राक्षसी तानाशाहों के वश की भी बात नहीं थी। सारे वहशीपने के बावजूद उनके पास इंसानों को नियंत्रित कर पाने के वे तरीके नहीं थे, जो कि आज के तानाशाहों के पास हैं।
अनुशासन साफ़तौर पर शैतानी क़िस्म की आधुनिक घेराबंदी है। यह एक नायाब-सी ज़बरदस्ती है, जिसे जल्द से जल्द ख़त्म कर देना चाहिए।
ऐसी ही होती है काम की दुनिया। खेल की दुनिया ठीक इसके उलट है। खेलकूद हमेशा अपनी इच्छा से होता है। अनिवार्य या थोपा गया खेल, खेल नहीं काम बन जाता है। यह बिल्कुल सरल व सही है। कॉवेन बर्नी ने खेल को “बिना किसी फल या परिणाम” के रूप में परिभाषित किया है।
अगर मतलब यह है कि खेल महत्त्वहीन होता है, तो यह परिभाषा सही नहीं है। पते की बात यह नहीं कि खेल का कोई परिणाम नहीं होता, यह खेल को तुच्छ बनाने की कोशिश है, बात पते कि यह है कि खेल का यदि कोई परिणाम होता भी है तो वह बिल्कुल मुफ़्त होता है। खेलना और देना एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, एक व्यवहार की बात है तो दूसरा सहज आदान-प्रदान की, पर दोनों के पीछे एक ही ताक़त है—खेलपूर्ण प्राणशक्ति।
इन दोनों में ही परिणाम के ख़िलाफ़ एक शालीन हिक़ारत छिपी हुई है। खेलने वाले को कुछ ना कुछ तो हासिल है, तभी वह खेलता है। अब वह जो कुछ भी हो पर खेलने वाले के लिए असल हासिल तो वह अनुभव है, जो उसे खेलने के दौरान मिलता है।
खेल के कुछ अलग तरह से शौक़ीन, जैसे कि जोहान हुइजिंगा, इसे बाज़ी खेलने या नियम पालन करने की तरह परिभाषित करते हैं। मैं जोहान हुइजिंगा की भाषा कुशलता का आदर करता हूँ, पर ज़ोरदार तरीक़े से उनकी सीमाओं को नकारता भी हूँ। बहुत सारे ऐसे खेल हैं जैसे—शतरंज, बेसबॉल, मोनोपॉली, ब्रीज़ इत्यादि, जो नियमों से तो भरे पड़े हैं पर इनमें बाज़ी खेलने के अलावा भी बहुत कुछ है।
बातचीत, यौन-क्रिया, नाचना, घूमना, इन सब में कहीं कोई नियम नहीं हैं और अगर ये कुछ हैं तो शर्तिया बस खेल हैं। और हाँ हम नियमों के साथ भी खेल सकते हैं, वैसे ही सहजता से जैसे किसी भी दूसरी चीज़ के साथ।
अनुवाद : मनोज कुमार झा, विनय रंजन और रूपम कुमारी
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