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ताइवान : गाओची रोड पर जीवन

गाओची रोड से मेरा पहला परिचय तब हुआ था, जब मैं इस सड़क के किनारे वाली कॉलोनी में कमरे की तलाश में गया था। कमरा मुझे रसोई के साथ चाहिए था। ऐसे कमरे शिन चू में कम ही मिलते हैं। गाओची रोड के पास वाली कॉलोनी में दो-तीन दिन भटकने पर एक कमरा मिला भी था, लेकिन उसमें अँधेरा बहुत था। उस कमरे के प्रति आकर्षित करने वाली बात यह थी कि कमरे के साथ अटैच्ड रसोई बहुत बड़ी थी। यही कारण था कि मैं उस अँधेरे कमरे को किराए पर लेने के लिए तैयार हो गया था। बात यहाँ आकर अटक गई कि सिर्फ़ एक बड़े कमरे और एक बड़ी रसोई के एवज में मकान मालकिन पंद्रह हज़ार न्यू ताइवान डॉलर किराया माँग रही थी (भारतीय मुद्रा में बदलने के लिए 2.65 से गुणा करें)। ‌मैं उसे तेरह हज़ार देने को तैयार हो गया था। पर वह मानी नहीं। कुल मिलाकर, बात नहीं बन पाई।

आस-पास के अन्य ठिकानों, जैसे चाओ तुंग यूनिवर्सिटी में घूमने के लिए उन दिनों आई कार्ड दिखाना ज़रूरी हो गया था और उस यूनिवर्सिटी का आई कार्ड मेरे पास था नहीं। तो मैं मन-ही-मन चाओ तुंग यूनिवर्सिटी की हरी घास, पेड़ों और चट्टानों को याद करता और घूमने के अन्य विकल्प ढूँढ़ता। गाओची रोड पर मुझे कमरा नहीं मिला था। उस सड़क पर जाते ही नकार दिए जाने की आवाज़ मेरे कानों में गूँजने लगती थी। फिर भी उस समय मेरे आस-पास वह एक अच्छा विकल्प था, जहाँ पैदल चलने जाया जा सकता था।

जिस कॉलोनी की मैं बात कर रहा था, वह गाओची रोड के बाईं तरफ़ पड़ती थी। सड़क से कई गलियाँ उस कॉलोनी में खुलती थीं। उन दिनों मेरा बसावट से दूर घूमने का मन था। तो मैं दाईं तरफ़ एक सुनसान रास्ते पर मुड़ जाता। वहाँ एक चीनी देवता का मंदिर था। उसके सामने था खुला मैदान, जहाँ कुछ बेंच लगी थीं। मैदान की बेंच पर आकर कभी-कभी कोई युवा जोड़ा आकर बैठ जाता और कभी कोई फ़ूड डिलीवरी वाला वहाँ थावस खाने लगता।

मैदान के बग़ल में एक खेत था। मैदान में बिल्लियाँ घूमा करतीं और खेत में से कुत्ते के भौंकने की आवाज़ आती रहती। जब कभी कोई पियक्कड़ या गुंडों जैसे दिखने वाले आवारा वहाँ आकर बैठ जाते, वह एक डरावनी-सी जगह लगती थी। हो सकता है कि वहाँ बैठा हुआ मैं भी लोगों को संदिग्ध ही लगता होऊँ। या शायद आस-पड़ोस के लोगों को आदत होगी कि वहाँ बैठे किसी आदमी पर ध्यान दिए बिना, उसे संदिग्ध समझे बिना अपने रास्ते निकल जाएँ।

कभी-कभी नशे में धुत या नशा करने को उद्यत कुछ जवान लड़के वहाँ आ बैठते। बेंच पर बैठकर हल्ला मचाने लगते। उनकी गंध पाकर खेत का पहरेदार कुत्ता चुप रहता था, जबकि मेरे प्रति वह कोई रियायत नहीं बरतता था। मैंने निष्कर्ष निकाला कि कारण लड़कों की गंध है अथवा ताइवान की कोई चिर-परिचित गंध जिससे मैं अब तक महरूम हूँ। किसी मछली अथवा किसी अन्य सीफ़ूड की गंध तो नहीं? या पोर्क जो ताइवान में बहुत खाया जाता है? कोई गंध जिसे यहाँ के कुत्ते एंट्री पास समझते हैं।

मैं उसी बेंच पर बैठा नवदीप कौर को फ़ोन मिला लिया करता था। वह मंदिर हमारी दोस्ती के प्रस्फुटन का गवाह था। वह जो ख़ून देखकर बेहोश हो जाया करती थी, नर्स बनने जा रही थी।

पीछे के खेत में बँधा कुत्ता मेरी उपस्थिति वहाँ जानकर बीच-बीच में भौंकता रहता। मेरी और नवदीप की बातों में ख़लल पड़ता। किसी-किसी रात अकेले में कुत्ता इतना ज़्यादा भौंकता कि मुझे लगता कि वह अपनी रस्सी तोड़कर मुझ तक आ ही जाएगा। मैं क्यों उसके लिए इतना अवांछनीय था? ऐसे में मैं कुत्ते को ज़्यादा परेशानी से बचाने के लिए बेंच से उठकर चल देता।

मंदिर से वापस रोड पर लौटने के अलावा दो अन्य रास्ते भी थे। उनमें से एक कॉलोनी की बसावट की तरफ़ था। जबकि दूसरा रास्ता गाओफॉन्ग बॉटनीकल गार्डन की ओर जाता था। दरअस्ल यह बॉटनीकल गार्डन में प्रवेश करने का चोर रास्ता था। (‘चोर रास्ता’ टर्म से नफ़रत मुझे काफ़ी बाद में हुई, जब चालाकी से छोटे-बड़े हर लेखक को इस्तेमाल करते हुए एक शातिर युवा कथाकार ने अपने कहानी-संग्रह के शीर्षक में इस टर्म का प्रयोग किया।)

गाओफॉन्ग बॉटनीकल गार्डन कोई बाग़ नहीं था, बल्कि शहर के बीच एक जंगल था। रात में वहाँ सब कुछ भुतहा लगता था।‌ शिन चू ठहरा हवाओं का शहर। रात में हवा चलती तो बाँस के झुंड से चीख़-सी निकलती। मैं पहले कभी दिन में बॉटनीकल गार्डन के अंदर गया था और यह जानता था कि वहाँ कोई आदमख़ोर जानवर नहीं है। फिर भी वहाँ साँप ज़रूर होंगे और साँप से भी अपने राम को कम डर नहीं लगता है। तो मैं रात को बॉटनीकल गार्डन में गहराई तक नहीं जाता था। आख़िरकार, वह एक जंगल था।

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गाओची रोड पर यह अच्छी बात थी कि शिन चू की उमस भरी गर्मी उस सड़क पर कम लगती थी। वरना चाओ तुंग यूनिवर्सिटी के कुछ रास्तों पर उमस ज़्यादा लगती थी। बरसात के इंतज़ार वाले दिनों में उमस और भी अधिक हो जाती थी। हल्की-सी रिमझिम हुई नहीं कि जाने किन कोनों से छिपे हुए घोंघे निकल आते।

घोंघे फ़ुटपाथ पर ही रेंगते नहीं रहते, बल्कि सड़क की तरफ़ चल पड़ते हैं। मैं उन्हें सड़क से उठाकर किसी सुरक्षित जगह पर रख देता, जहाँ उन पर पाँव पढ़ने की संभावना बहुत कम हो। घोंघे को हाथ में उठाना एक लिजलिजा एहसास देता था। फिर भी उन्हें पकड़ने से उनकी जान फ़ौरी तौर पर बच जाती थी। कम-से-कम मैं ऐसा मान लेता था। कोई घोंघा ज़बरदस्ती दोबारा सड़क पर निकल पड़े तो उसकी मर्ज़ी। उन दिनों मुझे लगता कि जिसे बचना है, वह सड़क से भी बच निकलेगा और जिसे कुचला जाना है, वह पेड़ की क्यारी में छुपकर बैठा हो तो भी कुचला जाएगा। फिर भी हर जगह कुचले जाने की प्रायिकता अलग होती है।

बरसात की रातों में एक और समस्या यह होती कि बैठने के लिए कोई सूखी जगह नहीं मिल पाती थी। पानी का बहाव आता और पानी जूतों में भर जाता था। छाता केवल शरीर के ऊपरी हिस्से को बचा पाता था। पिंडलियों तक प्लास्टिक वाले जूते तो थे नहीं मेरे पास।

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गाओची रोड के किनारे बहुत-सी दुकानें और घर थे। एक औरत रात को अपना घर और उससे लगी दुकान पाइप में पानी चलाकर धोती रहती थी। कभी वह धोती सामने का फ़र्श, कभी कोई बर्तन, कभी प्लास्टिक की बड़ी-सी डलिया। लगता नहीं कि इतनी हैवी कुकिंग वह करती होगी क्योंकि रोज़मर्रा में भारत जैसा हैवी कुकिंग कल्चर वहाँ नहीं था। शायद उसकी दुकान कोई रेस्त्रां थी। मैंने पूछा नहीं उससे कभी। उसे हमेशा रात को ही देखा था। कभी दिन के उजाले में आकर देखने पर पता चलता कि आख़िर उस दुकान पर बिकता क्या था।

एक दुकान देर रात तक खुली रहती थी। बाहर चार हाल ही में बूढ़े हुए आदमी खाना-पीना करते रहते थे। शराब की बोतलें होतीं, मुर्गा या कोई और प्राणी तश्तरी में होता।‌ रात में एक बुज़ुर्ग औरत आती और ख़ाली बोतलों को इकट्ठा कर ले जाती। ताइवान में कई ज़रूरतमंद बुज़ुर्ग यह काम करते हैं। प्लास्टिक, शीशी वग़ैरह उठाने का। कुछ लोग अपने घर के बाहर ही एक बाल्टी में भर कर दिन भर की खाली बोतलें और प्लास्टिक रख देते हैं। मैं घूमने के समय जो पानी की बोतल लेकर जाता, उसे ऐसे ही किसी बुज़ुर्ग को दे देता जो उन्हें इकट्ठा कर रहा होता।

गाओची रोड पर जीवन वैसा ही था, जैसा ताइवान के किसी और कोने में होता। अंतर बस इतना है कि कहीं और कोई कुत्ता मेरी उपस्थिति से इतना विचलित नहीं होता था‌।

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