‘ताजमहल का टेंडर’ : लालफ़ीताशाही की भूलभुलैया में फँसे शाहजहाँ
रहमान 10 सितम्बर 2024
नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (National School of Drama) में 23 अगस्त से 9 सितंबर 2024 के बीच हीरक जयंती नाट्य समारोह आयोजित हुआ। यह समारोह एनएसडी रंगमंडल की स्थापना के साठ वर्ष पूरे होने के अवसर पर किया जा रहा था। समारोह में 9 अलग-अलग नाटकों की कुल 22 प्रस्तुतियाँ हुईं। समारोह में 6, 7 और 8 सितंबर को नाटक ‘ताजमहल का टेंडर’ खेला गया। यहाँ प्रस्तुत है नाटक की समीक्षा :
बादशाह शाहजहाँ अपनी प्यारी बेगम की याद में एक मक़बरा बनवाना चाहते हैं। वह पी. डब्ल्यूडी के चीफ़ इंजीनियर गुप्ता जी को बुलाकर उन्हें अपनी जन्नतनशीन बीवी मुमताज़ के लिए एक यादगार इमारत बनवाने के अपने ख़वाब के बारे में बताते हैं।
काफ़ी सोच-विचार के बाद वह इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि मुमताज़ की याद में जो मक़बरा बनेगा, उसका नाम होगा ताजमहल।
गुप्ता जी एक बेहद चालाक और भ्रष्ट अधिकारी हैं। वह शाहजहाँ को अपने जाल और लालफ़ीताशाही की ऐसी भूलभुल्लैया में फँसा लेते हैं, जो अनेक हास्य-व्यंग्य से भरी स्थितियों का निर्माण करती है। और साथ-ही-साथ भ्रष्ट हो चुकी व्यवस्था को भी दर्शकों के सामने रखती है।
शाहजहाँ की ताजमहल बनाने की अर्ज़ी के अनुमोदन में ही अफ़सरशाही पच्चीस साल लगा देती है। तब कहीं जाकर ताजमहल के निर्माण का टेंडर निकाला जाता है।
‘ताजमहल का टेंडर’ हमारे आज के दौर का एक बेहद सफल व्यंग्य-नाटक है। यह नाटक व्यवस्था के उन तमाम पहलुओं पर व्यंग्यात्मक चोट करता है, जो तंत्र में बैठकर विकास के नाम पर स्वयं और केवल स्वयं का विकास करते हैं। जनतंत्र में जनता के अलावा हर आदमी सुखी है। यह नाटक उन तमाम लोगों का पर्दा फ़ाश करता है, जो समाज-सेवा के नाम पर अपने प्रिय जनों की सेवा करते हैं।
हमारे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में भ्रष्टाचार नहीं है। भ्रष्टाचार का काम हमेशा-हमेशा के लिए सुचारू रूप से चलता रहे, इसके लिए व्यवस्था में बैठे व्यवस्थापकों ने एक ऐसे ढाँचे का निर्माण किया है, जो दिखता एक सुंदर लोकतांत्रिक व्यवस्था की तरह है। लेकिन भीतर भ्रष्टाचार, मुँह बाए सियार-सा बैठा हुआ है। जो देश के असंख्य मज़दूरों और किसानों के मेहनत की कमाई बिना डकार लिए खा रहा है।
नाटककार अजय शुक्ला ने शाहजहाँ के ताजमहल बनाने की ख़्वाहिश को मध्य में रखकर जिस मज़बूत तंज़ के साथ सिस्टम के कपड़े उतारे हैं। वह हमें व्यवस्था की काली सच्चाई से रूबरू कराता है। यह व्यवस्था किसी एक व्यक्ति से संचालित नहीं होती। ऊपर से नीचे तक हर आदमी का एक क्रम बना हुआ है। उसे, उसके क्रमानुसार काम और दाम स्वतः मिलता रहता है।
माध्यम कोई एक गुप्ता जी बनते हैं, लेकिन एक नलकूप से कई घरों के नल तक पानी जाता है। जिन घरों के नल तक पानी जाता है, उनके द्वारा कभी भी नलकूप के जलस्तर के बारे में कोई चर्चा नहीं होती है। लेकिन जिनके घरों में नल से पानी जाना चाहिए, वह जीवन भर नलकूप के जलस्तर को बनाए रखने में लगे रहते हैं।
नाटक अपने हर दृश्य और प्रत्येक संवाद में दर्शकों को ख़ूब हँसाता है। साथ ही एक-एक कर व्यवस्था की क़लई खोलता जाता है। लेकिन हम उदारवादी प्रवृति के लोग हैं। जिन बातों पर हमें चिंतन करना चाहिए, जिसके लिए हमें एकजुट होकर खड़े होना चाहिए। उस पर या तो हम हँसते हैं, या जी भर के गालियाँ देते हैं। या फिर चुपके से उस सिस्टम का हिस्सा बनने की कोशिश में लगे रहते हैं।
इस नाटक का विषय जितना प्रासंगिक है, प्रस्तुति उतनी ही शानदार रही। इस प्रस्तुति की एक मुख्य विशेषता यह रही कि इसमें 1998 की फ़र्स्ट कास्ट पुनः अभिनय करती नज़र आई। उन्हें पुनः मंच पर देखना एक अलग अनुभूति थी।
नाटक का आरंभ भरपूर ऊर्जा से होता है और कहानी की शुरुआत दर्शकों में हास्य का संचार करती हुई होती है। जो नाटक के अंत तक कम ज़्यादा बनी रहती है। नाटक में मुख्य भूमिका कर रहे किरदार और सभी अभिनेता मंच पर भरपूर उत्साह से उतरे थे।
शाहजहाँ बने चितरंजन त्रिपाठी, गुप्ता जी बने श्रीवर्धन त्रिवेदी, भैया जी बने राजेश शर्मा, महिला नेता बनी कविता कुंद्रा, मुरारीलाल शर्मा बने बृजेश शर्मा, सेठी बने पराग समराह यह सभी 1998 के फ़र्स्ट कास्ट हैं। इन सभी अभिनेताओं के अभिनय में आज भी इतनी ताज़गी है कि यह स्वीकार करना मुश्किल हुआ कि यह पच्चीस वर्ष बाद इस नाटक में दुबारा अभिनय कर रहे हैं। अपने संवाद, अदायगी और अभिनय से दर्शकों की स्मृतियों में ये और कई वर्षों तक रहने वाले हैं।
शाहजहाँ अपने जीवन के आख़िरी पड़ाव में बेगम मुमताज़ के लिए एक महल बनाना चाहते हैं। जिसकी ज़िम्मेदारी इंजीनियर गुप्ता जी को सौंपी जाती है। गुप्ता जी केवल काम की ज़िम्मेदारी लेते हैं। वह ख़त्म कब होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि सिस्टम में बैठे ऊपर से लेकर नीचे तक के सभी लोगों को भरपूर मुनाफ़ा कब तक मिल जाएगा।
मुनाफ़े का हिसाब-किताब सबसे पहले गुप्ता जी और उनके ख़ास सहयोगी सुधीर बाबू तय करते हैं। गुप्ता जी बने श्रीवर्धन त्रिवेदी और सुधीर बने सत्येंद्र मलिक नाटक में शुरू से लेकर आख़िर तक छाए रहे। उसके बाद अगले पायदान पर बैठे भैया जी आते हैं, जिसका अभिनय राजेश शर्मा कर रहे थे। जो पेशे से कांट्रेक्टर हैं, बिल्डिंग्स बनाते हैं। लेकिन नीयत से निहायती बेईमान और भ्रष्ट हैं। जो हर आपदा को अवसर में बदल लेता है।
ये लोग अपना-अपना हिस्सा तय करते हैं कि तभी एक महिला नेता को इसकी भनक लगती है। वह समाज में हो रहे भ्रष्टाचार को रोकने के लिए प्रकट हो जाती हैं, और अंततः अपना भला कर लौट जाती है। हमारे देश में मज़दूर और नेताओं की संख्या लगभग समान है। मज़दूर वर्ग अपने जीवन के झंझावातों में उलझे हैं। नेता उन्हें यह ध्यान दिलाने में कि उनके साथ बहुत ग़लत हो रहा है, और वह उनके लिए लड़ रहे हैं। इतिहास गवाह है, मज़दूरों के हक़ के लिए हुई लड़ाईयों से मज़दूरों को छोड़कर सबका भला हुआ है। महिला नेता बनी कविता कुंद्रा सचमुच की नेता लग रही थी।
नेताओं के भ्रष्टाचार का जब हमें भान हुआ। तब हमने उसके लिए आंदोलन करना शुरू किया। उस आंदोलन से न्याय कितना मिला, यह आप विचार कीजिए। लेकिन हर दिन अलग-अलग विषय पर आंदोलन करने वाले कुछ संगठन ज़रूर बन गए। जिनका जीविकोपार्जन ही धरना और आंदोलन से होता है।
नाटक में एंट्री होती है, ऐसे ही एक आंदोलनजीवी नेता कन्हैया लाल शर्मा की, जिसका अभिनय अंकुर सिंह कर रहे थे। जो स्वयं को जेएमयू—जमुना बचाओ यूनियन का प्रेसिडेंट बताता है। अपने साथियों के साथ लेटो आंदोलन करता है, और अंततः महज़ पाँच सौ रुपए पाकर समाज का भला कर लौट जाता है।
इस बीच शाहजहाँ का ताजमहल बनते हुए देखने के ख़बाव को धीरे-धीरे पंद्रह साल बीत जाते हैं। हालाँकि गुप्ता जी की माने तो काम दिन-रात चल रहा है। स्टाफ़ पूरी शिद्दत से काम कर रहे हैं। और वह ख़ुद हर दिन बादशाह को प्रोग्रोस रिपोर्ट भी भेजते रहते हैं। ताजमहल के नाम पर कई बिल्डिंग्स का निर्माण हो गया। लेकिन ताजमहल है कि उसका कहीं नामोनिशान नहीं।
यह एक दृश्य देशभर में विकास कार्य के नाम पर हो रहे घोटालों को उजागर करता है। आए दिन सड़क, पुल, पुलिया, ब्रिज और बिल्डिंग्स के गिरने और ढहने की ख़बर आती है। कई-कई बार तो ऐसी ख़बरें आती हैं, जिसपर सच में हँसी आ जाती है। एक ख़बर आई थी कि बीच खेत में किसी कांट्रेक्टर ने एक पुलिया का निर्माण कर दिया था।
बहरहाल भ्रष्टाचार की कड़ी यहीं समाप्त नहीं होती है। जनता का जनतंत्र पर यकीन जब डगमगाने लगा। तब विचारकों ने विचार कर एक ऐसी संस्था का निर्माण किया। जो भ्रष्टाचार की रोकथाम कर सके और जो ऐसा करते हैं, उन्हें दंडित कर सके। लेकिन यह सिस्टम इतना जटिल और पुराना है कि जो भी इस सिस्टम को बदलना चाहता है, सिस्टम उसे ही बदल कर रख देता है।
जो भ्रष्टाचार रोकने आए थे, वे भी उसमें हिस्सेदार बन जाते हैं। और समाज-सेवा का यह काम सुचारू रूप से चलता रहता है। सेठी बने पराग समराह वैसे तो ठीक से समझा नहीं पाते, लेकिन जब यह कहते हैं कि चार फ़ीट की दीवार साढ़े तीन फ़ीट ही क्यों बनी? तो उन्हें बाक़ी के पचास लाख मिल जाने का आश्वासन देकर भेज दिया जाता है।
हद तो तब हो जाती है, जब प्रदूषण विभाग वाले आते हैं। उनकी दलील है कि ताजमहल के नक़्शे के अनुसार उसमें जो चार चिमनियाँ हैं, उसके धुएँ की निकासी को लेकर क्या सोचा गया है? उन्हें प्रदूषण रोकथाम के लिए नियुक्त किया गया है। लेकिन वो प्रदूषण काटने के लिए तलवार लेकर जाते हैं, और फिर समाज के भले के लिए कुछ एक करोड़ रुपए लेकर चले जाते हैं। मुरारीलाल शर्मा बने ब्रिजेश शर्मा की अदायगी दर्शकों को ठहाके लगाने पर मजबूर कर रही थी।
सभी चुनौतियों को पार करते हुए, अंततः ताजमहल बनाने का टेंडर पास हो जाता है। पच्चीस साल के रिकॉर्ड टाइम में सरकारी विभाग टेंडर नोटिस लेकर बादशाह के पास आती है, जिसकी ख़बर सुनकर बादशाह ख़ुदा से मिलने चले जाते हैं। यह दृश्य मार्मिक है, साथ ही हास्यास्पद भी। आज भी हमारे देश में एक आम आदमी सरकारी विभाग के काम का बाट जोहते स्वर्ग सिधार जाता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
उस एक दृश्य में बादशाह, बादशाह नहीं हैं। उस दृश्य में हर वो आम आदमी है, जो अपने हक़ के लिए, अपनी लड़ाई लड़ते हैं। लेकिन भ्रष्टाचार के इस तंत्र में उसे उसके हिस्से का न्याय और मुआवज़ा मिलते-मिलते इतनी देर हो जाती है कि उस सहायता राशि से केवल उनका अंतिम संस्कार ही हो पाता है।
बादशाह को सनक थी, ताजमहल बनाने की। लेकिन आम जनता मूलभूत सुविधाओं के लिए संघर्षरत है। पानी, बिजली भोजन, सड़क और न्याय उन्हें केवल इतना ही चाहिए। लेकिन आप सोचिए क्या हर नागरिक को ये मिल रहा है?
इन तमाम कलाकारों के अतिरिक्त औरंगजेब बने मजिबूर रहमान, मुमताज़ बनी पॉली फुकन, जहाँआरा बनी मधुरिमा और शिल्पा भारती, शक्तिमान बने अनंत शर्मा, नर्तकी पूनम दहिया, लड़का विक्रम और लड़की रीता देवी और शिवानी अपने किरदारों की लय में थे। जो बीच में कुछ एक लम्हें के लिए आते हैं और दर्शकों को अगले दृश्य के लिए तरोताज़ा कर जाते हैं। दरबारी की भूमिका में शिव प्रसाद, हीरालाल, नारायण पवार, प्रतीक और आलोक रंजन थे।
अजय शुक्ला लिखित और चितरंजन त्रिपाठी द्वारा निर्देशित नाटक ‘ताजमहल का टेंडर’ एक व्यंग्यात्मक नाटक है। जो व्यवस्था पर कड़ी चोट करता है। नाटक के कई पहलू हैं—अभिनेता, प्रकाश परिकल्पना, मंच सज्जा और अभिनय शैली, जिनपर यदि बात किया जाए तो काफ़ी लंबी बात हो सकती है। लेकिन नाटक का जो मूल भाव और संदेश है। उसे जिस रोचकता और व्यंग्यातमकता से लिखा गया है। उसकी प्रस्तुति भी उतनी ही रोचक और रोमांचित करने वाली थी।
अंत में फ़िल्म गुलाल से अभिनेता पीयूष मिश्रा का किरदार ‘पृथ्वी बन्ना’ का संवाद—
इस मुल्क ने हर शख़्स को जो काम था सौंपा;
उस शख़्स ने उस काम कि मा...चिस जला के छोड़ दी
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